स्वदेश वापसी /दुबई से दिल्ली-'वन्दे भारत मिशन' Repatriation Flight from UAE to India

'वन्दे भारत मिशन' के तहत  स्वदेश  वापसी   Covid 19 के कारण असामान्य परिस्थितियाँ/दुबई से दिल्ली-Evacuation Flight Air India मई ,...

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January 11, 2016

सेल्फ़ी-वेल्फ़ी,सेल्फ़ाईटीस


सेल्फ़ी लेते समय तीन लडकियाँ समुद्र में डूबीं और उन्हें बचाने के लिए गया युवक  भी लापता !यह कल ही का समाचार था जिसे सुनकर मैं एक बार फिर सोच में पड़ गयी कि आखिर यह लत है या बीमारी? इससे पहले भी आये दिन सेल्फ़ी लेते हुए दुर्घटनाओं की खबरें पढ़ी हैं लेकिन पिछले कुछ दिनों से यह कुछ ज्यादा ही होने लगी हैं.यकीनन यह चिंता का विषय है.


August 13, 2013

क्या बदला है अब तक? क्या बदलेगा आगे?

इस साल २०१३ का स्वतंत्रता दिवस आने ही वाला है ,हर वर्ष की भांति वही औपचारिकताएँ दोहराई जाएँगी।
भारत व भारत के बाहर भारतीय समुदायों में झंडा फहराया जाएगा,भाषण दिए जाएँगे ,मार्च पास्ट ,तरह -तरह के आयोजन एवं प्रतियोगिताएँ आदि होंगी।
समारोह समाप्त होने के बाद देशभक्ति की भावना अवकाश की प्रसन्नता में घुल जाएगी ।
हम फिर से वही हो जाएँगे जो देशगान और झंडे फहराए जाने से पहले तक थे अर्थात वही तटस्थ नागरिक जो स्वयं में मग्न है ,जो अपने आसपास होने वाली हर घटना से उदासीन है।
अन्याय कहीं हो रहा है तो होने दो।।हमारे साथ तो नहीं हो रहा न! यह सोच वाला एक आम नागरिक।

मैं इस नागरिक को दोष नहीं दूँगी क्योंकि इसे ऐसा परिस्थितियों ने बनाया है।

वह कहीं हो रहे हर एक अन्याय को रोक नहीं सकता क्योंकि उसके पास कई कारण हैं -

  • ·        उसके हाथ बंधे हैं
  • ·        उसे अपने मौलिक अधिकारों का ज्ञान नहीं है
  • ·        वह कमज़ोर है [आर्थिक/सामाजिक/शारीरिक किसी भी स्थिति से]
  • ·        वह डरता है कुशासन से ।
  • ·        वह जानता है कि अगर वह यहाँ हस्तक्षेप करेगा तो उसका खुद का या उसके सगे सम्बन्धियों का जीवन भी दांव पर लग सकता है।
  • ·        वह चिल्ला नहीं सकता क्योंकि उसे न्याय व्यवस्था पर पूर्ण विश्वास नहीं है।
  • ·        वह शंका में है कि शिकायत करे तो किस से ?
  • ·        उसकी आँखों पर ऐसी पट्टी है जो उस ने खुद ही बाँधी है ,जिसके द्वारा वह कुछ भी ऐसा देखना नहीं चाहता जो उसे किसी कठिनाई में डाल दे।
  • ·        वह बचता -बचाता चलता है जब तक स्वयं  कुव्यवस्था की किसी दुर्घटना का शिकार न हो जाए !
  • आदि,आदि 

अब प्रश्न यह है कि एक आम नागरिक में देश के प्रति प्रेम क्यों नहीं है? किसने उसे ऐसा उदासीन बनाया?
शायद उसके ऐसा बनने की दोषी  बहुत हद तक यहाँ की व्यवस्था  भी है जो आज भी गुलामी वाली मानसिकता का शिकार है !
आज भी गोरी चमड़ी वाले विदेशी के आगे नतमस्तक हो जाने की मानसिकता,उन्हें ही उच्चकोटि का उच्चवर्ग का  मानने की मानसिकता ! बिना सोचे -समझे उनके हर अच्छे-बुरे आचरण  का अनुकरण / अनुसरण  करने की मानसिकता। स्वयं  को उनसे हीन समझने की मानसिकता

स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी हम में बदला क्या है ?जो भी परिवर्तन हुआ है उस में अधिकतर ऐसे नकारात्मक बदलाव भी हैं जो समय रहते न चेते तो देश और देश की संस्कृति को गहरे रसातल में ले जा सकते  हैं !
मेरी नज़र में कुछ परिवर्तन ऐसे  हुए हैं,जो चिंताजनक तो हैं ही भविष्य में अवश्य ही देश को नुकसान पहुँचायेंगे-
 
