एक नज़्म-:
एक त्रिवेणी-
एक गीत 'ये शाम की तन्हाईयाँ 'यहाँ सुन सकते हैं.
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बंज़र हथेलियाँ --------------------- एक रोज़ उग आये थे कुछ लम्हे खुद ब खुद हथेलियों पर मेरी , चाहत की नमी , अहसास की गरमी ने पाला था उन्हें , और पलकों ने दिया था साया , जिस रोज़ आँख लगी मेरी , जागी तो , इस धरती को बंज़र पाया , ढूँढा बहुत ..मगर , कोई लम्हा फ़िर न मिला मालूम हुआ है, कि 'रेखाएँ ' ...खुदगर्ज़ हुआ करती हैं! .............................अल्पना ........................... |
एक त्रिवेणी-
सिलसिले टूट गए अलविदा कह कर , एक राह दो राहों में बंट गयी. उस राह में एक आईना देखा था ' हमने '! |
एक गीत 'ये शाम की तन्हाईयाँ 'यहाँ सुन सकते हैं.
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जिस रोज़ आँख लगी मेरी ,
ReplyDeleteजागी तो ,
इस धरती को बंज़र पाया ,
ढूँढा बहुत ..मगर ,
कोई लम्हा फ़िर न मिला
मालूम हुआ है,
कि 'रेखाएं ' ...खुदगर्ज़ हुआ करती हैं!
बहुत सुन्दर रचना. बधाई.
मालूम हुआ है,
ReplyDeleteकि 'रेखाएं ' ...खुदगर्ज़ हुआ करती हैं!
gr8!!
sanvedanshil rachna, saadhuwaad... adbhut !!!
जी 'रेखाएं' खुदगर्ज़ हुआ करती हैं!
ReplyDeletenice
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteकल्पनाओं का संसार और शब्दों के प्रहार....
अद्भुत मिलन भावनाओं और शब्दों का...
कुंवर जी,
जागी तो ,
ReplyDeleteइस धरती को बंज़र पाया ,
ढूँढा बहुत ..मगर ,
कोई लम्हा फ़िर न मिला
मालूम हुआ है,
कि 'रेखाएं ' ...खुदगर्ज़ हुआ करती हैं!
बेहद सुन्दर अल्फाज अल्पना जी
kuch kahne ko ungliyaan ghumayi hain aksharon per, lekin shabd bane nahin....khudgarz rekhaon ke nikat nihshabd si hun
ReplyDeletekuch kahne ko ungliyaan ghumayi hain aksharon per, lekin shabd bane nahin....khudgarz rekhaon ke nikat nihshabd si hun
ReplyDeleteइस धरती को बंज़र पाया ,
ReplyDeleteढूँढा बहुत ..मगर ,
कोई लम्हा फ़िर न मिला
मालूम हुआ है,
कि 'रेखाएं ' ...खुदगर्ज़ हुआ करती हैं!
खूबसूरत शब्द दिए हैं....
Beautiful moments !
ReplyDeleteCherish them.
अगर वह आईना है, तो राह एक ही है, बंटना एक दृष्टि भ्रम हे तो है.
ReplyDeleteअलविदा कहने से सिलसिले टूटना शायद ज़रूरी नहीं. कभी कभी यह अस्थाई हो सकता है.
सिलसिले टूटा नहीं करते कई संबंधों में< ऐसे जैसे केसेट पर कोई गाना सुनते हुए बंद कर देतें हैं , तो गाना रुक जाता है. कई समय बाद ( बरसों भी) जब भी लगाया, गाना वहीं से शुरु होगा.
मैं शायद ज़्यादा ही पोसिटिव्ह थिंकिंग रखता हूं!!! हा ,हा , हा!!
उस राह में एक आईना देखा था ' हमने '
ReplyDeleteहमराह थे तो देखा था इक सपना हमने .....????
बहुत अच्छी है आपकी नज्म.. और ऊपर से त्रिवेणी क्या खूब संगम है.
ReplyDeleteकि 'रेखाएं ' ...खुदगर्ज़ हुआ करती हैं!
ReplyDeleteजी हाँ रेखाएँ तो खुदगर्ज होती ही हैं पर अनुकूल रेखाओं को गढने का ज़ज्बा भी तो हो.
बहुत सुन्दर रचना और त्रिवेणी
बहुत अच्छी लगी यह पोस्ट...
ReplyDeleteआग्रहों से दूर वास्तविक जमीन और अंतर्विरोधों के कई नमूने प्रस्तुत करता है।
ReplyDeleteमालूम हुआ है,
ReplyDeleteकि 'रेखाएं ' ...खुदगर्ज़ हुआ करती हैं!
