दशहरा पर्व के आते ही ,याद आते हैं बचपन के दिन जब इस त्योहार का ख़ास इंतज़ार होता था.इस दिन हमारे शहर में क्षत्रिय महासभा द्वारा दशहरा मिलन समारोह ,जिसमें सामूहिक शस्त्र पूजन ,परिवारों का मिलना ,साथ खाना और बच्चों द्वारा किया जाने वाला रंगारंग कार्यक्रम होते थे. जिस में मैं भी नियमित भाग लिया करती थी ,और सब से आखिर में होता था मुख्य आकर्षण 'पारितोषिक वितरण'!
मुझे दशहरा पर रावण ,कुम्भकरण और मेघनाद के पुतलों को जलाए जाने का तर्क कभी गले से नीचे नहीं उतरा..--'ये बुराई के प्रतीक हैं क्या बस इसलिए जलाए जाते हैं!' ज़रा सोचीये तो कितनी लकडी ,कागज़ और विस्फोटकों का इस्तमाल इनमें होता है .ध्वनि ही नहीं वायु प्रदुषण भी फैलता है..साथ ही किसी दुर्घटना के होने का अंदेशा भी रहता है। पुतले जलाएं मगर मेरे विचार से सरकार को इनकी ऊँचाई और इनमें लगने वाले सामग्री का निर्धारण कर देना चाहिये। ताकि इनकी ऊँचाई और धमाके के लिए होने वाली अनावश्यक प्रतियोगितों से बचा जा सके।
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''आप सभी को इस विजय पर्व की ढेर सारी शुभकामनाएं'' है धरा की पुकार
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हर वर्ष जलाते हैं पुतले, करते श्रम ,अर्थ व्यर्थ ! कर भस्म इन प्रतीकों को, हर बार भ्रम में जीते हैं. जब कि , रावण जीवित है अभी, माया के मृग भी मरे नहीं, निडर ताड़का घूम रही, लिए अहिरावन और खरदूषण. संताप , पाप व्यभिचारी संग हर ओर आपदा झूम रही.
कलुषित मन मानव के हुए, यहाँ सत्य प्रताडित होता है, अनाचार और दुष्कर्मों से, अब न्याय प्रभावित होता है.
प्रतिदिन जलती है चिता यहाँ, 'अग्नि ' का परखा जाता है, दानव दहेज़ का ऐसे भी, नव वधूओं को खा जाता है.
हुई धरती अभिशप्त क्यों? हैं युगमनीषी अब मौन क्यों? ना आते अब हनुमान यहाँ, ना जामवंत ही मुंह खोलें ?
बसते थे तुम ही स्मरण करो, यह देश तुम्हारा है राघव! अब तुमको आना ही होगा करने धरा पावन यहाँ! करने धरा पावन यहाँ!
[लिखित द्वारा-अल्पना वर्मा[२७/०९/२००९,10am]
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[इस कविता में 'अग्नि 'की परीक्षा ली जाती है ऐसा मैं ने कहा है ..क्योंकि सतयुग में तो निर्दोष सीता को अग्नि ने रास्ता दे दिया था और उनको सुरक्षित रखा मगर आज सीता की ही नहीं अग्नि की भी परीक्षा होती है मगर निर्दोषों को बचाने कोई नहीं आता और इस तरह दहेज़ रूपी दानव उन्हें निगल लेता है।]
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