स्वदेश वापसी /दुबई से दिल्ली-'वन्दे भारत मिशन' Repatriation Flight from UAE to India

'वन्दे भारत मिशन' के तहत  स्वदेश  वापसी   Covid 19 के कारण असामान्य परिस्थितियाँ/दुबई से दिल्ली-Evacuation Flight Air India मई ,...

December 27, 2014

यूँ सजे हैं...

हर वर्ष की भांति २०१४ भी अपने बीतने की प्रतीक्षा कर रहा है और २०१५ आने की !

आशा है यह वर्ष ब्लॉग जगत में नए उत्साह और जोश का संचार करे और वह पुराने रूप में वापस लौटे!
जो जाने -माने ब्लोग्स अब शांत हैं वहाँ फिर से चहल-पहल शुरू हो.
नव वर्ष की अग्रिम शुभकामनाएँ!
 कुछ चित्र आप के लिए --
WP_20141225_003 Mall of Emirates
Christmas tree -Dubai Outlet Mall Christmas tree -Lamcy Plazal,dubai
Christmas tree -wafi Mall,dubai Christmas tree Ferrari world
XMAS tree ,20 dec 2014,Al Ain Mall WP_20141212_233
यूँ सजे है एमिरात के कुछ मॉल ..      नए साल के स्वागत में !
=====================================================

December 23, 2014

माही

चित्र गूगल से साभार  

सब कहते हैं कि यह भागती -दौड़ती दुनिया है । दुनिया भी तो हमीं से बनी है ,क्या हम सभी भाग नहीं रहे ?इस दौड़ में कौन आगे कौन पीछे रह गया यह तब  मालूम चलता है जब कहीं रुक जाएँ ,ठहर जाएँ।

माही को भी आज अचानक रुकना पड़ा क्योंकि सीधी ,ऊँची-नीची तो कभी टेढ़ी या लहरदार ही सही मगर हर राह से वह बहुत तेज़ी दौड़ती हुई सी गुज़री है।
 आज उसे ठहरना पड़ा है क्योंकि जिस बिंदु पर वह रुक गयी है वहाँ से आगे कई रास्ते फैले हुए हैं ।
वह असमंजस में है रुकने पर ही उसे अहसास हुआ कि वह कितनी अकेली है।
उसके हर और धुंध सी छायी है, कोई कहीं दिखाई भी नहीं देता है।

भागते -दौड़ते हुए उसे न कभी किसी के साथ की ज़रूरत पड़ी न ही रौशनी या अँधेरे में फर्क महसूस हुआ।
कैसी अंधी दौड़ थी ?माही इस मोड़ पर आ कर हताशा के घेरों में घिरी है।

अचानक उसे याद आया कुछ उसके पास हमेशा रहता है ,उसकी जमा पूंजी ..हाँ ,कमर में बंधी पोटली निकाल कर उसके मुंह की डोरी ढीली की और हाथ भीतर डाला तो कुछ चुभा !उसने देखा उसकी उँगलियों से खून बह रहा था। सारी पोटली ज़मीन पर पलट दी, अब वहाँ कुछ पत्थर और कुछ कांच के टुकड़े थे !
पत्थर? शायद वक़्त के साथ-साथ कब मोम के टुकड़े पत्थर हो गए मालूम ही नहीं चला और काँच?

ओह.....! माही जैसे नींद से जागी ,याद आया कि किसी ने कभी कहा था 'रिश्ते कांच के समान होते हैं 'हैंडल विथ केयर !

माही सोच रही  है क्या अब उसे  टूटे काँच से लगे इस रिसते घाव के साथ ही उम्र भर जीना होगा?
वह तो उस मुकाम पर है जहाँ पीछे कोई रास्ता नहीं और आगे राहों का जाल बिछा है.