बहुत बढिया रचना...अल्पना जी!
हालाँकि हमारे जैसे कविता/गजल जैसी विधा से अनभिज्ञ इन्सान के लिए शब्दों की गहराई तक पहुँचने में बुद्धि को खास मशक्कत करनी पडती है...लेकिन वो रचना ही क्या जो सोचने के लिए दिमाग को विवश न कर दे....
आभार्!
अहसास की गरमी ने पाला था उन्हें ,और पलकों ने दिया था साया.. awesome!
ReplyDeleteमालूम हुआ है,
ReplyDeleteकि 'रेखाएं ' ...खुदगर्ज़ हुआ करती हैं!
वाह ! क्या बात है ... बहुत सुन्दर रचना !
ओह! बहुत सुन्दर!!
ReplyDeleteत्रिवेणी जबरदस्त रही!!
ये दिल और उनकी निगाहों के साये
ReplyDeleteकुछ यही गीत अचानक जेहन में आया आपकी इस खुबसूरत नज्म को पढ़कर |
त्रिवेणी ने तो मन मोह लिया |
बेहतरीन लाजवाब और क्या कहूँ. अद्भुत शब्द कौशल और भरपूर नयापन
ReplyDelete"बंजर हथेलियाँ"
ReplyDelete"सिलसिले टूट गए अलविदा कह कर,
एक राह दो राहों में बंट गयी."
गहन और मार्मिक
वाह ... क्या बात कही है ... रेखाएँ ख़ुदग़र्ज़ होती हैं ...
ReplyDeleteसच है हथेलियाँ हर उस चीज़ को फिसला देती हैं जो हसीन होती हैं ... बहुत समय बाद आपने उच लिखा है आज ... मज़ा आ गया आपकी नज़्म पढ़ कर...
Hi..
ReplyDeleteHaathon pe lamhe jo tere..
Aaj na dikhte wahan..
Har wo lamha swapn sa..
Aankhon main teri dikh raha..
Kitna hi khudgarj rekha haath ki tere rahen..
Lamhe jo hain aankhon main..
Unka ye rekha kya karen..
Sundar kavita,
aur Triveni.. Wah..
DEEPAK..
Khudgarzee ka kya kahein !! adhbhut bimb !
ReplyDelete"चाहत की नमी ,
ReplyDeleteअहसास की गरमी ,
और…
पलकों का साया "
बड़े नर्म नाज़ुक बिंबों ,कोमल भावों और पाक जज़्बों को समेटे हुए
एक बहुत बड़ी लघु कविता
जिसमें शब्दों को ज़्यादा मशक़्क़त नहीं करनी पड़ रही है , भाव ख़ुदबख़ुद रूह से गुफ़्तगूज़दा हैं ।
'रेखाएं ' ...खुदगर्ज़ हुआ करती हैं !
बिल्कुल सच है अल्पनाजी !
'रेखाएं ' ...खुदगर्ज़ ही हुआ करती हैं !
संवेदनाओं की नाज़ुक नसें टटोलती सुंदर भावप्रवण रचना के लिए अंतर्मन से बधाइयां !
{ और हां, आपकी त्रिवेणियों से मुझे भी प्रेरणा ले'कर कुछ नया सृजन करने की इच्छा हो रही है । 2500-3000 गीत ग़ज़ल लिख चुका मैं आज तक एक भी त्रिवेणी नहीं लिख पाया हूं । }
आपकी लेखनी की चमक में उत्तरोतर निखार आता जाए , और किसी की नज़र न लगे … यही कामना है ।
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
जिस रोज़ आँख लगी मेरी ,
ReplyDeleteजागी तो ,
इस धरती को बंज़र पाया ,
ढूँढा बहुत ..मगर ,
कोई लम्हा फ़िर न मिला
मालूम हुआ है,
कि 'रेखाएं ' ...खुदगर्ज़ हुआ करती हैं!
meri kahani kahti ye lines..
bahut din baad aaya... lekin sab kuchh vaisa hi paaya
बहुत अच्छी नज्म और त्रिवेणी का तो जवाब नही...
ReplyDeleteये रचना इसलिये भी खास लगी,
ReplyDeleteक्योंकि इसकी कई पंक्तियां अपने आप में संपूर्ण हैं.
