जब भी खुद से रूबरू होने का दिल करता है,घर की छत पर जाती हूँ ,टहलती हूँ ......छत से देखूं तो एक तरफ दौड़ती भागती सड़कें दिखती हैं और दूसरी ओर है कब्रिस्तान.छत से वहाँ मुझे सिर्फ बहुत से पत्थर दिखाई देते हैं जो स्मृति चिन्ह जैसे लगाये हुए हैं.सब से बेखबर रूहें चैन से सो रही है जैसे सब कुछ ठहरा हुआ है वहीँ दूसरी तरफ ज़िन्दगी अपने पूरे जोश में दौड़ भाग रही है, सिग्नल लाल होता है तो दम भरती है ,ठहर जाती है..हरा सिग्नल होते ही फिर दौड शुरू मंज़िल की ओर!
खुले आकाश के नीचे ,खासकर रात के अँधेरे में इन्हें देखना मुझे कोईभी डर नहीं देता बल्कि विपरीत दिशा में बने इस विरोधाभास को देखना और खुद को इस के बीचों बीच खड़े पाना अजीब से अहसास देता है .जिसमें शायद सुकून अधिक है ,इस बात का कि मैं न तो उस दौड़ में शामिल हूँ न ही उस ठहराव में! “ऐसे ही एक दिन अचानक वक़्त मेरे सामने बाईस्कोप ले कर आ पहुंचा.थोड़ा हिचकिचाती हूँ क्योंकि वह बाईस्कोप दिखाने के लिए पैसे या कटोरा भर अनाज नहीं लेता ,एवज़ में वह मांगता है मेरी आँखों से गिरती कुछ बूँदें! ये वक़्त इतना निष्ठुर क्यूँ है?” बाईस्कोप’ में झांकती हूँ तो देखती हूँ एक लड़की शायद कक्षा ७ में रही होगी,फ्राक पहने हुए है, बस से उतरी है,नहर के किनारे -किनारे पगडण्डी से यहाँ -वहाँ देखते हुए चली जा रही है.आते-जाते लोग उस से मिल रहे हैं प्यार से पूछ रहे हैं 'स्कूल ख़तम हो गए?दादी के पास आई हो?अकेली आई हो?और न आया कोई साथ में? कुछ दिन रूक कर जाएगी? सब का जवाब ‘हाँ /न’ में देती हुई आगे बढ़ रही है.नहर और खेत के बीच बना है यह रास्ता.
वह स्कूल के बाद गर्मियों की छुट्टियों में शहर से गाँव जा रही है.उसे गाँव से बहुत मोह है तभी अकेली दादी के पास रहने चली आई.गाँव में दाखिल होते ही घरों के बीच - बीच से अपनी दादी के घर पहुंची.दादी को पहले ही ख़बर थी ,सुबह दूधवाले के हाथ संदेस मिल गया था.उसके पापा ने ग्वाले के हाथ एक दिन पहले भिजवाया था.[ ये दूधवाला गाँव से दूध इकट्ठा कर के शहर बेचता था रोज़ तड़के उस का यही काम था,उसके ज़रिये यहाँ वहाँ सन्देश लाने ले जाने का काम भी हो जाता था.]
दादी ने स्नेह भरे हाथों से सर सहलाया ,प्यार किया.और पूछा 'बस में परेशानी तो न हुई'..उस ने ‘न’ कहते सर हिला दिया. दादी से छाछ ले कर पिया ही था कि देखा आस पास घरों से उसकी मित्र मंडली भी वहाँ पहुंची हुई है.अब वह मित्र मंडली के साथ बातों में मस्त हो गयी है.शायद आते ही किसी खुराफाती कार्यक्रम का प्लान तैयार हो रहा है! घर की मुंडेरों से कूदते बच्चे इस घर से उस घर टापते हुए,हेंडपंप,बम्बे के पानी में तैरती मछलियाँ ,हरे भरे खेत,गाय-भैंसे ,कुट्टी काटने की आवाज़,दही बिलोती ताई,सिलबट्टे पर हल्दी - लहसुन पिसती भाभी,चूल्हे पर बनती गिले हाथ की नमकीन रोटी की महक ,दादी की रसोई में चूल्हे के पास ओट्ता दूध ,आम के बाग़ और उन पर तोते के खाए आम ढूँढना और गुलेल!..... ' जाने क्या क्या देख रही हूँ वहाँ....'