माही को इलेक्ट्रिक शोक दिया जाना है।
माही के माथे पर इलेक्ट्रोड लगाते हुए मैं असहनीय वेदना से गुजर रही हूँ ,सोचती हूँ न जाने हम में से कितने अब भी भाग ही रहे हैं 'एक अंधी दौड़' जिसका अंजाम हमेशा सुखकर नहीं होता।

=========================अल्पना वर्मा ==========================

December 5, 2014

अभिशप्त माया

ग़लती से क्लिक हुई छाया एक साए की 

आज सागर का किनारा ,गीली रेत,बहती हवा कुछ भी तो रूमानी नहीं था.
बल्कि उमस ही अधिक उलझा रही थी

माया और लक्ष्य !

तुम मुक्त हो माया! लक्ष्य ने कहा

मुक्त?

हाँ ,मुक्त !

ऐसा क्यों कहा लक्ष्य?

माया ,मैं हार गया हूँ ! तुम खुदगर्ज़ हो  ,तुम किसी को प्यार नहीं कर सकती!

लक्ष्य ,यह निर्णय अकेले ही ले लिया ?

हाँ!

लक्ष्य ,क्या इतना आसान है मुक्त कर देना ?माना कि ये बंधन के धागे तुमने बाँधे थे ,सीमाएँ भी तुमने तय की थी.लेकिन ....

लक्ष्य मौन है 

माया खुद को संभालते हुए बोलती रही,"बंधन ?संबंधों  की उम्र से उसकी मजबूती या परिपक्वता का कोई सम्बन्ध नहीं रहा ?
मुट्ठी में क़ैद की थी न तुमने तितली ! रंगबिरंगे पंखों वाली एक तितली !तितली से पूछा उसे क्या चाहिए मुक्ति या बंधन या बस थोड़ी सी रौशनी?

"मैं इसकी ज़रूरत नहीं समझता "- लक्ष्य ने कहा

हाँ ,अपने निर्णय तुम खुद ही लेना और देना जानते हो,आखिर हो तो पुरुष ही ! पुरुष जिसके हृदय के स्थान पर उसका अहम् धडकता है !वह उसे ही जीता है ,वह स्त्री के मन को कभी समझ नहीं सकता 

माया ,क्या तुमने मुझे समझा ?हर समय संदेह ,सवाल और शिकायतें !तुम कभी प्यार कर ही नहीं सकती ,न प्रेम जैसे शब्द को समझने की क्षमता !

माया जड़ हो गयी !'मेरी चाहत को बस इतना आँका तुमने ? उसे लगा जैसे उसको किसी ने ऊँचाई से गिरा दिया हो !

लक्ष्य जा रहा है 
उसकी हथेलियों में  अब भी तितली के पंखों के रंग लगे हुए हैं और तितली उसकी हथेली से चिड़िया बन उड़ गयी है !चिड़िया जो अब एक नीड़ की तलाश में आसमान में पर तौलेगी!

माया ठहर गयी है ,उसे न बंधन की चाह रही न मुक्ति की !
जानती है वह अधूरे प्रेम के लिए शापित है !
उसे चाह है बस एक टुकड़ा बादल ,एक मुट्ठी धूप और थोड़ी-सी हवा संग धरती के उस टुकड़े की जहाँ से वह अंकुर बनकर फूटे !
==========अल्पना ==============
+++++++++++++++++++++++++
======================

November 25, 2014

दीवाली का चाँद

होता है कई बार जब मन में विचारों का इतना उठाना-गिरना होता है कि लगता है कितनी टूट -फूट हो गयी है  I
देह की भांति मन भी थक जाता है I वह कहीं दूर जाना चाहता है ,शायद कल्पनाओं  के देश....  जहाँ उसकी अपनी दुनिया होती है जैसे चाहे वैसे सुकून पाता है ,जैसे चाहे मौसम बना लेता है ,हवा में जैसे चाहे रंग भर देता है मन जिसकी असीम ताकतें हैं,अनगिनत आँखें !एक साथ न जाने कितने सपने देख सकता  Iमन के लोक में विचरना उसे दुरुस्त करना ही तो है ,आत्मालाप ,आत्मसंवाद मन की सेहत हेतु योगाभ्यास हैं !