रेखाएं खुदगर्ज हुआ करती है वाकई यही सच है और बहुत खूबसूरती से आपके इस भाव को पंक्ति में ढाला है ..त्रिवेणी लाजवाब है ....बहुत पसंद आई यह
ReplyDeleteइस धरती को बंज़र पाया ,
ReplyDeleteढूँढा बहुत ..मगर ,
yahi tho dastur hai,sach kaha rekhayein badi khudgarj hoti hai.sunder kavita.
rekhayen khudgarj aur hatheliyan banjar......:)
ReplyDeletebadi khubsurat baat kahi aapne...:)
बहुत सुन्दर रचना और त्रिवेणी
ReplyDeleteमेरे ब्लोग मे आपका स्वागत है
ReplyDeleteक्या गरीब अब अपनी बेटी की शादी कर पायेगा ....!
http://sanjaybhaskar.blogspot.com/2010/05/blog-post_6458.html
बहुत दिनों बाद आना हुआ और आपके वहाँ आकर आपको पढ़कर बहुत कुछ भूला याद आने लगा ,आँख नाम है ,....आभार ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर नज़्म.
ReplyDeleteदीदी नमस्कार,
ReplyDeleteएक अलग सा भाव लिये , आपकी यह रचना बहुत सुन्दर है. बधाई....
अच्छा लगा यह सकारात्मक दृष्टिकोण. वास्तविकताएं कुछ भी रहें आशा की डोर बंधी ही रहनी चाहिये.
ReplyDeleteअल्पना जी . रचना अतिप्रशंसनीय . बधाई ।
ReplyDeleteKya baat hai!
ReplyDeleteशीर्षक बहुत ही उम्दा .....
ReplyDeleteनज़्म कुछ वक़्त मांगती लगी ......
त्रिवेणी भाव स्पष्ट नहीं कर रही .....समझाएं ......!!
@हरकीरत जी कुछ यूँ व्याख्या है इस त्रिवेणी की ...
ReplyDeleteत्रिवेणी में पहली पंक्ति बताती है कि एक शब्द अलविदा 'कहने से और दो हमसफ़र जुदा हो गए [सदा के लिए]
--दूसरे में यही बात और अधिक स्पष्ट करती हैं कि एक राह थी जो अब अलग दो राहों में बँट गयी है.दोनों के रस्ते अलग हो गए.
--तीसरे में इस का कारण है...उस राह में [जब एक साथ चल रहे थे...आईना देखा था हमने.[हमने का हम दोनों से मतलब है]..अर्थात--आईना जो आप को असली चेहरा दिखता है ..ये आईना ऐसी परिस्थितियाँ हैं जिनसे दोनों को यह मालूम हुआ/अहसास हुआ कि वे एक दूसरे के लिए नहीं बने हैं.
-----------------------
शायद मैं अपना अर्थ स्पष्ट कर सकीं हूँ .
शुक्रिया .
बेहद खूबसूरत और दर्द से सराबोर...
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी...
आँखों में नमी ले आई आपकी यह नज़्म..
मीत
alpanaji aapki rachnaye padhi bhut achi lagi man ko chu gai .eske purv bhi aapke blog par sunder bhav purnpanktiya padhi man aakhe bhig gaye aansu bankar tap se tpke ,phir aakhe sukhi man bhiga aour ham vahi khade hai .....kamana billore mumbai...
ReplyDeleteRekhayen khudgurz hua karti hai ..... khoob kaha hai ..
ReplyDeleteaaina bhi saath nahi chalta ..... bahut sach kaha hai raah bant hi jaati hai kitna bhi dard ho .....
जिस रोज़ आँख लगी मेरी ,
ReplyDeleteजागी तो ,
इस धरती को बंज़र पाया ,
ढूँढा बहुत ..मगर ,
कोई लम्हा फ़िर न मिला
मालूम हुआ है,
कि 'रेखाएं ' ...खुदगर्ज़ हुआ करती हैं!
बहुत ही प्यारी नज़्म....क्या अलफ़ाज़ क्या एमोसंस हैं...जितनी तारीफ़ करूं कम है....!
lamho ka uganaa aour unka khudgarj niklna..jeevan ki sachchaai pesh karti rachna he. jeevan ke darshan bhi kitane vistaar liye hote he ki usaki seemaa nahi..jitanaa jyada usme mashgool ho utane hi shabd nikalte he, soch banti he, vichaar prasfutit hote he.
ReplyDeletetriveni bhi bahut kuchh kajti he.
laazavaab
awesome alpna ji...awesome!
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत नज़्म कही है अल्पना जी.
ReplyDeleteत्रिवेणी बहुत खास लगी.
दोनों में ग़म की छाया है.
