समाचारों में देख रहे हैं कि भारत में तो बारिशें खूब हो रही हैं .कुछ महीने पहले यहाँ भी हुई थी बारिश एक पूरा दिन !
दो तीन दिन लगातार होती तो कम से कम ये सड़कें ,इमारतें ,पेड़ पौधे सब अच्छी तरह धुल तो जाते !
देखीये इन चित्रों में एक दिन की हलकी मगर पूरे दिन हुई बारिश से क्या हाल हुआ था..
सुबह और शाम के चित्र
निर्वात ----- रास्ते ठहरे हुए हैं , सूर्य भी धुन्धला गया , दिन बुनती हूँ तो रात की चादर बनता जाता है! तक रही हूँ आसमाँ , शायद कभी रोशन भी हो, खोजती हूँ वो सितारे , जो कभी , बिखरे थे आकाश में ! शब्द थे साथी मगर , वो भी कहीं जा सो गए, भाव थे हमराह पर , किस राह जाने खो गए , है शिथिल देह , और मन निर्जीव सा हर तरफ फैला हुआ है मौन' किस निर्वात का , शून्य में ठहराव ये अंत ही होता मगर , ज़िन्दगी... चलते रहने के बहाने ढूँढ़ ही लेती है ! -------------अल्पना वर्मा ------------------ |
एक त्रिवेणी
फ़ूल सारे खिल गए हैं , हवा भी गाने लगी है, एक बच्चे को हँसते देखा है अभी . |
Please Click Here to write Comments if other option is not working.
बहुत सुन्दरचित्र-बेहतरीन कविता .और त्रिवेणी का तो क्या कहना..."
ReplyDeleteसकारात्मकता के साथ चलती हुई आपकी रचना खूबसूरत लगी ....जिंदगी राह ढूंढ ही लेती है ....बहुत खूब!
ReplyDeleteत्रिवेणी भी सुन्दर है...
शुभकामनाएं..
अल्पनाजी
ReplyDeleteकभी कभी ऐसा ही होता है सब कुछ होते हुए भी निराशा घेर लेती है और आपने उन्हें सुन्दर अभिव्यक्ति दे दी है |
और फिर त्रिवेणी ने सारी नीरसता धोकर नई स्फूर्ति जगा दी है |एक सुन्दर से गीत का इंतजार है आपका गाया हुआ ?
और हाँ अभी कहीं पर भी बहुत बरसात ज्यादा नहीं हुई है समाचार थोडा बढ़ चढ़ कर ही ही बताते है |
उमस जारी है |
शुभकामनाये |
मालवा मे तो अभी बारिश नही हो रही है बस हल्की बूंदे पड़ी थी कल
ReplyDeleteसच से अंत किया आपने।
ReplyDeleteजब तक जीवन को बहते जाना है
तब तक यह सब बाधाओं को पार करके
आगे बढ़ने की जुगत भिड़ा ही लेता है।
बच्चे की निश्चल हँसी तो चम्पा चमेली की सुगंध की तरह
फैलती जाती है...
उदास कवि को भी खिला देगी, बल्कि खिला ही दिया होगा।
यह आवश्यक भी है की जिन्दगी ठहर न जाए ! शुभकामनायें !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर दृश्य और कविता... जिन्दगी चलने के बहाने ढूंढ़ ही लेती है...
ReplyDeleteजीवन्त्तता की ही पर्याय है जिन्दगी -कविता अपने बेहद उत्कृष्ट शिल्प और भाव में एक गहरी उदासी संप्रेषित कर रही है !
ReplyDeleteऐसा तो नहीं होने देना हैं न !
ज़िन्दगी...
ReplyDeleteचलते रहने के बहाने ढूँढ़ ही लेती है !
वाह अलपना जी दिल को छू गयी रचना बधाई
आपके अल एन में तो बारिश हो गयी ... दुबई वाले तो तरसते रह गये ....
