मेरे विचार में दो तरह के अध्यापक ही देर तक याद रह जाते हैं एक वे जो बहुत स्नेहमयी होते हैं और अच्छा पढ़ाते भी हैं दूसरे वे जो ज़रूरत से ज्यादा कड़क होते हैं और पढाते भी कुछ ख़ास नहीं।
एक छात्र के रूप में आज भी अपनी पसंद के किसी एक शिक्षक का नाम लेने को कहा जाए तो कक्षा चार की हमारी अध्यापिका श्रीमति गुरचरण कौर जी का नाम ही सब से पहले याद आता है.उनका सबके साथ स्नेहमयी व्यवहार ही शायद अब तक उनकी याद ताज़ा किये हुए है।
मुझे अध्यापक बनने का बचपन से शौक था। घर में खाली समय में दरवाजे के पीछे चाक से लिखना ,काल्पनिक छात्रों को पढ़ाना।
मुझे याद है ,कॉलेज में एक बार वाद-विवाद हेतु यह विषय दिया गया था. कि 'अध्यापन के लिए प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं होती है । '
उस दिन भी मैंने इस के पक्ष में बोला था और आज भी ये ही कहती हूँ कि अध्यापन का गुर और काबिलियत सभी में नहीं आ सकती ,किसी भी व्यक्ति को आप सिर्फ प्रशिक्षण दे कर उसकी क्षमताओं को निखार सकते हो ,उसे नयी तकनीक और विधियाँ सिखा सकते हो ,योजनाबद्ध तरीके से शिक्षा सामग्री को स्तर के अनुसार बांटकर उद्देश्य निर्धारित कर सकते हो जो निश्चित रूप से एक बड़ा टूल है। परंतु फिर भी मेरा यही कहना होगा कि 'अध्यापन ' एक स्वाभाविक गुण है। एक कला है।
मेरे विचार में हमारा शिक्षण कार्य ही हमें जो सतत प्रशिक्षण देता है वह कोई भी ट्रेनिंग कॉलेज एक सीमित अवधि में नहीं दे सकता। चूँकि ट्रेनिंग के दौरान हम शिक्षा के कई अन्य पहलुओं पर अध्ययन करते हैं और अपने इस स्वाभाविक गुण को 'पॉलिश 'करते हैं..उस लिहाज़ से पूरी तरह व्यवहार कुशल शिक्षक बनने के लिए ट्रेनिंग भी ज़रुरी है ,यूँ भी वर्तमान में कार्यरत शिक्षकों को आवश्यक रूप से कार्यशालाएँ,सेमिनार आदि में सीखने को प्रेरित किया जाता है ,उसका कारण भी है कि शिक्षा के क्षेत्र में आने वाली नयी चुनौतियों का सामना करने हेतु सब को तैयार जो करना है।
लेकिन सिर्फ १ वर्ष मात्र का प्रशिक्षण ले कर आप सोचते हैं कि अच्छे अध्यापक बन गये तो यह ज़रुरी नहीं होगा।
एक अच्छे अध्यापक के लिए उसका अपने विषय में ज्ञानवान होने के साथ एक संवेदनशील व्यक्ति भी होना आवश्यक है.साथ ही छात्रों की भांति ही जिज्ञासु भी।
यूँ तो हर इंसान को जीवन पर्यंत छात्र ही रहना चाहिए क्योंकि हर दिन हमें कुछ न कुछ सिखा कर ही जाता है। परन्तु एक अच्छे शिक्षक के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि उसे सीखना जारी रखना होता है।
सरल शब्दों में कहें तो सिखाना और सीखना किसी भी शिक्षक के लिए साथ-साथ चलने वाली प्रक्रिया होती है .
ज्ञान को बाँटना, उसका प्रसार ही उस ज्ञान की प्राण वायु है वर्ना वह ज्ञान वहीँ उसी व्यक्ति के साथ समाप्त हो जाता है।
महर्षि अरविन्द की कही ये दो बातें ध्यान देनी,समझनी और व्यवहार में लानी होंगी -
- वास्तविक शिक्षण का प्रथम सिद्धान्त है कि बाहर से शिक्षार्थी के मस्तिष्क पर कोई चीज न थोपी जाये। शिक्षण प्रक्रिया द्वारा शिक्षार्थी के मस्तिष्क की क्रिया को ठीक दिशा देनी चाहिए।
- शिक्षक प्रशिक्षक नहीं है, वह तो सहायक एवं पथप्रदर्शक है। वह केवल ज्ञान ही नहीं देता बल्कि वह ज्ञान प्राप्त करने की दिशा भी दिखलाता है। शिक्षण-पद्धति की उत्कृष्टता उपयुक्त शिक्षक पर ही निर्भर होती है।
हमें उनकी इस शिक्षा का पालन करना है कि हम सिर्फ प्रशिक्षक बन कर न रहें बल्कि छात्रों के पथप्रदर्शक भी बने।
इसलिए मेरा सुझाव है कि हर कालांश शुरू होने से पहले ५-१० मिनट जीवन/शिक्षा से सम्बंधित नैतिक मूल्यों पर कुछ वार्ता जो ज्ञानवर्धक हो अवश्य करनी चाहिए इससे ज्ञान के साथ- साथ छात्रों को समझने का मौका भी मिलता है।
इसलिए मेरा सुझाव है कि हर कालांश शुरू होने से पहले ५-१० मिनट जीवन/शिक्षा से सम्बंधित नैतिक मूल्यों पर कुछ वार्ता जो ज्ञानवर्धक हो अवश्य करनी चाहिए इससे ज्ञान के साथ- साथ छात्रों को समझने का मौका भी मिलता है।
आजकल लोगों का यह कहना है कि वर्तमान आधुनिक युग में छात्र शिक्षक के प्रति पहले जैसा भाव नहीं रखते।
वे उनका आदर नहीं करते!
