अखबार में ,टी वी में खबरें सुन रहे थे कि इस बार बारिश बहुत हो रही है ,दिल्ली में बारिश हो रही होगी,नहीं हुई तो हो जाएगी ,यही मन में लिए अमीरात की भयंकर गर्मी से निकल कर भारत की ओर चले .
भारत भूमि पर क़दम रखते ही सोचा इस बार सावन के महीने में बरखा रानी का आनंद मिलेगा.
गर्मी के मौसम से राहत मिलेगी,परन्तु इतनी उमस भरी गरमी से दो चार होना पड़ रहा है ,जिसे देखकर लगता है कि अगर यही हाल रहा तो आगे 'सावन का महीना, पवन करे सोर' गीत सब झूठ ही लगने लगेंगे.
न पवन न बादल किसी का शोर नहीं .
आसपास कहीं से कोयल ज़रूर कूकती सुनायी देती है ,मैंने पूछा कि जब सावन में बरखा की झड़ी नहीं तो ये क्यूँ कूक रही है ,तब पता चल कि कूक कर यह अपने बच्चे को बुलाती है.
वहीँ कहीं गीत बज रहा है 'सावन के दिन आए ,सजनवा आन मिलो'..रेडिओ वालों के लिए ये गीत अवसर के अनुसार बजते हैं ,अब सच में इस सजनी से पूछें कि क्या साजन इस उमस भरे मौसम में मिलने के लिए बुलाये जा सकते हैं?
सावन का महीना झूलों के लिए जाना जाता था ,लेकिन अब झूले दीखते नहीं ,गाँव देहात में भी नहीं.उत्तर प्रदेश में घेवर खाने का महीना भी यही है ,अब यह मिठाई भी गिनी -चुनी दुकानों में मिलती है.
मौसम में परिवर्तन के लिए पर्यावरण प्रदूषण और न जाने कितने अन्य कारणों को गिनवाया जा सकता है लेकिन जो सांस्कृतिक परिवर्तन भी हो रहे हैं उसका क्या ?
बादल छाकर चले जाते हैं ,हल्का-फुल्का कभी बरस भी गए तो उसके बाद इतनी उमस कर जाते हैं कि पूछो न!
देखें राखी बाद , भादों लगते मौसम बदलेगा या नहीं ?