साभार-गूगल 
पहला ,हम अपनी भाषा को तुच्छ मानने लगे हैं ,आप झुठलायें  मगर यह सच है कि अंगेजी बोलने वाले को सम्मान और अपनी भाषा में ही सिर्फ बात करने वाले को नीची नज़र से देखा जाने लगा है।
अन्य विदेशी भाषा सीखना /आना अच्छी बात है मगर उसे अपनी भाषा की जगह दे देना ,भविष्य के लिए बिलकुल अच्छा नहीं है।
अंग्रेज़ी बोलना स्टेट्स सिम्बल बन गया है।
एक उदाहरण खुद का देखा हुआ--अक्सर घरों में बच्चों से कहते सुना होगा कि  बेटे एपल ले लो, बेटे ग्रेप्स खा लो!
अंग्रेज़ी के प्रति मोह इतना है कि हमने  नूडल्स,पास्ता या पिज्ज़ा के नाम नहीं बदले बल्कि अपने व्यंजनों के हिंदी के नाम अंग्रेज़ी में बदल दिए ।।पानी-पूरी को वाटर बाल्स' कहने लगे! 
हिंदी बोलने वाले अब हिंगलिश बोलने लगे हैं !
 फिल्मों का भी भाषा के प्रसार में बड़ा हाथ है,अब की फ़िल्में हिंगलिश को बढ़ावा दे रही हैं।

हमने  विदेशी कंपनियों का सामान देश में बेचना -खरीदना शुरू कर तो दिया लेकिन उन्हें उनके सामान पर जानकारी हिंदी या क्षेत्रीय भाषा में देना अनिवार्य नहीं किया ।
क्यों?जबकि यह बहुत ही महत्वपूर्ण है कि उत्पाद की जानकारी उसके लेबल पर हिंदी या  क्षेत्रीय भारतीय भाषा में भी हो। क्या यहाँ सभी अंग्रेज़ी जानते हैं ?
हमारी सरकारी तंत्र ही कभी अपनी भाषा को लेकर गंभीर हुआ ही नहीं तो विदेशी कंपनियां भी क्यूँ रूचि लें?

यूँ ही नहीं भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी ने वर्षों पूर्व अपनी कविता मातृभाषा में कहा है  कि 'निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, बिनु निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ।'

दूसरा बड़ा परिवर्तन है पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण! हम अपनी समृद्ध भारतीय संस्कृति को भूल रहे हैं जो आने वाले कल के लिए घातक साबित होगी।

बड़ों के साथ व्यवहार ,उनके सामने उठने -बैठने ,बोलने की तमीज-तहजीब,कपड़े पहनने का तरीका  सब पश्चिमी तौर तरीकों के अनुसार किया जाने लगा है।

मदिरापान यानि लिकर का प्रयोग जहाँ भारतीय संस्कृति में वर्जित था इसे असुरों का पेय बताया जाता था वहीँ अब नयी युवा पीढ़ी को आप इसके सेवन का आदी देखें तो आश्चर्य नहीं होगा! क्या लड़के ,क्या लड़कियाँ ।।अब इसे फैशन और स्टेटस सिम्बल बताते हैं।
भारत आगे आने वाले १० सालों में युवाओं का देश  होगा क्योंकि उस समय यहाँ सबसे अधिक युवा होंगे लेकिन अगर ये युवा इस तरह पश्चिमी तौर तरीकों का ,उनकी संस्कृति का अंधानुकरण करेंगे तो क्या यह देश को आगे ले जाने में सक्षम होंगे?
 
चित्र गूगल से 
युवाओं में नशे की आदत को बढ़ाने के लिए मैं न केवल उनके अभिभावकों जो उन्हें खुल कर पैसा देते हैं,उनकी गतिविधियों पर नज़र और नियंत्रण नहीं रखते बल्कि फिल्मों  को भी दोष दूँगी जिन्होंने पीना -पिलाना इतना ग्लेमरस बना दिया है कि युवा इसे फैशन या स्टेटस सिम्बल मानने लगे हैं।१९५० की एक फिल्म के गाने का दृश्य देखा था जिस में पार्टी चल रही है और सभी के हाथों में चाय का कप था ।और फ़िल्में जिन्हें समाज का दर्पण भी कहा जाता है ।आज की फ़िल्में देख लिजीए । चाहे हीरो हो या हेरोइन नशा करते ,नशे में झूमते -गाते दिखाई दे जाते हैं !
मुझे जहाँ तक याद है कि [शायद] फ़िल्मी परदे पर सबसे पहले 'साहब ,बीवी और गुलाम' में परदे पर मीना कुमारी के किरदार ने बहुत परेशान हो कर जब पीना शुरू किया तो सभी के दिल में किरदार के प्रति सहानुभूति जाग गयी थी।
उसके बाद फिल्मों में  पीना-पिलाना सिर्फ निराशा और हताशा की स्थिति में ही दिखाया जाता था लेकिन   आधुनिकता के नाम पर अब तो फिल्म में हीरो- हीरोईन खुशी में ,रोमांच के लिए पीते हैं । हेरोईन गाती है 'मैं टल्ली हो गयी!'। भाषा में अभद्र शब्दावली की बात क्या  करें अश्लील गाने गाना वाला आज ७० लाख रूपये प्रति गाना ले रहा है । क्योंकि उसकी माँग है वही पसंद बन गयी है मगर क्यों? क्या यह एक संकेत नहीं कि युवाओं की मानसिकता में क्या बदलाव आया है?
पाश्चात्य जीवन शैली जो आत्मकेंद्रित मानी जाती है उसे अपना कर अपनों से दूर रहने में सुख का अनुभव करते हैं। ऐसे में आपसी सहयोग, एकता ,प्रेम का महत्व ये कितना समझ पाते हैं?
कहाँ ले जा रहे हैं हम अपनी इस युवा पीढ़ी को ? हम इन से क्या नैतिकता की बातें कर सकते हैं?

