यह एक ऐसी शृंखला शुरू की है जिसमें ऐसी बातें /घटनाएँ/किस्से जो पहले सुने -कहे न गए हों ,हमारे आस-पास ,हमारे परिचितों या उनके सम्बन्धी/दोस्तों के साथ हुई बातें /घटनाएँ हों...इसकी -उसकी /इस से -उस से सुनी बातें...स्टाफ रूम की गप-शप इसका -उसका हाले दिल .... . उन सबको कहानी का रूप दे कर प्रस्तुत कर रही हूँ ...थोड़ी कल्पना और थोड़ी सच्चाई देखें शायद थोड़ी सी कहानी बन जाए!
पहली कहानी पर आप का स्नेह मिला उसके लिए धन्यवाद!
प्रस्तुत है -:
लघुकथा -२
आजकल रोज ज़रा जल्दी उठाना पड़ता है। दोपहर का खाना बना कर जो जाना होता है.सब्जी -दाल तो बनानी ही होती है।
पहली कहानी पर आप का स्नेह मिला उसके लिए धन्यवाद!
प्रस्तुत है -:
लघुकथा -२
आजकल रोज ज़रा जल्दी उठाना पड़ता है। दोपहर का खाना बना कर जो जाना होता है.सब्जी -दाल तो बनानी ही होती है।
'आजकल' इसलिए कहा क्योंकि आजकल माया के सास-ससुर उनके पास मिलने के लिए आये हुए हैं।अपनी सामान्य दिनचर्या में तो रात को अगले दिन की तैयारी करके रखी जाती है।
सास-ससुर के चार बेटे हैं इसलिए साल भर में कभी किसी के पास तो कभी किसी के पास रहने चले जाते हैं । वैसे उन्हें अपना घर ही सब से प्रिय है वे कहीं भी स्थायी रूप से रहना नहीं चाहते ।
एक स्थान पर रहते -रहते उस स्थान से खास मोह या लगाव होना स्वाभाविक भी है।
माया को सुबह ६ बजे ऑफिस के लिए निकल जाना होता है ,सुबह का नाश्ता और दोपहर के लिए दाल -सब्जी बना कर जाना होता है इसलिए चार बजे से थोड़ी देर भी हो जाए तो मुश्किल हो जाती है सब कुछ निपटाने में।
वह सारा काम व्यवस्थित कर के पूरा कर ही लेती थी।
सास -ससुर दोनों ही अपना काम स्वयं कर लेने में सक्षम हैं ।
उसने यही सोच कर दोपहर की चपातियाँ नहीं बना कर रखीं कि तब तक तो सूख जायेंगी ,सासू माँ तो घर में हैं ही ,दिन में खुद बना कर खा लेंगे। माईक्रोवेव का उपयोग करना भी उन्हें आता है।
उसने जाते हुए कहा कि मैं तो ४ बजे लौटूंगी ,आप लोग खाना खा लिजीयेगा ।
माया शाम चार बजे घर लौटी ,मालूम हुआ कि दोनों ने खाना खाया नहीं !
पूछने पर कहा कि तुम्हारे आये पर ही खायेंगे। नाश्ता भारी कर लिया था इसलिए दोपहर को इतनी भूख भी नहीं थी।
चार बजे सुबह की जागी हुई ,ऑफिस का काम ..थकी तो हुई थी लेकिन कुछ बोली नहीं चुपचाप कपडे बदल कर खाना गरम कर के चपातियाँ बनाने लगी।
खाना खिलाने के बाद आटे से सने हाथ धोने लगी ।
पतिदेव ५ ३० घर आते हैं और उनका खाना भी तभी बनता है ,आज सारा काम करते करते ५ बज ही गए थे ,एक हलकी सी नींद लेने का समय भी नहीं बचा था.उसने सोचा आधे घंटे की बात है रोटियां बना कर रख दूँ फिर थोडा लेट जाउंगी.शाम ७ बजे फिर रात के खाने की तैयारी जो करनी होगी।
गैस पर तवा रखा .सासू माँ ने पूछा अभी किसके लिए ?माया ने बताया कि अभी थोड़ी देर में आयेंगे तो सोचा रोटियां बना कर रख दूँ।
सासू माँ ने छूटते ही कहा कि वो तो दिन- भर ऑफिस में काम करके थका हुआ आएगा , तभी गरम बना कर खिला देना ,अभी से बना कर क्यूँ रख रही है?
माया चुप ही रही गर्दन हिला कर गैस बंद कर के अपने कमरे में चली गयी।
बिस्तर पर लेटी दीवार को ताकते हुए सोच रही थी कि
एक स्त्री दूसरी स्त्री के प्रति इतनी संवेदनहीन कैसे हो सकती है ?क्या सिर्फ़ उनका बेटा ही ऑफिस में काम करता है जो वही थका हुआ होगा?क्या मैं ऑफिस से थकी -हारी नहीं आई हूँ ?या एक स्त्री बाहर काम करने जाती है तो वह 'काम' कहीं गिनती में नहीं होता?
उसे घर की भूमिका हर हाल में उसी तरह से निभानी होगी चाहे वह कामकाजी हो या न हो?
