माघ में ऋतु परिवर्तन होते ही मानो प्रकृति मदनोत्सव मनाने लगती है.
यहाँ भी मौसम अंगडाई ले रहा है ,
जाती हुई सर्दी पलट कर वापस ऐसे आई है जैसे कुछ भूला हुआ वापस लेने आई हो.
भावों की सुगबुगाहट और अहसासों का कोमल स्पर्श लिए मन ओस की बूंदों में खुद को भिगो देना चाहता है ताज़े खिले फूलों की सुगंध में रचने बसने को आतुर हो उठता है.
मरू भूमि में गिरती बरखा की बूंदों को देख जैसी प्रसन्नता होती है वैसी ही अनुभूति अपलक ताकती चाहना के मौन स्वर दे जाते हैं और एक प्रेम गीत का जन्म हो जाता है !
गीत
मैं बनूँगी मौन की भाषा नयी
बन के धुन स्वर मेरे छू जाना तुम
मैं भरूँगी स्नेह से आँचल मेरा
बन के झोंका नेह का छू जाना तुम
मैं लिखूंगी प्रेम का इतिहास नव
बन भ्रमर बस पंखुरी छू जाना तुम
भीत मन की प्रीत के रंग में रंगे
बन के ओस अधरों को छू जाना तुम
बावरी हर चाह अठखेली करे
यूँ हृदय के तारों को छू जाना तुम
मैं गुनुंगी गीत भावों से भरा
बन किरण बस देह को छू जाना तुम
-अल्पना वर्मा-
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