ReplyDeleteवीत रागी की तरह आपकी रचना ... निवीकार जीवन में निरन्तर कर्म तो करना ही पड़ता है ... बहुत बार मन कुछ उदास सा हो जाता है ... शब्द, भाव, रोशनी गुम सी होने लगती है ... पर जीवन का क्रम चलता रहता है ...
त्रिवेणी एक अचल सत्य है ... बच्चे की मुस्कान जीवन को प्रवाह-मेय कर देती है ....
ReplyDeleteखूबसूरत रचना...और बहुत ही सुन्दर त्रिवेणी....बधाई
ReplyDeletechalti ka naam hi jindagi hai, beshak kabhi kabhi padaw aa jaate hain, kabhi kabhi thak jata hai pathik........lekin chalna to hai hi...........:)
ReplyDeleteek bhawpurn rachna!!
chalti ka naam hi jindagi hai, beshak kabhi kabhi padaw aa jaate hain, kabhi kabhi thak jata hai pathik........lekin chalna to hai hi...........:)
ReplyDeleteek bhawpurn rachna!!
त्रिवेणी में बहुत ही सुंदर भाव हैं.
ReplyDelete...ब्लाग के दाईं तरफ लगा श्री वायलार रवि का चित्र शर्तिया जून 2010 से पहले का है.
दिन बुनती हूँ तो
ReplyDeleteरात की चादर बनता जाता है!
..............
पढ़ती हूँ हर बार और कितनी सारी भावनाओं के आगे थम जाती हूँ, कहना चाहती
हूँ , पर कमेन्ट बॉक्स खुलता ही नहीं
फोटो लेख रचना और त्रिवेणी...सब कुछ लाजवाब...
ReplyDeleteनीरज
बहुत सुन्दर!
ReplyDeleteयहाँ तो वर्षा ने मौसम खूब सुहावना कर दिया है।
घुघूती बासूती
फूल सारे खिल गए हैं ,
ReplyDeleteहवा भी गाने लगी है,
एक बच्चे को हँसते देखा है अभी .
waah bahut khoob ,itni khoobsurat rachna par kuchh kaha nahi jaa raha abhi filhaal shayad khamoshi behtar hai is sundar ahsaas aur didar par .shabdo ne man moh liya .
अल्पनाजी
ReplyDeleteपहले त्रिवेणी में व्यक्त कोमल - मा'सूम भावों के लिए बधाई !
मैं त्रिवेणी विधा को अभी समझ रहा हूं , सच कहूं तो नेट पर ही आप सहित दो तीन अन्य रचनाकारों को त्रिवेणियां रचते देखा है ।
न समझ पाने के उपरांत भी मन को बहुत कुछ महसूस तो होता ही है …
… और यहीं आपकी त्रिवेणी मन को बहुत प्रभावित कर रही है ।
ज़िन्दगी...
चलते रहने के बहाने ढूँढ़ ही लेती है !
रचना निर्वात एक सहज भावबोध की कविता है , जिसका आशावादी समापन इसकी विशेषता है , उपलब्धि है ।
सुंदर सृजन के लिए बधाई !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
शब्द थे साथी मगर ,
ReplyDeleteवो भी कहीं जा सो गए,
भाव थे हमराह पर ,
किस राह जाने खो गए ,
alpana ji namaskaar , upar ki panktian man ko bha gain. bahut sunder rachna hai. bahut din baad aapse sampark kar raha hun, kuchh din blog se door chala gaya tha , is beech kuchh naya bhi to nahin likha gaya. aaj ka bhajan bhi pahle ka hi likha hai, aapka dhanyawaad.
bahut khoob....
ReplyDeleteनमस्कार.
ReplyDeleteसुन्दर रचना. साथ ही त्रिवेणी बहुत अच्छी लगी.