ऐसी बात उन्होंने कैसे सोची और कही ....क्या बहू इंसान नहीं मशीन होती है ?हो सकता है बेध्यानी में यह बात कही ..मगर कही तो है ही...जो दिल में कहीं गहरे असर कर गयी है .और यही सब सोचते -सोचते उंसकी आँख लग गयी।
कामकाजी महिला के अंतरमन के भावों को स्वर देती सार्थक और सामर्थ्य पूर्ण लघुकथा के लिए साधुवाद ,उद्देश्यपूर्ण प्रयास के लिए साधुवाद ,शुभकामनाये
ReplyDeletekahani nahi sach hai
ReplyDeleteannpurna
स्त्रियों के रिश्ते सास-बहू की परिधि में आते ही उलझ जाते हैं, यह बहुत दुखद है। बढ़िया लघुकथा।
ReplyDeleteयही है दोहरा नज़रिया जिसके कारण स्त्री की ये दशा है।
ReplyDeleteहाँ सपाट बयानी ही होती है लघु कथा में विवरण नहीं .माहौल नहीं ,यहाँ तो विश्लेषण भी चला आया है सवाल भी गए हैं औरत ही औरत के साथ ये फर्क आखिर करती क्यों है ?चौधर चाहिए उसे अपनी ,चौधराहट चाहिए .
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कथा!
ReplyDeleteबेटी और बहू के भेद को आपने बाखूबी समझा दिया इस कथा में!
कई मुखौटे हैं हमारे पास.
ReplyDeleteबढ़िया कहानी
ReplyDeleteGyan Darpan
Saas aur Bahu chahe padhi likhi ho ya anpadh .. ye silsila hamesha se hai aur hamesha rahega.. ye dono ko samajh lena chahiye ..kyonke dono ek doosre ko ghair samajhti hain .. shayed 2% rishta theek nibhati hongi .. saas bahu ko kaam wali samajhti hai .. bahu bechari ko jhukna padta hai aur dono k beech m banda mara jata hai...
ReplyDeleteसोचने को विवश करती कथा..
ReplyDeleteअक्सर सास का बहू के साथ यही दोहरा नजरिया होता है,,,,
ReplyDeleteRecent post: रंग गुलाल है यारो,
Achhi kahani,pati patni,aur mata pita sabhi ko sochne ke liye vivash karti kahani
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर कहानी...
ReplyDeleteउसे घर की भूमिका हर हाल में उसी तरह से निभानी होगी चाहे वह कामकाजी हो या न हो?
ReplyDeleteऐसी बात उन्होंने कैसे सोची और कही ....क्या बहू इंसान नहीं मशीन होती है ?हो सकता है बेध्यानी में यह बात कही ..मगर कही तो है ही...जो दिल में कहीं गहरे असर कर गयी है .और यही सब सोचते -सोचते उंसकी आँख लग गयी।
अब इसके दो पहलू हैं -पराधीन सपनेहूँ सुख नाहीं /व्यस्त जीवन ,समर्पित ईश्वर की सबसे बड़ी सौगात है .बेशक परम्परा गत रोल बदल रहें हैं .कल हो सकता है मर्द रसोई चलाये ,डाइपर बदलना सीख चुका है .ड्राइवर सीट पे महिला आ जाए मर्द मनमोहन बन जाए .
अल्पनाजी
ReplyDeleteबहुत ही सहज ढंग से दो स्त्रियों के मनो भावों का चित्रण किया है ।बेटे की माँ बेटे के आगे कुछ सोच ही नहीं पाती ।
ऐसा नहीं है की ऐसी दशा में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है बहुत सी जगह पर इसके विपरीत भी होता है की बहू सास को कुछ भी कम नहीं करने देती क्योकि उसे लगता है उसकी गृहस्थी उसके हाथो से खिसक रही है ।
अल्पनाजी
ReplyDeleteबहुत ही सहज ढंग से दो स्त्रियों के मनो भावों का चित्रण किया है ।बेटे की माँ बेटे के आगे कुछ सोच ही नहीं पाती ।
ऐसा नहीं है की ऐसी दशा में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है बहुत सी जगह पर इसके विपरीत भी होता है की बहू सास को कुछ भी कम नहीं करने देती क्योकि उसे लगता है उसकी गृहस्थी उसके हाथो से खिसक रही है ।
अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष के अवसर पर यह कहानी नारी मुक्ति के संदर्भ में प्रासंगिक हो गयी है !
ReplyDeleteसोच बदली अवश्य है पर ज्यादातर हालात वही है. अफ़्सोस इस जमाने में भी सोचने को विवश करते हैं सास बहु के संबंध.
ReplyDeleteरामराम.
सोच बदलते देर नहीं लगती .. अपने पराये का फर्क दिखा दिया इस कहानी ने ...
ReplyDeleteसार्थक कहानी ... सही बदलाव नारी को नारी के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव लाने में है ...
अभी वक्त लगेगा इस सोच को बदलने में ...शायद हमारी पीढ़ी इसे बेहतर निभा सकेगी ...
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