[यह चित्र फेसबुक से लिया गया है.इस पर लिखा शेर किसका है मालूम नहीं ]

तीसरा जो परिवर्तन है वह राजनीति में है -राजनैतिक नैतिकता का ह्रास होना ,राजनैतिक चरित्र में गिरावट का आना ।जिसके चलते इतने वर्षों बाद भी हर नागरिक को खाना,पानी,आवास,शिक्षा  जैसी मूलभूत सुविधाएँ भी प्राप्त नहीं हैं
उन नेताओं की सोच इसका कारण है जो सिर्फ कुर्सी पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार है।जिन्होने कृषि प्रधान देश को कुर्सी प्रधान देश  बना डाला ! आम जनता को बेवकूफ बनाने के लिए राज्यों  को /लोगों को भी बाँट रहे हैं। उनके लिए उनकी स्वार्थपूर्ति पहले हैं देश नहीं ।
एक समय था जब इस देश में श्री लाल बहादुर शास्त्री जी ने नारा दिया था।।'जय जवान,जय किसान ' क्योंकि वे इन दोनों का महत्व जानते थे।
लेकिन आज न किसान को महत्व दिया जा रहा है बल्कि वह तो गंवार अनपढ़ और 'परे हट' वाली श्रेणी में रखा जाने लगा  है ! और जवान!।। उसके लिए तो बिहार एक मंत्री यह कहते सुनायी दिए कि वे तो जाते ही मरने के लिए हैं ! अफ़सोस होता है ऐसी सोच पर! इसी तरह की सोच के व्यवहार का एक उदाहरण देखें 'किसे क्या मिला?' इन चित्रों में -
कमांडो के लिए साधारण बस [ताज पर हुए आतंकी हमले पर जीत के बाद ]
खिलाडियों के लिए डिलक्स बस मेच जीतने के बाद 

आज क्रिकेट के खिलाडियों और फ़िल्मी कलाकारों को जिस स्तर पर  सम्मान  /आर्थिक सहायता /पुरस्कार दिए जाते हैं क्या वैसे ही कभी सैनिकों या किसानो के लिए दिए गए?
हम कहते हैं उन्हें आप ये सभी सम्मान नहीं देते परंतु  कम से कम मान तो दें!

मेरे विचार में हमारे देश में यही दो सबसे अधिक उपेक्षा के शिकार हैं जो भविष्य के लिए हितकारी नहीं है।

आने वाले कल की युवा पीढ़ी जो सब कुछ इंस्टेंट चाहती है ,जो आराम पसंद है वह जब ऐसे वातावरण में बढ़ी होगी तो क्या कल सेना  में या खेतों में काम करना पसंद  करेगी?

कौन अन्न पैदा करेगा और कौन देश की जल/थल/वायु सीमा की रक्षा करेगा ? और तो और ,इन सेवाओं  में लोग नहीं भरती होंगे तो स्वयं इन नेताओं को सुरक्षा घेरा देने वाले नहीं होंगे!

रोज़गार के अवसर और सुरक्षित  वातावरण जब तक देश में नहीं होगा तब तक देश से प्रतिभाओं का पलायन भी होता रहेगा। देश से प्रतिभाओं के पलायन व्यवस्था में दोष के कारण ही है।
सब जानते  हैं कि राजनैतिक चरित्र गिरता है तो राष्ट्र पर सीधा असर पड़ता है।
ईश्वर की कृपा है इस देश  पर कि अभी भी कुछ अच्छे लोग राजनीति  में हैं जिनके कारण हम भविष्य के लिए आशा बनाए रख सकते हैं।
लिखने को कहने  को बहुत कुछ है लेकिन आज के लिए बस इतना ही!

जिस तरह की घटनाएँ बनती दिखाई दे रही हैं उनके चलते एक विचार आता है  कि  स्वतंत्रता दिवस हर वर्ष मनाना है तो हर नागरिक को देश के प्रति प्रेम की भावना जगाए रखना होगा और अपनी आँखें भी खुली रखनी होगी ताकि किसी भी  रूप में आ कर कोई' अपना या पराया  हमारी यह आज़ादी न छीन  ले!
 १५ अगस्त -स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!


July 31, 2013

क्या आप सुन सकते हैं?