यह कविता आपके विशिष्ट कवि-व्यक्तित्व का गहरा अहसास कराती है।
ReplyDeleteइस कविता की कोई बात अंदर ऐसी चुभ गई है कि उसकी टीस अभी तक महसूस कर रहा हूं।
ek bahut achchhi rachna ke liye badhayee ho
ReplyDeleteसुन्दर कल्पना का प्रस्तुतीकरण
ReplyDeleteबहुत ही ख़ूबसूरत रचना और अंतिम पंक्तियाँ तो लाजवाब हैं...चित्र और त्रिवेणी भी बहुत अच्छे हैं... आपके ब्लॉग पर आकर एक साथ बहुत कुछ मिल जाता है.
ReplyDeleteअंत ही होता मगर ,
ReplyDeleteज़िन्दगी...
चलते रहने के बहाने ढूँढ़ ही लेती है !
जितनी सुन्दर कविता ,उतने ही सुन्दर चित्र भी.
बेहद ही पसंद आयी आपकी रचना, बधाई।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रचना...
ReplyDeletekarnapriya geet, manbhavan kavitae.
ReplyDeleteजाने किस भारत मे हो रही है बारिश .....लखनऊ तो अभी भी बेतरह तप रहा है...... आपकी बारिश वाली तसबीरों ने तरावट दी .... आपके ऊब को सुंदर शब्द दिये हैं ....और अंत मे , निष्कर्ष तो खूबसूरत है ।
ReplyDeleteआप के अंतरंग में कई फ़ूल खिल रहे हैं,और आप अपनी सकारात्मक अभिव्यक्ति से हमें प्रेरणा और ऊर्जा देती रहतीं हैं.
ReplyDeleteहमारे यहां तीन दिन पहले ही मौसम की पहली बारिश हुई. मगर सडकें धुली नहीं , मगर कीचड से सराबोर हो रहीं हं, क्योंखि सभी तरफ़ सडकें खुली हुई हैं.(Under Construction)!
पिछले साल आपने एक मराठी गान (गारवा.....) भेजा था, इसी मौके के लिये, वह याद आया.
!त्रिवेणी का भी जवाब नहीं..
सचमुच निर्वात....। जिंदगी खुद एक बहाना है। मौत को झुठलाने का बहाना...। झुठलाते-झुठलाते..कितनी लम्बी खींच लेने का उपक्रम..।
ReplyDeleteऔर मन निर्जीव सा
हर तरफ फैला हुआ है
बहुत खूबसूरत पंक्ति है अल्पनाजी यह। दरअसल पता नहीं क्यों इसमे मुझे गहरी दार्शनिकता नज़र आती है। इसकी व्यख्या कर देने का मन होता है। मन का निर्जीव होना..और उसका.हर तरफ फैला हुआ होना....। कुछ अलग सी चीज बयां करती है..मानों चारों और बस सन्नाटा ही सन्नाटा..मुर्दसी ही मुर्दसी.....। खैर..मैं सम्भव है आपके विचार से विलग विचारों में भटकने लगा..किंतु आपकी यह रचना मुझे ज्यादा भायी। फिर त्रिवेणी..तो प्रफुल्लित कर देनी वाली है ही। गज़ल की वो लाइन याद आन पडी..कि ...चलो आज रोते हुए किसी बच्चे को हंसाया जाये...।
- कुछ उलझने, कुछ सांसारिक ताने-बाने..तनाव और कभी हल्की से उम्मीद आदि जैसे तमाम तरह के दौर से गुजर रहा हूं तो ब्लॉग आदि पर सफर कम हो गया है..देर से आने के लिये मुआफी चाहता हूं।
पुनश्च:- राजेन्द्रजी की टिप्पणी सुखद है। उनमें कवि मानस है। उनकी ही टिप्पणी को आगे बढाने का मन हो आया सो-
ReplyDelete"रचना निर्वात एक सहज भावबोध की कविता है , जिसका आशावादी समापन इसकी विशेषता है , उपलब्धि है ।.."