एक कविता जैसी रचना ---सुधार की गुंजाईश हो तो मार्गदर्शन कीजियेगा  I


दीवाली का चाँद 


दीवाली की उस रात 
सबसे ऊँची छत पर 
तुम और मैं ,
जब अँधेरे की गोद में  उजाले भरने के लिए 
तुमने माँग लिया था चाँद 
पुकारा था रात भर जुगनुओं को मैंने 
मगर वे मेरे पास नहीं आये थे !

मुझे कैद करके रखना था उन्हें
ताकि उतनी ही सी रौशनी  पाकर 
अमावस के अंधेरे में छुपा ,
आसमान में टंका चाँद उतार लाता ,
और भरता चाँदनी तुम्हारी आँखों में 
मेरे अहसासों की गीली छुअन पा कर 
सिमट जाती  अपने वजूद को तलाशने मुझ में 
हवाएँ गवाह होतीं  और जुगनू अमर हो जाते  
बन के सूरज ताउम्र यह चाँद जलाता रहता  मैं !


प्रिया !अगली बार तुम जुगनुओं को पुकारना  !
--------------------------------

-अल्पना वर्मा
--------------------


October 25, 2014

लकीर

*****बहुत दिनों बाद ब्लॉग की चुप्पी को तोडा जाए .:).............*****

चित्र -साभार : शायक आलोक 
कुछ चित्र बोलते हैं और  मुझे ऐसा ही एक चित्र यह लगा ! शायक आलोक जो स्वयं एक उम्दा  कवि हैं लेकिन जब तस्वीरें खींचते हैं  तो वे भी छवि न रहकर कविता  बन जाती है ,इसी चित्र पर मैंने कुछ पंक्तियाँ लिखी हैं
आशा है कि एक मुकम्मल कविता बन पायी है 

पीठ की लकीर 

स्त्री! तुम्हारी पीठ की लकीर रखनी  होगी 
तुम्हें हमेशा सीधी!
क्योकि यही करेगी  तुम्हारे काँधे के बोझ का संतुलन  
और यही रखेगी तुम्हारा सर ऊँचा !

स्त्री !तुम्हारी  पीठ की लकीर बनाएगी तुम्हें श्रद्धेय 
और दिलाएगी तुम्हें तुम्हारा उचित  स्थान !

स्त्री!यही करेगी तुम्हें सदियों की दासता  से मुक्त 
और दिलाएगी तुम्हें अपनी पहचान !

स्त्री !इसी से मिलेगी तुम्हारे ठहरे क़दमों को गति 
और बनाएगी तुम्हें मनु की संतान !

स्त्री! तुम्हें करना होगा पोषित इसे नियमित 
क्योंकि इसी से उगेंगे तुम्हारे नए पंख 
अंकुरित होंगे यहीं से नए हौसले 
और  कर पाओगी  विस्तृत नभ में ऊँची उड़ान !
--------------------
{अल्पना वर्मा }



April 21, 2014

'यथा राजा तथा प्रजा'


अजब इत्तेफ़ाक़ है मूर्ख दिवस  अर्थात अप्रैल एक से नए शैक्षणिक सत्र  शुरुआत हुई. पिछले सत्र की उथल -पुथल से अभी उबरे भी नहीं थे कि  नया सत्र आरम्भ हो गया.कुछ नए नियम कानून लिए। नयी उलझने, नयी चुनौतियाँ लिए ! :(


March 8, 2014

भ्रमजाल!

भावनाएँ? भ्रमजाल है माया!

--------------------------------
----------------------------------------
-------------------------------------------------
लगता  है कुछ ठहरा हुआ सा है .
ज़िन्दगी मानो एक धुरी पर घूमते घूमते रुक गयी है .
ठिठक कर जैसे कोई पथिक आस-पास देखने लगता है .

अचानक ही जैसे जानेपहचाने माहौल में अजनबीपन के साए दिखने लगे हों.
ऐसी तमाम परिस्थितियों में इंसान के लिए अपनी मनः स्थिति को हमेशा  समझ पाना संभव नहीं होता ,समझना तो दूर उसे सही तरह से बखान कर पाना भी दुष्कर लगता है .