क्या आप सुन सकते हैं ?हाँ..तो आप को सुनना ही होगा..
अगर मैं आप से कहूँ कि आप अपने कानो को अच्छी तरह से बंद कर लें..और इसी तरह कम से कम एक घंटा अपनी सामान्य दिनचर्या करने का प्रयास करें .क्या आप कर सकेंगे?अगर हाँ ,तो कितनी देर तक?

है न मुश्किल? हम जानते हैं कि हमारी पाँच इन्द्रियों में से श्रवण क्षमता का होना उतना ही ज़रुरी है जितना हमारा देख सकना.हम पूरी तरह से सक्षम हैं फिर भि किसी एक इंद्री के कमज़ोर हो जाने पर खुद को असहाय सा समझने लगते हैं

क्या आप ने कभी उनके बारे में सोचा है जो कभी सुन नहीं पाते.ईश्वर ने उन्हें इस क्षमता से महरूम रखा है.
बच्चे सुनकर बोली सीखते हैं ,जब ऐसे बघिर बच्चे कुछ सुन ही नहीं सकेंगे तो बोलेंगे कैसे?इस तरह वह सुन न सकने के कारण बोलना भी सीख नहीं पाते. और हम जानते हैं कि भाषा स्वयं  को अभिव्यक्त करने के लिए आवश्यक है.

भारत में बहुत ही कम स्थानों पर इन बच्चों के लिए विशेष विद्यालय हैं,उनकी शिक्षा उनके रोज़गार की व्यवस्था कैसे हो ?क्या हमने आपने कभी इस बारे में सोचा है?

कोई हाथ- पैर से विकलांग होता है तो वह  दिखता है, उसे तुरंत नोटिस किया जाता है लेकिन जो व्यक्ति  देखने में पूर्ण परंतु बघिर है तो तुरंत आप उस के बारे में जान नहीं पाते.
ऐसे व्यक्ति की समस्या को समझना आसान नहीं होता .

वे अगर इशारों की भाषा सीख भी गए तो हर किसी को यह भाषा आती नहीं तो इन से कैसे संवाद करें और आपसी संवाद न कर सकने की स्थिति में  ये समाज से कट ही जाते हैं.

घर ही नहीं बल्कि बाहर भी उपेक्षित इन बच्चों और व्यक्तियों के लिए न तो कोई समय देता है न इन्हें शिक्षा और रोज़गार के पर्याप्त अवसर मिल पाते, सच तो यह है कि लोगों को पूरी जानकारी भी नहीं होती कि इनके लिए भी कुछ किया जा सकता है.

आज हम आधुनिक तकनीक के विकासशील दौर में हैं जहाँ समाज के इस वर्ग के लिए हमें हर स्तर पर कुछ न कुछ करना चाहिए .
यह भी जानना चाहिए कि विकलांग का अर्थ सिर्फ शरीर के हाथ या पाँव का न होना ही नहीं है ,विकलांगता का अर्थ है शारीरिक, मानसिक, ऐन्द्रिक, बौद्धिक विकास में किसी प्रकार की कमी का होना .

श्रवण क्षमता का न होना  भी विकलांगता के अंतर्गत ही आता है, इसे श्रवण विकलांगता कहते हैं .

इसके कई कारण होते हैं जैसे अनुवांशिक बघिरता,समय से पहले जन्म होना ,जन्म होते समय ऑक्सीजन की कमी,गर्भावस्था के समय के रोग ,उस दौरान ली गई किसी दवा का दुष्प्रभाव ,कां के अंदरूनी हिस्से में चोट लग जाना ,किस रोग विशेष से पीड़ित होना ,कान की बीमारियाँ  आदि.

जिन दोषों को दूर नहीं किया जा सकता वहाँ यह विकलांगता स्थायी हो जाती है और व्यक्ति अक्षम लेकिन हम और आप अगर सहयोग करें तो समाज का यह  उपेक्षित इस वर्ग अपनी अक्षमता को अपनी ताकत बनाकर सब के साथ कदम मिला कर चल सकता है.माना जाता है कि श्रवण विकलांग व्यक्ति में ध्यान केंद्रित कर सकने की अभूतपूर्व क्षमता होती है इसलिए ऐसे व्यक्ति अपना हर कार्य बेहतर कर सकते हैं.

रुमा  रोका एक ऐसी ही  सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं जो इस क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य कर रही हैं.२००४ में उन्होंने संकेतों की भाषा सीखी ताकि इस वर्ग विशेष से जुडकर उन्हें समाज की मुख्य धारा से जोड़ सकें .तब से अब तक उनके प्रयासों से ५८० युवक-युवतियाँ देश के २५ बड़े संस्थानों में सफलतापूर्वक काम कर रहे हैं .