जागी तो ,
ReplyDeleteइस धरती को बंज़र पाया ,
ढूँढा बहुत ..मगर ,
कोई लम्हा फ़िर न मिला
मालूम हुआ है,
कि 'रेखाएं ' ...खुदगर्ज़ हुआ करती हैं!
bahut hee alag shabdon men wyakt kee hai bichudne kee peeda aapne. abhi jahan hoon wahan computer men indic fonts nahee hain. kshama. mere kerala prawas par aapkee tippni achchee lagi. palace kee shooting kee ijajat nahee mili to rawi verma ke painting nahee dikha sakee aapko . khed hai.
कल्पना की विस्मयकारी उड़ान को यथार्थ से इस तरह गूंथा है कि पाठक मंत्रमुग्ध सा हो जाए...
ReplyDelete--------
क्या आप जवान रहना चाहते हैं?
ढ़ाक कहो टेसू कहो या फिर कहो पलाश...
"एक त्रिवेणी" बहुत ही सुन्दर लगी..
ReplyDeleteआभार..
लम्हे को पकड़ के रखा जा सकता है - यादों में.
ReplyDeleteजिस रोज़ आँख लगी मेरी ,
ReplyDeleteजागी तो ,
इस धरती को बंज़र पाया ,
ढूँढा बहुत ..मगर ,
कोई लम्हा फ़िर न मिला
मालूम हुआ है,
कि 'रेखाएं ' ...खुदगर्ज़ हुआ करती हैं
triveni is aakash me chaand ki tarah chamak rahi hai .saara ka saara vyom khoobsurat .
Fursat ke lamhon me kayi baar aapka blog khol ke padhti hun..ek ajeeb-sa sukun milta hai..aur prerna bhi..
ReplyDeleteWaah banjar hatheliyaan...
ReplyDeleteदोनों ही रंग ...लाजवाब...लाजवाब !!!!
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत...
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी....
"रेखाएं खुदगर्ज़ हुआ कराती है " क्या बात कही है ....
ReplyDeleteत्रिवेणी बहुत जानदार है ...
बधाई ....
बहुत दिन हुए अल्पना जी आपकी पोस्ट आए।
ReplyDeleteइस शमा को जलाए रखें।
--------
ब्लॉगवाणी माहौल खराब कर रहा है?
Fantabulous!
ReplyDeleteFantabulous!
ReplyDeleteतृप्त हुए ।
ReplyDeleteअति सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteरेखाएं ' ...खुदगर्ज़ हुआ करती हैं!
जानकर , समझकर ज्ञान प्राप्ति हुई.
हार्दिक आभार.
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
जिस रोज़ आँख लगी मेरी ,
ReplyDeleteजागी तो ,
इस धरती को बंज़र पाया ,
ढूँढा बहुत ..मगर ,
कोई लम्हा फ़िर न मिला
मालूम हुआ है,
कि 'रेखाएं ' ...खुदगर्ज़ हुआ करती हैं!--------------अल्पना ज़ी, आपके बिम्बों का भी जवाब नहीं।बहुत सुन्दर कविता।
दोबारा आया हूँ। बहुत सुगठित रचना, गज़ल जैसी - जो हो जाती है, की नहीं जाती। जो कही जाती है, लिखी नहीं जाती।
ReplyDeleteफिर भी जो अनकहा है - जो शब्दों की सामर्थ्य से परे है, वह भी झलक गया, यह बधाई के क़ाबिल है।
खूबसूरत रचना !
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति........बधाई.....
ReplyDeleteनज़्म से हुई मालूमात बहुत दर्द भरी है.
ReplyDeleteऔर त्रिवेणी कई बार पढ़ा और कई नए अर्थ जाने.
बहुत बढ़िया.
एक रोज़ उग आये थे कुछ लम्हे
ReplyDeleteखुद ब खुद हथेलियों पर मेरी ,
चाहत की नमी ,
अहसास की गरमी ने पाला था उन्हें ,
और पलकों ने दिया था साया ,
wah ji alpna ji behatrin
बहुत सुंदर रचना....
ReplyDeleteiisanuii.blogspot.com
Good one..
ReplyDeleteछोटी लेकिन बेहद सशक्त अभिव्यक्ति---
ReplyDeleteगहरी बात कह गये इतने कम में ।
ReplyDeleteAapke blog ka bhraman kiya ...saffer achha raha....Achha keh leti haiN aap....Khush rahiye...likhte rahiye
ReplyDeleteHarash
bahut achcha likhin hain.
ReplyDeleteरेखायें खुदगर्ज हो गयीं- वाह!
ReplyDeletebht sundar likha hai alpana ji
ReplyDeletemind blowing !
gahra aarth jhalak raha hai ....
really nice...
रेखायें कितनी ख़ुदगरज़ होती हैं । सुन्दर अभिव्यक्ति। बधाई।
ReplyDelete