सिर्फ सहज भावबोध मुझे प्रतीत नहीं हुआ, भावबोध तो है ही किंतु सहज..नहीं, रचना की दार्शनिकता में उतर जायें तो सहजता नहीं बल्कि गम्भीरता नज़र आती है। मुझे एसा लगा। और..आशावादी समापन..इसकी विशेषता है..नहीं..मुझे लगा इसकी विशेषता है जीवन का कटु सत्य..उसकी मज़बूरी..उसकी पीडा...। खैर..।
अमिताभजी मुझसे अधिक अनुभवी हैं , गुणी हैं !
ReplyDeleteनिश्चय ही डूब कर मनन - मंथन करने के पश्चात नतीज़े पर पहुंचे हैं ।
मेरी अल्प बुद्धि कविता की इस अंतिम पंक्ति को आशावादी समापन ही माने हुए है …
ज़िन्दगी...
चलते रहने के बहाने ढूँढ़ ही लेती है !
आदरणीय अमिताभजी से निश्चय ही कम अज कम मुझ जैसे ज्ञान-पिपासु को बहुत सारी प्रेरणाएं मिलने की संभावनाएं हैं ।
आभार सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
आपने ठीक कहा उदासीनता के निर्वात में शब्द सो जाते हैं, भाव भी खो जाते हैं. परन्तु ये अंतरात्मा की आवाज ही है जो खोये भाव को ढूंढ़ कर धड़कन होने का आभास कराती है, पुन: शब्द जागते हैं. जीवन को गतिशील जैसे भी हो रहना ही है.
ReplyDeleteत्रिवेणी ने बदले मौसम का अच्छा अहसास कराया.
शायद कभी रोशन भी हो,
ReplyDeleteखोजती हूँ वो सितारे ,
जो कभी ,
बिखरे थे आकाश में ....
या शायद ...वो सितारा जो कभी खो गया था आकाश में .....
इस बार की रचना दिल के करीब है .....
त्रिवेणी किसी मासूम की मुस्कान सी ......साफ और स्पष्ट .....!!
ज़िन्दगी...
ReplyDeleteचलते रहने के बहाने ढूँढ़ ही लेती है !
क्या बात है....वाह
बहुत अच्छी त्रिवेणी से भी खूबसूरत लगी.
ज़िन्दगी...
ReplyDeleteचलते रहने के बहाने ढूँढ़ ही लेती है !
सच कहा आपने..
जीवन और जल दोनों की प्रकृ्ति बिल्कुल एक समान...जिनका काम ही बहते जाना है. कोई चाहे कितना भी बांधने का प्रयास करें,ये अपने लिए कोई नया मार्ग ढूँढ ही लेते है..
त्रिवेणी तो लाजवाब रही.....
वाह....
ReplyDeleteमुग्धकारी लाजवाब....
भावों को ऐसी मनमोहक अभिव्यक्ति दी है आपने कि क्या कहूँ....
हर तरफ फैला हुआ है
ReplyDeleteमौन' किस निर्वात का ,
शून्य में ठहराव ये
अंत ही होता मगर ,
ज़िन्दगी...
चलते रहने के बहाने ढूँढ़ ही लेती है !
Alpana ji,
sach kaha hai apne jindagii chalane ka koi na koi bahana talash hee legee---har hal men kyon ki chalna hee to jindagee hai.
वो कागज की कश्ती , वो बारिश का पानी ... आपकी कविता ने जगजीत की ग़ज़ल की याद दिला दी.....
ReplyDeleteएक अद्भुत नज़ारा देखा अभी .वो बच्चा जिसे बोलना तक नहीं आता.....बारिश की बूंदों से खिलखिला उठता है.........त्रिवेणी खूबसूरत है ...
ReplyDeleteनपे तुले शब्दों में लिखी गई एक सुन्दर कविता.........
ReplyDeleteKavita ne gehra asar choda.