इस विडियो को देख कर मैंने समझा कि इस उपेक्षित वर्ग को हमारी आपके सहयोग की  कितनी ज़रूरत है ,आप देखेंगे तो आप भी  जान सकेंगे कि  किस प्रकार उनका अब तक का यह सफ़र रहा और मिलिए उत्तरांचल के करण से जिस की कहानी किसी भी बघिर विकलांग व्यक्ति को प्रेरणा दे सकती है उसमें आत्मविश्वास भर सकती है .

समाज सेवी रुमा  रोका की अब तक की यह यात्रा हमें सीख  देती है और हर नागरिक को जागरूक करती है कि अगर वे इस वर्ग विशेष के लिए  इतना कुछ कर सकती हैं तो हम आप क्यूँ नहीं ?क्योंकि उन्हें सहानुभूति नहीं हमारा-आप का सहयोग चाहिए!

--भारत सरकार ने विकलांग व्यक्तियों के लिए नौकरियों में छूट दी है जिनसे हम-आप अनजान रहते हैं इस लिंक पर और अधिक जानकारी के लिए देखें और अन्य लोगों के साथ भी बाँटें ताकि समाज का यह वर्ग अलग-थलग न पड़े ,बल्कि हमारे साथ चले.

March 7, 2013

लघुकथा -२

यह एक ऐसी शृंखला शुरू की है  जिसमें  ऐसी बातें /घटनाएँ/किस्से  जो पहले सुने -कहे न गए हों ,हमारे आस-पास ,हमारे परिचितों या उनके सम्बन्धी/दोस्तों के साथ हुई बातें /घटनाएँ हों...इसकी -उसकी /इस से -उस से सुनी बातें...स्टाफ रूम की गप-शप इसका -उसका हाले दिल .... . उन सबको कहानी का रूप दे कर प्रस्तुत कर रही हूँ ...थोड़ी कल्पना और थोड़ी सच्चाई देखें शायद थोड़ी सी कहानी बन जाए!
पहली कहानी पर आप का स्नेह मिला उसके लिए धन्यवाद!

प्रस्तुत है -:
लघुकथा -२ 

आजकल रोज ज़रा जल्दी उठाना पड़ता है। दोपहर का खाना बना कर जो जाना होता है.सब्जी -दाल तो बनानी ही होती है।
'आजकल' इसलिए कहा क्योंकि आजकल माया के सास-ससुर उनके पास मिलने के लिए आये हुए हैं।अपनी सामान्य दिनचर्या में तो रात को अगले दिन की तैयारी करके रखी जाती है।
सास-ससुर के चार बेटे हैं इसलिए साल भर में कभी किसी के पास तो कभी किसी के पास रहने चले जाते हैं । वैसे  उन्हें अपना घर ही सब से प्रिय है वे कहीं भी स्थायी रूप से रहना नहीं चाहते ।
एक स्थान पर रहते -रहते उस स्थान से खास मोह या लगाव होना स्वाभाविक भी है।

माया को सुबह ६ बजे ऑफिस  के लिए निकल जाना होता है ,सुबह का नाश्ता और दोपहर के लिए दाल -सब्जी बना कर जाना होता है इसलिए चार बजे से थोड़ी देर भी हो जाए तो मुश्किल हो जाती है सब कुछ निपटाने में।
वह सारा काम व्यवस्थित कर के पूरा कर ही लेती थी।
सास -ससुर दोनों ही अपना काम स्वयं कर लेने में सक्षम हैं ।
उसने यही सोच कर दोपहर की चपातियाँ नहीं बना कर रखीं कि तब तक तो सूख  जायेंगी ,सासू माँ तो घर में  हैं ही ,दिन में खुद बना कर खा लेंगे। माईक्रोवेव का उपयोग करना भी उन्हें आता है।
उसने जाते हुए कहा कि मैं तो ४ बजे लौटूंगी ,आप लोग खाना खा लिजीयेगा ।

माया शाम चार बजे घर लौटी ,मालूम हुआ कि दोनों ने खाना खाया नहीं !
पूछने पर कहा कि तुम्हारे आये पर ही खायेंगे। नाश्ता भारी कर लिया था इसलिए दोपहर को इतनी भूख भी नहीं थी।
चार बजे सुबह की जागी हुई ,ऑफिस का काम ..थकी तो  हुई थी लेकिन कुछ बोली नहीं चुपचाप कपडे बदल कर खाना गरम कर के चपातियाँ बनाने लगी।
खाना खिलाने के बाद आटे से सने हाथ धोने लगी ।
पतिदेव ५ ३० घर आते हैं और उनका खाना भी तभी बनता है ,आज सारा काम करते करते ५ बज ही गए थे ,एक हलकी सी नींद लेने का समय भी नहीं बचा था.उसने सोचा आधे घंटे की बात है रोटियां बना कर रख दूँ फिर थोडा लेट जाउंगी.शाम ७ बजे फिर रात के खाने की तैयारी जो करनी होगी।
गैस पर तवा रखा .सासू  माँ ने पूछा अभी किसके लिए ?माया ने बताया कि अभी थोड़ी देर में आयेंगे तो सोचा रोटियां बना कर रख दूँ।

सासू माँ ने छूटते ही कहा कि वो तो दिन- भर ऑफिस में काम करके  थका हुआ आएगा , तभी गरम बना कर खिला देना ,अभी से बना कर क्यूँ रख रही है?