उनसे यही पूछना चाहूँगी कि क्या आजकल के सभी शिक्षक छात्रों के प्रति वही समर्पण भाव रखते हैं?अधिकतर शिक्षक भी तो व्यवसायिक हो गए हैं।
यह सच है कि शिक्षकों के प्रति आदर व कृतज्ञता का भाव छात्रों में होना चाहिए। तो क्या वही 'पहले जैसा'सहयोग और सिखाने की ललक शिक्षक के मन में भी नहीं होनी चाहिए ?
वे उनका आदर नहीं करते!
उनसे यही पूछना चाहूँगी कि क्या आजकल के सभी शिक्षक छात्रों के प्रति वही समर्पण भाव रखते हैं?अधिकतर शिक्षक भी तो व्यवसायिक हो गए हैं।
यह सच है कि शिक्षकों के प्रति आदर व कृतज्ञता का भाव छात्रों में होना चाहिए। तो क्या वही 'पहले जैसा'सहयोग और सिखाने की ललक शिक्षक के मन में भी नहीं होनी चाहिए ?
हमें छात्रों को अनुशासन में रहना इस प्रकार सिखाना है ताकि वे स्वयं आत्म अनुशासन सिख सकें।और बड़ों का सम्मान करना भी। शेष वे अपने परिवार के माहौल से भी सीखते हैं। इसलिए शिक्षकों या बड़ों के प्रति सम्मान का भाव अगर उन में कम है या नहीं है तो अभिभावक भी उतने ही दोषी समझे जायेंगे।
अपने अनुभव से यही पाया है कि अगर आप अच्छे शिक्षक हैं और साथ ही व्यवहार कुशल भी तो कोई आश्चर्य नहीं कि आप का पुराना कोई छात्र १० साल बाद आ कर पूछे ..'टीचर,आप ने मुझे पहचाना?~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~``
चलते -चलते -:
इस मुलाक़ात में मैनें उनसे कुछ प्रश्न पूछे। उनके जो उत्तर मुझे मिले ,उन्हें सुनकर अपनी भाषा के प्रति नयी आशाएँ मन में जागीं। उनसे हुई बातचीत का एक अंश -- प्रश्न 1.फिल्म में काम करने वाले लोग साक्षात्कार देते समय हिंदी में जवाब नहीं देते और न ही बात करते हैं , उनके बारे में आप क्या कहना चाहती हैं? उत्तर - देखो,अंग्रेजी में बात करने से वे अपनी बात को अधिक लोगों तक पहुंचा सकते हैं इसलिए वे अंग्रेजी में बात करते हैं। प्रश्न 2-क्या आप को नहीं लगता जिस तरह अंग्रेजी का प्रभाव हिंदी भाषा पर पड़ रहा है ,वह हिंगलिश बनती जा रही है ,यह जल्दी ही अपना असली रूप खो देगी? उत्तर -नहीं ,ऐसा कभी नहीं होगा। भाषा में सहूलियत के हिसाब से भी बदलाव लाये जाते हैं ,उस से भाषा में परिवर्तन आता है परन्तु वह बिगडती नहीं है। हिंदी करोड़ों की भाषा है ,वह अपना रूप कभी नहीं खोएगी। प्रश्न 3-हिंदी का भविष्य कैसा देखती हैं? उत्तर-बहुत उज्जवल। ---------------------------------------------------------- इसी के साथ को विश्व हिंदी दिवस की शुभकामनाएँ ! ----------------------------------------------------------- | ||
शिक्षण-पद्धति की उत्कृष्टता उपयुक्त शिक्षक पर ही निर्भर होती है।,,,,,
ReplyDeleterecent post: वह सुनयना थी,
महत्वपूर्ण आलेख एवं साक्षात्कार....
