कहानी कहना मुझे बहुत अच्छा तो नहीं आता,लेकिन प्रयास कर रही हूँ ,
एक ऐसी शृंखला शुरू करने की जिस में ऐसी बातें /घटनाएँ/किस्से जो पहले सुने -कहे न गए हों ,हमारे आस-पास ,हमारे परिचितों या उनके सम्बन्धी/दोस्तों के साथ हुई बातें /घटनाएँ हों...इसकी -उसकी /इस से -उस से सुनी बातें..... . उनको कहानी का रूप दे कर प्रस्तुत करूँ..थोड़ी कल्पना और थोड़ी सच्चाई देखें शायद थोड़ी सी कहानी बन जाए!शुरुआत करती हूँ इस लघुकथा से -जिसका शीर्षक नहीं रखा।
लघुकथा-१
सुबह की ठंडक का अहसास घर के बाहर आने पर ही हुआ।
वर्ना अंदर तो गरमाहट थी इसलिए तो स्वेटर भी नहीं पहना था उस ने!न ही कोई शाल ही ली।
माया घर से थोड़ी दूर पर बने बस स्टॉप पर पहुँच गई थी। एक दो घंटे और हलकी सी सर्दी रहेगी फिर तो धूप आ ही जायेगी,यह सोचते हुए उसने अपनी साडी के पल्लू से खुद को ढक सा लिया।
बैग पर हाथ गया तो कुछ छूट गया है लगता है ?चेक किया तो पाया कि वह घर की रसोई में ही अपना लंच बॉक्स भूल आई है।
उसके ऑफिस के आस-पास कोई केंटिन या खाने -पीने की जगह भी नहीं कि खरीद कर खा लेगी। अभी घर वापस जायेगी तो बस छूटने के पूरे चांस हैं।
आज जाने कैसी जल्दी -जल्दी में काम हुए हैं कि नाश्ता भी नहीं किया। मन में कहा लो आज तो व्रत हो जाएगा!
मगर वह यह भी जानती है कि भूखा उस से रहा नहीं जाता।
परेशानी तो होगी ही..क्या करें ..सामने दूर से आती बस भी उसके स्टॉप तक पहुँचने वाली थी।
घर की तरफ़ देखते हुए उसे बचपन का एक दिन याद आया जब वह टिफिन भूल गई थी तो माँ दौडकर स्टॉप तक आयी और लंच बॉक्स दे कर गई थी।
सुन्दर कथा है,आभार.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रयास अल्पना जी। प्रेरक लघुकथा। इसका शीर्षक (मां के बिना) रखें, यह मेरा सुझाव है।
ReplyDeleteस्वागत है अल्पना, इस नयी श्रृंखला का. पहली लघु कथा ही बाजी मार ले गयी...बेसब्र इन्तज़ार करूंगी अगली का :)
ReplyDeleteसराहनीय,बहुत अच्छी कोशिश,बधाई ...अल्पना जी,कथा लेखन का प्रयास जारी रखें,,
ReplyDeleteRECENT POST: पिता.
achhi kahani hai
ReplyDeleteएक ठन्डे अहसास की कहानी ! बहुत खूब ! पहली ही हिट!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर!
ReplyDeleteकाश! आज मां होती! यह एहसास कई बार कई मौकों पर होता है जिन्दगी भर।
bahut sunder laghukatha...
ReplyDeleteसुंदर कहानी......
ReplyDeleteकाश ऐसा हो पाता. ऐसे लघु कथाओं का स्वागत है.
ReplyDeleteसच में ...और जिनकी माँ दौड़ी नहीं चली आती टिफिन लेकर , ये भी सोच लेती हूँ !!
ReplyDeleteखूबसूरत अहसास. सुंदर भावपूर्ण लघु कथा.
ReplyDeleteकुछ पल, कुछ यादें जुडी जाते हैं किस्सों के साथ ओर उन्ही किस्सों के रिपीट होने पे अपने आप चले आते हैं जेहन में ...
ReplyDeleteभावनाओं से जुडी कहानी ...
बहुत शुभकामनायें इस श्रंखला की शुरुआत के ... अच्छी अच्छी कहानियाँ पढ़ने को मिलने वाली हैं ...
सच है, हमारी आँखें उनको ही ढूढ़ती है, बचपन की यादों में।
ReplyDeleteSundar katha,choti si kahani men sab kuch to samet diya aapne
ReplyDeleteSundar katha.choti si kahani men sab kuch to samet diya aapne
ReplyDeleteअल्पनाजी,
ReplyDeleteआप की 'लघु कथा-१' में विचारों को व्यक्त करने की अपूर्व क्षमता है। किसी एक साधारण घटना को प्रभाव पूर्ण बनाने की कला में आप को महारथ उपलब्ध है। जो इस कथा में देखने को मिलता है।
अल्पना जी, ब्लोग लिखने के क्षेत्र में मैं एक दम नयी हूँ। आप मेरे ब्लोग "unwarat.com" को पढ़ने के लिये आमन्त्रित हैं। क्या आप को मेरे लेख और कहानियाँ पसन्द आयी?
यदि हाँ!! तो टिप्पणी अवश्य लिखें ताकि निरन्तर लिखने की चाह बनी रहे।
विन्नी,
अच्छी है
ReplyDeleteArse bad aamad sukhad hai.
ReplyDeleteExcellent start ... kooze mein darya band kar diya ..this type of creative work needs great mental energy and power of imigination and u have the ability to prove it .. Live long and happy life ... keep up the Good work
ReplyDeleteKeep it up ! very good real story .
ReplyDeleteआपकी यह लघुकथा तो जीवन में बहुत पीछे खींच ले गई, यही लेखक की सार्थकता और सफ़लता है, बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
अपना बचपन याद आ गया .....माँ के घर में जो राज किया है वो तो 'अपने घर' में भी नहीं
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर एक नजर डालेगें तो मुझे बहुत ख़ुशी होगी
तुम्हारी आवाज़ .....
अच्छा प्रयास...
ReplyDeleteलघु-कथा लेखन की बढ़िया शुरुआत है
ReplyDeleteहार्दिक बधाई !!!
बस यूँ ही जारी रखिये ..............