माया चुप ही रही गर्दन हिला कर गैस बंद कर के अपने कमरे में चली गयी।
बिस्तर पर लेटी दीवार को ताकते हुए सोच रही थी कि 
एक स्त्री दूसरी स्त्री के प्रति इतनी संवेदनहीन कैसे हो सकती है ?क्या सिर्फ़ उनका बेटा ही ऑफिस में काम करता है जो वही थका हुआ होगा?क्या मैं ऑफिस से थकी -हारी  नहीं आई हूँ ?या एक स्त्री बाहर काम करने जाती है तो वह 'काम' कहीं गिनती में नहीं होता? 
उसे घर की भूमिका हर हाल में उसी तरह से निभानी होगी चाहे वह कामकाजी हो या न हो?
ऐसी बात उन्होंने कैसे सोची और कही ....क्या बहू इंसान नहीं मशीन होती है ?हो सकता है  बेध्यानी में यह  बात कही ..मगर कही तो है ही...जो  दिल में कहीं गहरे असर कर गयी है .और यही सब  सोचते -सोचते उंसकी आँख लग गयी।
picture courtesy-nbelferarts



March 2, 2013

लघुकथा-१

कहानी कहना मुझे बहुत अच्छा तो नहीं आता,लेकिन प्रयास कर रही हूँ ,
एक ऐसी शृंखला शुरू करने की जिस में  ऐसी बातें /घटनाएँ/किस्से  जो पहले सुने -कहे न गए हों ,हमारे आस-पास ,हमारे परिचितों या उनके सम्बन्धी/दोस्तों के साथ हुई बातें /घटनाएँ हों...इसकी -उसकी /इस से -उस से सुनी बातें..... . उनको कहानी का रूप दे कर प्रस्तुत करूँ..थोड़ी कल्पना और थोड़ी सच्चाई देखें शायद थोड़ी सी कहानी बन जाए!शुरुआत करती हूँ इस लघुकथा से -जिसका शीर्षक नहीं रखा।

लघुकथा-१

सुबह की ठंडक का अहसास घर के बाहर आने पर ही हुआ। 
वर्ना अंदर तो गरमाहट थी इसलिए तो स्वेटर भी नहीं पहना था उस ने!न ही कोई शाल ही ली। 
माया घर से थोड़ी दूर पर बने बस स्टॉप पर पहुँच गई थी। एक दो घंटे  और हलकी सी सर्दी रहेगी फिर तो धूप आ ही जायेगी,यह सोचते हुए उसने अपनी साडी के पल्लू से खुद को ढक सा लिया। 
बैग पर हाथ गया तो कुछ छूट गया है लगता है ?चेक किया तो पाया कि  वह  घर की रसोई में ही अपना लंच बॉक्स भूल आई है। 
उसके ऑफिस के आस-पास कोई केंटिन या खाने -पीने की जगह भी नहीं कि खरीद कर खा लेगी। अभी घर वापस जायेगी तो बस छूटने के पूरे चांस हैं। 
आज जाने कैसी जल्दी -जल्दी में काम हुए हैं कि नाश्ता भी नहीं किया। मन में कहा लो आज तो व्रत हो जाएगा! 
मगर वह यह भी जानती है कि भूखा उस से रहा नहीं जाता। 
परेशानी तो होगी ही..क्या करें ..सामने दूर  से आती बस भी उसके स्टॉप तक पहुँचने वाली थी। 
घर की तरफ़ देखते हुए उसे बचपन का एक दिन याद आया जब वह टिफिन भूल गई  थी  तो माँ दौडकर स्टॉप तक आयी  और  लंच बॉक्स दे कर गई थी। 

आसमान को अपलक देखते हुए सोचती है माँ क्यूँ हर समय साथ नहीं होती?

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January 7, 2013

शिक्षण-प्रशिक्षण


मेरे विचार में दो तरह के अध्यापक ही देर तक याद रह जाते हैं एक वे  जो बहुत स्नेहमयी होते हैं और  अच्छा पढ़ाते भी हैं दूसरे वे जो ज़रूरत से ज्यादा कड़क होते हैं और पढाते भी कुछ ख़ास नहीं। 