माया अपने आसपास कुछ ऐसा ही महसूस कर रही थी .
------------------------------------
आज शुक्रवार  है..अगले दो दिन छुट्टी है .पर ऑफिस से बाहर निकलते हुए मन अजीब सी उलझनों में घिरा हुआ था .ऐसा होना तो नहीं चाहिये लेकिन ऐसा कुछ है आज ! जब कभी सभी महिलायें एक साथ बैठती हैं तो सब के मन खुलने लगते हैं कुछ हँसते हुए, कुछ मुस्कराते हुए,तो कुछ  मुंह बनाते हुए भाव भंगिमाएं बदल बदल कर  अपने मन की बात  कह ही देती हैं.अच्छा ही है न मन हल्का हो जाता होगा.

महिला दिवस की बधाई!...सुबह-सुबह सुनते ही माया चौंकी ..महिला दिवस?ओह ,आज 8 मार्च है! ...चलिए अच्छा है इस एक दिन महिलाओं के  लिए  लोगों की संवेदनाएं जागती हैं.

कल की बातें मन मस्तिष्क में गूंज रही थीं ..खुद पर खीझती है कि क्यों वह दूसरों के भावों में बहने लगती है ?सब की अपनी ज़िन्दगी है जैसे चाहे जियें . फिर भी उसे हर वो स्त्री याद आने लगी जो उसे बहुत अलग सी लगते हुए भी भीड़ का अहम् हिस्सा लगी .
अपने हिस्से का आसमान चाहिये!
जैसे --

स्त्री एक ---
33 साल विवाह सूत्र में बंधी हुई .
बच्चे अपने -अपने रास्ते पर चल रहे हैं .
लगभग हर दिन कोसती है अपने हमसफ़र को ..१२ साल से दैहिक सम्बन्ध नहीं फिर भी एक छत के नीचे रहते ..अक्सर जीवन से थकी हुई...एक स्नेहभरे आलिंगन का आग्रह करती ..कभी माया के कंधे पर सर रख कर माँ जैसे  स्पर्श की चाह करती हुई .कभी भरी आँखों से वह माँ को याद करती है तो माया उसे बच्चे की तरह सीने से लगा लेती है !

--------------------------
स्त्री दो-
१९ साल विवाह सूत्र में बंधी हुए..हाँ उसके लिए बंधन है जिससे मुक्त होना चाहते हुए भी वह मुक्त नहीं हो सकती ,उसका धर्म इजाज़त नहीं देता .
हर सप्ताह सप्ताहांत आते ही जब औरों को ख़ुशी होती है तो उसका चेहरा उतरा हुआ होता है,उसे सप्ताह के ये दो अवकाश अच्छे नहीं लगते .

भरे परिवार में भी वह बहुत अकेली हो जाती है ,जिसके साथ की अपेक्षा वर्षों से करती रही वह कभी वक़्त नहीं देता ..अब उसे कोई आशा भी नहीं ...जीवन लक्ष्यहीन सा लगता है ..बच्चे?हाँ बच्चे हैं ,मगर रिक्तता जो वह महसूस करती है उसे उसका जीवनसाथी महसूस नहीं करता क्योंकि वह अपना समय घर के बाहर दोस्तो में अपना समय गुजरना पसंद करता है ,उसे शोहरत की ख्वाहिश है साथ की नहीं.महीने बात नहीं भी करे तो उसे फर्क नहीं पड़ता ,जीवन तो चलता है चलेगा ही!