ReplyDeleteTriveni bachche ki hansi ki tarah hi sundar.
kya baat hai alpna ji pardesh me baithe baithe desh ka sajiv chitran bahut khoob behatrin
ReplyDeleteज़िन्दगी चलते रहने के बहाने ढूंढ़ लेती है यही पंक्ति दिल में बस गयी है ..और त्रिवेणी आप बहुत दिल से लिखती है ...बहुत पसंद आई .बच्चे सी मासूम
ReplyDeleteवैज्ञानिक विचारों का काव्य रूप में सुंदर प्रस्फुटन।
ReplyDelete---------
क्या आप बता सकते हैं कि इंसान और साँप में कौन ज़्यादा ज़हरीला होता है?
अगर हाँ, तो फिर चले आइए रहस्य और रोमाँच से भरी एक नवीन दुनिया में आपका स्वागत है।
behatarin...........prakriti ko samne laakr khadaa kar diya
ReplyDeletebahot achcha likhtin hain aap.
ReplyDeletebahut khub rachna...
ReplyDeleteek bachche ko hanste dekha hai abhi...
बहुत ही सुन्दर त्रिवेणी....बधाई
ReplyDeleteअल्पना जी, कहाँ बिजी हैं?
ReplyDeleteइस शमा को जलाए रखें।
................
अपने ब्लॉग पर 8-10 विजि़टर्स हमेशा ऑनलाइन पाएँ।
अल्पना जी बहुत दिनो से शेष फिर और् खानाबदोश पर आपका आना नही हुआ,कोई नाराज़गी है क्या?
ReplyDeleteब्लागिंग के टिप्पणी आदान-प्रदान के शिष्टाचार के मामले मे मै थोडा जाहिल किस्म का इंसान हूं लेकिन आपमे तो बडप्पन है ना...!
डा.अजीत
www.monkvibes.blogspot.com
www.shesh-fir.blogspot.com
सूर्य भी धुन्धला गया ,
ReplyDeleteदिन बुनती हूँ तो
रात की चादर बनता जाता है!
ye lines behad sunder lagi alpanaji,aur kavita bhi sunder. triveni ne tho hothon par ek masum si muskan hi bikhar di.sadar mehek
(http://mehhekk.wordpress.com/)
बहुत बढ़िया रचना......
ReplyDeleteज़िन्दगी...
चलते रहने के बहाने ढूँढ़ ही लेती है !
वाकई अल्पना जी, ये बहाने ही जीवन के लक्ष्य होते है जो जीवन को एक अर्थ देते है .....
हर तरफ फैला हुआ है
ReplyDeleteमौन' किस निर्वात का ,
शून्य में ठहराव ये
अंत ही होता मगर ,
ज़िन्दगी...
चलते रहने के बहाने ढूँढ़ ही लेती है !
वाह, कविता और त्रिवेणी दोनो ही सुंदर ।
zindgi...jaise bhi ho, chalti hai...
ReplyDeletezindgi jaisi bhi ho, haseen hoti hai.
कीचड़ न हो तो बारिश का आनन्द ही आनद है , अब हम अपने यहाँ की क्या कहें
ReplyDeleteअल्पना जी,
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कविता। त्रिवेणी खूबसूरत है
नमस्कार...
ReplyDeleteहमने बहुत चाह की आपका ब्लॉग अपने सेल पर खोल लें पर शब्द इतने छोटे नज़र आते थे की लगने लगता था की अब उम्र हो गयी...शायद चश्मा पहनने की...पर जहाँ छह वहां राह...आज काफी दिनों बाद ऑफिस का नेट ठीक हो पाया है और आज पहले दिन ही...मैंने सर्वप्रथम आपके ब्लॉग के दर्शन किये हैं... जैसे आपने लिखा है न जिन्दगी चलते रहने के बहाने ढूंढ लेती है... सो जिन्दगी तो चल रही है निर्बाध, गतिशील है... एक एक दिन बीतते जा रहे हैं और हम बढ़ रहे हैं एक अनजान पथ पर, जिसकी मंजिल का हमें अंदाजा तो है पर पता नहीं है...
दीपक...
अच्छे फोटो! सुन्दर त्रिवेणी।
ReplyDeleteअच्छा लिखती है आप , ब्लॉग पढ़ा अच्छा लगा
ReplyDelete