एक छात्र के रूप में आज भी अपनी पसंद के  किसी एक शिक्षक का नाम लेने को कहा जाए तो कक्षा चार की हमारी अध्यापिका श्रीमति गुरचरण कौर जी का नाम ही सब से पहले याद आता है.उनका सबके साथ स्नेहमयी व्यवहार ही शायद अब तक उनकी याद ताज़ा किये हुए है। 
मुझे अध्यापक बनने  का बचपन से शौक था।  घर में खाली समय में दरवाजे के पीछे चाक से लिखना ,काल्पनिक छात्रों को पढ़ाना। 
मुझे याद है ,कॉलेज में एक बार वाद-विवाद हेतु यह विषय  दिया गया था.  कि 'अध्यापन  के लिए प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं  होती है  । '
उस दिन भी मैंने इस के पक्ष  में बोला था और आज भी ये ही कहती हूँ कि अध्यापन का गुर और काबिलियत सभी में नहीं आ सकती ,किसी भी व्यक्ति को आप सिर्फ प्रशिक्षण दे कर उसकी क्षमताओं को निखार सकते हो ,उसे नयी तकनीक और विधियाँ सिखा सकते हो ,योजनाबद्ध तरीके से शिक्षा सामग्री को स्तर के अनुसार बांटकर  उद्देश्य निर्धारित कर सकते हो  जो निश्चित रूप से एक बड़ा  टूल है। परंतु फिर भी मेरा यही कहना होगा कि 'अध्यापन ' एक स्वाभाविक गुण है। एक कला है। 

मेरे विचार में हमारा शिक्षण कार्य ही हमें जो  सतत प्रशिक्षण देता है वह  कोई भी ट्रेनिंग कॉलेज एक सीमित अवधि  में नहीं दे सकता। चूँकि  ट्रेनिंग के दौरान हम शिक्षा के कई अन्य पहलुओं पर अध्ययन करते हैं और अपने इस स्वाभाविक गुण को 'पॉलिश 'करते हैं..उस लिहाज़ से पूरी तरह व्यवहार कुशल शिक्षक बनने के लिए ट्रेनिंग भी ज़रुरी है ,यूँ भी  वर्तमान में कार्यरत शिक्षकों को आवश्यक रूप से  कार्यशालाएँ,सेमिनार आदि में सीखने को प्रेरित किया जाता है ,उसका कारण भी है कि शिक्षा के क्षेत्र में आने वाली  नयी चुनौतियों का सामना करने हेतु सब को तैयार जो करना है। 
लेकिन  सिर्फ  १ वर्ष मात्र का  प्रशिक्षण  ले कर आप सोचते हैं कि अच्छे अध्यापक बन गये तो  यह ज़रुरी नहीं होगा।

एक अच्छे अध्यापक के लिए उसका अपने विषय में ज्ञानवान होने के साथ एक संवेदनशील व्यक्ति भी होना आवश्यक है.साथ ही छात्रों की भांति ही जिज्ञासु भी। 
यूँ तो हर इंसान को जीवन पर्यंत छात्र ही रहना चाहिए क्योंकि हर दिन हमें कुछ न कुछ सिखा कर ही जाता है। परन्तु एक अच्छे शिक्षक के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि उसे  सीखना जारी रखना होता है। 

सरल शब्दों में कहें तो सिखाना और सीखना किसी भी शिक्षक के  लिए साथ-साथ चलने वाली प्रक्रिया होती है .
ज्ञान को बाँटना, उसका प्रसार ही उस ज्ञान की प्राण वायु है वर्ना  वह ज्ञान वहीँ उसी व्यक्ति के साथ  समाप्त  हो जाता है। 

महर्षि अरविन्द की कही ये दो बातें ध्यान देनी,समझनी  और व्यवहार में लानी होंगी -
  1. वास्तविक शिक्षण का प्रथम सिद्धान्त है कि बाहर से शिक्षार्थी के मस्तिष्क पर कोई चीज न थोपी जाये। शिक्षण प्रक्रिया द्वारा शिक्षार्थी के मस्तिष्क की क्रिया को ठीक दिशा देनी चाहिए।
  2.  शिक्षक प्रशिक्षक नहीं है, वह तो सहायक एवं पथप्रदर्शक है।  वह केवल ज्ञान ही नहीं देता बल्कि वह ज्ञान प्राप्त करने की दिशा भी दिखलाता है।  शिक्षण-पद्धति की उत्कृष्टता उपयुक्त शिक्षक पर ही निर्भर होती है। 
हमें उनकी इस शिक्षा का पालन करना है कि हम सिर्फ प्रशिक्षक बन कर न रहें बल्कि छात्रों के  पथप्रदर्शक भी बने।
इसलिए मेरा  सुझाव है कि  हर कालांश शुरू होने से पहले ५-१० मिनट जीवन/शिक्षा  से सम्बंधित नैतिक मूल्यों पर  कुछ वार्ता जो ज्ञानवर्धक हो अवश्य करनी चाहिए इससे ज्ञान के साथ- साथ छात्रों को समझने का मौका भी मिलता है।