##माया उसके उतरे चेहरे को भूल नहीं पा रही है !सोचती है बाहर से दिखने वाली चीज़ से सुन्दर दिखे मगर ज़रूरी नहीं कि वह सुन्दर ही हो उसी तरह शायद सम्बन्ध भी होते हैं .
------------------------------
स्त्री तीन -
विवाह के १० वर्ष बीत चुके हैं !
उसे घर और घर के काम पसंद नहीं क्योंकि यहाँ वहां अकेले सब करना होता है , कामवाली रखने की उसकी हैसीयत नहीं तन्खावाह कम होने का ताना उसे मिलता है जिसका मलाल उसे हमेशा रहता है और रहेगा ही .
------------------------------
स्त्री चार -
स्त्री होने का अहसास उसे बराबर कराया जाता है या कहिये वह पुरुष की छत्रछाया में है और पुरुष ही सर्वश्रेष्ठ कृति है विधाता की यह जताया जाता है .घर में हर उस आधुनिक सुविधा से वह हीन है जिसे हम आज के समय में आवश्यक मानते हैं .न कंप्यूटर उसके घर में रखने की अनुमति है न ही इन्टरनेट जैसी सुविधा ..मोबाइल भी बहुत ही मूलभूत ज़रूरतों हेतु उपलब्ध है.

विवाह के १३ साल बाद भी उसे यह सम्बन्ध अपने साथ  'एक देह' की उपस्थिति मात्र लगती है वह मुस्कुराती कम है ..
खुल के हँसते हुए माया ने उसे अपने साथ ही देखा था ,एक दिन जब बच्चों के साथ हम खुद बच्चे बन गए थे !उसने स्वीकार किया था कि अपने कोलेज समय के बाद वह उसी दिन खुल कर इतना हंसी और एक सवाल का जवाब देते हुए उसने अपने मन की सारी परतें ही खोल दी थीं ....मन द्रवित हो उठा था !

माया कई दिनों तक वही सोच -सोच कर अपनी नींदें खराब करती रही कि अक्सर हम देखते कुछ हैं लेकिन असलियत इतनी अलग होती है क्यों?
..........................
स..अब इतना नहीं सोचना मुझे....माया ने रेडिओ का बटन दबाया तो लता की आवाज़ में एक गीत गूँज उठा ..'मेरे ए दिल बता ...प्यार तूने  किया ..पाई मैं ने सज़ा क्या करूँ'.....
'ओह ! यहाँ भी एक कहानी ......'प्यार ''जिस शब्द से उसे कभी मोहब्बत नहीं, वही याद आ गया ...एक कहानी किसकी कहानी थी...स्त्री पाँच या छह?...

वह फिर कभी...सोचते हुए माया ने अपनी खिड़की के परदे हटा दिए धूप खिली हुई थी मानो कहती हो कि स्त्री जैसी सहनशील  ईश्वर की बनाई कोई और कृति धरती पर नहीं है.
'अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की शुभकामनाएँ!'
हर चेहरा आधा ही दिखता है !

--------------------------
------------------------
--------------------

February 16, 2014

बनूँगी मौन की भाषा ..

माघ में ऋतु परिवर्तन होते ही मानो प्रकृति मदनोत्सव मनाने लगती है.
यहाँ भी मौसम अंगडाई ले रहा है ,
जाती हुई सर्दी पलट कर वापस ऐसे  आई है जैसे कुछ भूला हुआ वापस लेने आई हो.


भावों की सुगबुगाहट और अहसासों का  कोमल स्पर्श लिए मन ओस की बूंदों में खुद को भिगो देना चाहता है ताज़े खिले फूलों की सुगंध में रचने बसने को आतुर हो उठता है.

मरू भूमि में गिरती बरखा की बूंदों को देख जैसी प्रसन्नता होती है वैसी ही अनुभूति अपलक ताकती चाहना के मौन स्वर दे जाते हैं और एक प्रेम गीत का जन्म हो जाता है !


 गीत 

मैं  बनूँगी मौन  की भाषा नयी 
बन के धुन  स्वर मेरे छू जाना तुम


मैं भरूँगी स्नेह से आँचल मेरा 
बन के झोंका नेह का  छू जाना तुम 

मैं लिखूंगी प्रेम का इतिहास नव 
बन भ्रमर बस पंखुरी छू जाना तुम 

भीत मन की प्रीत के रंग में रंगे
बन के ओस अधरों को छू जाना तुम 

बावरी हर चाह अठखेली करे  
यूँ हृदय   के तारों  को  छू जाना तुम 

मैं गुनुंगी गीत भावों से भरा 
बन किरण बस  देह को छू जाना तुम


-अल्पना वर्मा-