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा है आपने ... हम आज भी अपने स्कूल टीचर को याद करते हैं जिन्होंने मेहनत करके मेहनत करने का पाठ पढ़ाया ...
ReplyDeleteकुछ अलग हट के किया हुवा हमेशा स्मृति में उतर जाता है ...
आपका कहना बिल्कुल सही है कि स्नेहमयी या कडक स्वभाव वाला अध्यापक ही याद रह पाता है.
ReplyDeleteजहां तक गुरू-शिष्य (छात्र-अध्यापक) के आपस के व्यवहार की बात है तो आज वो जमाना नही रहा जब शिक्षा एक नैतिक सामाजिक दायित्व की भावना लिये हुआ करती थी. आज शिक्षा संपूर्ण रूप से एक व्यापार बना दी गई है. और व्यापार में कोई नैतिकता खासकर आज के जमाने में नही रही.
बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
Each world written is so true .
ReplyDeleteअध्यापन एक स्वाभाविक गुण और कला है. मैं सहमत हूं आपकी बात से.
ReplyDeleteशिक्षा और शिक्षण का विषय सदा ही आकर्षित करता है, आपके विचारों से सहमत हूँ। सच में, बड़े महत्वपूर्ण विषय उठाये हैं आपने।
ReplyDelete✿♥❀♥❁•*¨✿❀❁•*¨✫♥
♥सादर वंदे मातरम् !♥
♥✫¨*•❁❀✿¨*•❁♥❀♥✿
आपके आलेख ने यादों के कई बंद पड़े कपाट खोल दिए
आदरणीया अल्पना जी !
सच है,
दोनों ही तरह के अध्यापक जो बहुत स्नेहमयी होते हैं और अच्छा पढ़ाते हैं ;
तथा जो ज़रूरत से ज्यादा कड़क होते हैं और पढाते भी कुछ ख़ास नहीं...
आजीवन याद रह जाते हैं ।
मुझे अपनी प्राथमिक कक्षाओं से ले कर कॉलेज तक के अनेक गुरूजनों की याद आपके आलेख की वजह से ताज़ा हो गई ।
अल्पना जी !
हमने तो आजीवन विद्यार्थी बने रहने का निश्चय किया हुआ है, अतः गुरू बनने की कल्पना नहीं की ।
... लेकिन आपके आलेख से अच्छा गुरू बनने का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है , इसमें संशय नहीं !
:)
श्रीमती संयुक्ता लूदरा जी के दर्शन करना भी बहुत भाया ।
आभार!
हार्दिक मंगलकामनाएं …
लोहड़ी एवं मकर संक्रांति के शुभ अवसर पर !
राजेन्द्र स्वर्णकार
✿◥◤✿✿◥◤✿◥◤✿✿◥◤✿◥◤✿✿◥◤✿◥◤✿✿◥◤✿
कुछ शिक्षकों की काही बात उम्र भर याद रहती है । उनके पढ़ाने का तरीका ही ऐसा होता है की ताउम्र याद रहता है। सार्थक लेख ।
ReplyDeleteएकदम सटीक बात लिखा है आपने! शिक्षण डिग्री से नहीं बल्कि आपके आचरण, ज्ञान और अनुभव से आता है। मेरे खयाल से अध्यापन एक स्वाभाविक गुण और कला है जो सबमें नहीं होती....सटीक आलेख...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteअच्छा आलेख!
मकरसंक्रान्ति की शुभकामनाएँ।
विश्व हिन्दी दिवस की आपको भी शुभकामनाएं -शिक्षण हमेशा एक मजेदार अनुभव होना चाहिए और शिक्षक को इस हुनर में दक्ष!
ReplyDeleteश्रीमती संयुक्ता लूदरा ने भाषा को लेकर स्पष्ट बात सामने रखी -आभार!
anushashan priy shikshak bhi hamesha yad rahte hai..sundar aalekh..
ReplyDeleteachchi rachana
ReplyDeleteसच ही कहा आपने शिक्षक हर कोई नही बन सकता । शिक्षक की नोकरी करना या प्रसिक्षम पाना ही काफी नही है इसके लिये । इसके लिये चाहिये पढाने की ललक उसके लिये मेहनत करने की तयारी और अपना ७५ से १०० प्रतिशत दे सकने की क्षमता ।
ReplyDeleteहिंदी का भविष्य उज्वल है और हम सब ब्लॉगर इसमें अपना योगदान दे रहे हैं ।
bahut achchae vishay par likhi hain....shikchak ki bahot izzat hoti hai.
ReplyDeleteआप का लेख 'शिक्षण-प्रशिक्षण'पढ़ कर मुझे अपने अध्यापन का समय याद आगया। भले ही आज सुना जाता है कि अध्यापक-वर्ग का सम्मान पहले से कम हो गया है। पर सच्चे और मेहनती अध्यापक आज भी सम्मानित होते हैं।
ReplyDeleteविन्नी,