आजकल लोगों का यह कहना है कि वर्तमान आधुनिक युग में छात्र शिक्षक के प्रति पहले जैसा भाव नहीं रखते।
वे उनका आदर नहीं करते!
उनसे यही पूछना चाहूँगी कि क्या आजकल के सभी  शिक्षक छात्रों के प्रति वही समर्पण भाव रखते हैं?अधिकतर शिक्षक भी तो व्यवसायिक हो गए हैं।
यह सच है कि शिक्षकों के प्रति आदर व कृतज्ञता का भाव छात्रों में होना चाहिए। तो क्या वही 'पहले जैसा'सहयोग और सिखाने की  ललक  शिक्षक के मन में भी नहीं होनी चाहिए ?
हमें छात्रों को  अनुशासन में रहना इस प्रकार सिखाना है ताकि वे स्वयं आत्म अनुशासन सिख सकें।और  बड़ों का सम्मान करना भी। शेष वे अपने परिवार के माहौल से भी सीखते हैं। इसलिए शिक्षकों या  बड़ों के प्रति सम्मान का भाव अगर उन में कम है या नहीं है तो अभिभावक भी उतने ही दोषी समझे जायेंगे। 


अपने अनुभव से यही पाया है कि अगर आप अच्छे शिक्षक हैं और साथ ही व्यवहार कुशल भी तो कोई आश्चर्य नहीं कि आप का पुराना कोई  छात्र १० साल बाद आ कर पूछे ..'टीचर,आप ने मुझे पहचाना?
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~``
चलते -चलते -:


हिंदी की प्रसिद्ध लेखिका श्रीमती संयुक्ता लूदरा जी के साथ 
कुछ समय पूर्व  सौभाग्य से मेरी मुलाकात श्रीमती संयुक्ता  लूदरा जी से हुई।वे एक जानी-मानी लेखिका हैं,एन सी  आर टी से भी कई साल जुडी रही थीं। उनकी  लिखी हुई हिंदी भाषा  की कई  पुस्तकें विद्यालयों के पाठ्यक्रम में लगी हुई हैं।  वे बहुत ही मृदु भाषी और सरल स्वभाव की हैं ,उनसे मिलकर बहुत खुशी हुई।

इस मुलाक़ात में मैनें उनसे कुछ प्रश्न पूछे। उनके जो उत्तर मुझे मिले ,उन्हें सुनकर अपनी भाषा के प्रति नयी आशाएँ मन में जागीं।
उनसे हुई बातचीत का एक अंश --

प्रश्न 1.फिल्म में काम करने वाले  लोग साक्षात्कार देते समय  हिंदी  में जवाब  नहीं देते और न ही बात करते हैं ,  उनके बारे में  आप क्या कहना चाहती हैं?


उत्तर - देखो,अंग्रेजी में  बात करने से  वे  अपनी बात को अधिक लोगों तक पहुंचा सकते हैं इसलिए वे अंग्रेजी में बात करते हैं। 

प्रश्न 2-क्या आप को नहीं लगता जिस तरह अंग्रेजी का प्रभाव हिंदी  भाषा पर पड़ रहा है ,वह हिंगलिश बनती जा रही है  ,यह जल्दी ही अपना असली रूप खो देगी?


उत्तर -नहीं ,ऐसा कभी नहीं  होगा। 
भाषा में सहूलियत के हिसाब से भी बदलाव लाये जाते हैं ,उस से भाषा में परिवर्तन  आता है परन्तु वह बिगडती नहीं है।  हिंदी करोड़ों की भाषा है ,वह अपना रूप कभी नहीं खोएगी। 

प्रश्न 3-हिंदी का भविष्य कैसा देखती हैं?


उत्तर-बहुत उज्जवल। 
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इसी के साथ  को विश्व   हिंदी  दिवस की शुभकामनाएँ !
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November 25, 2012

हाइकु


प्रस्तुत हैं सात हाइकु  .. --; 
१- 

गुम है मीता 


मौन हुई निगाहें

मन भी रीता 

[मीता--सखा /friend]


-

तस्वीर मौन 


अंतहीन प्रतीक्षा 


खुद को भूले !




३-

चलते रहे 

रुकावट राह की 

फिरी नज़र 


४- 

नयन भीगे

सलवटें माथे पे 

कलाई सूनी.



५ -
पाषाण मन 

अंतर बहे लावा 

आँखों का   नीर !



६-
दोराहा आया 

धुंध हुई गहरी 

नहीं हैं ' हम' !



७-

ठहरा पानी 

उनका प्रतिबिम्ब 

घुलता   चाँद 


~~-अल्पना वर्मा ~~

हाइकु कविता  के संबंध में संक्षिप्त जानकारी-:

  • हाइकु/हायकू  हिन्दी में १७ अक्षरों में लिखी जानेवाली सब से छोटी कविता है.

  • तीन पंक्तियों में पहली और तीसरी पंक्ति में ५ अक्षर और दूसरी पंक्ति में ७ अक्षर होने चाहिये.

  • संयुक्त अक्षर ex:-प्र. क्र , क्त ,द्ध आदि को एक अक्षर/वर्ण गिना जाता है.

  • शर्त यह भी है कि तीनो पंक्तियाँ अपने आप में पूर्ण हों.[न की एक ही पंक्ति को तीन वाक्यों में तोड़ कर लिख दिया.]

  • हाइकु कविता ' क्षणिका' नहीं कहलाती क्यूंकि क्षणिका लिखने में ये शर्तें नहीं होतीं