'मम्मा आप अभी तक यहाँ हो?' बेटे की आवाज़ ने चौंका दिया. मुड़कर उसे देखा और कहा 'हाँ ,अभी नीचे आती हूँ.' और इस के साथ ही वक़्त भी अपने बाईस्कोप समेत कहीं गायब हो गया. सीढ़ियों से उतरते हुए रोशनी में बेटे ने मुझे देखा और पूछा'आर यू क्रायींग ?[क्या आप रो रहे हो?]. मैं ने जवाब दिया..बस ऐसे ही…इंडिया में स्कूलों की छुट्टियाँ शुरू हो गयी हैं न ,बस कुछ पुराने दिन याद आ गये. बेटे ने याद दिलाया ‘पापा तो कहते हैं न आप अकेले हो आओ एक वीक के लिए?’ ..फ़िर चले जाओ?' ‘हाँ जाऊँगी’..कह तो देती हूँ लेकिन जानती हूँ अकेली नहीं जा पा पाऊँगी.कुछ साल पहले अकेले गयी थी तो एक चाची जी ने टोक दिया था ‘अगली बार आना तो जोड़े से आना’ किसी को क्या कहूँ कि यह बात आज तक दिल में बैठी हुई है.
सीढियां ख़तम हुईं ,दरवाजे तक पहुँचने तक मन संयत हो चुका था. |
बहुत संवेदनशील भाव समेटे हुये...
ReplyDeleteअल्पना जी,
ReplyDeleteकैसे दिन आ गये हैं कि आज अकेले नहीं चल सकती। वक्त का बायस्कोप उदास कर गया।
बेहद भावुक कर गयी ये पोस्ट, सच है वक़्त ना जाने किस मोड़ पर क्या याद दिला जाये और ऑंखें नाम कर जाये. और ये बचपन की यादे मासूम सी कभी पीछा नहीं छोडती . दिल छोटा न करे , आप जल्द ही जोड़े के साथ भारत आयेंगे. और हाँ अपना वादा भी याद रखना ...हमसे मिलने का.
ReplyDeleteregards
अल्पना जी बहुत भावुक कर दिया आपने,जिन्दगी में क्या कुछ देखना पड़ता है सहना पड़ता है. कभी मन मर कर कभी हंसी ख़ुशी सब ऐसे ही जीते हैं .हम अपने देश में रह कर भी ऐसे ही जी रहे हैं सो मन छोटा न करें '"जेही विधि रखे राम, तेही विधि रहिये"
ReplyDeletereally emotional....
ReplyDeleteबचपन में खोना अच्छा लगता है ।
ReplyDeletebhavnaye bhi kitani azeeb hoti he, kitana srajnaatmk kaary karaati he.../ smratiyaa jab bhi shabdo me utarati he yaa to khilkhilaa uthati he yaa fir ruaasaa kar jaati he.., vaqt ka thahraav hi he jo hame apni zameen se jode hue he.
ReplyDeleteये क्या, इतनी संवेदना भर दी आपने आज की मुलाक़ात में की मैं भी ठहर सा गया. सचमुच आंसू छलक आते हैं.
ReplyDeleteमुझे पता है आप हमेशा भारत को महसूस करती तो हैं लेकिन वो सुकून यहाँ आकर भी नहीं मिल पाता. नियमित आपसे (ब्लॉग से) जुड़कर इतना तो पता है. और यही दुःख आपको सालता रहता है. अगली बार आयें तो सिर्फ अपने गाँव-परिवार और रिश्तेदारों से ही हर ख़ुशी की उम्मीद न करें. यदि पर्यटन का शौक है तो यहाँ "दार्जिलिंग" घूम आयें. नए लोग, नया अनुभव नयी ताजगी भर देता है.
पुरानी यादें तो सिर्फ एक बड़े से संदूक में अच्छे से संभाल कर रखी गयी कोई कीमती सिक्के की तरह होती है. जिसे कभी कभी दो घडी के लिए खोलकर देखकर फिर आपको वही रखना पड़ता है.
अल्पना जी, वक़्त के साथ मैं आपके करीब पहुँच गई हूँ, मोतियों को समेट लिया है...
ReplyDeleteगीत --- इसकी , चयन की कायल हूँ
पोस्ट और गीत दोनों आँखें भिगो दे रहे हैं...वक्त की मार से हम त्रस्त हैं वो किसी को नहीं छोड़ता...सब कुछ छीन लेता है धीरे धीरे...हर नया पाने के लिए पुराने की बलि देनी पड़ती है...ऐसा ही है ऐसा ही होता आया है होता रहेगा...
ReplyDeleteनीरज
संवेदनाओं के साथ ... बीते वक़्त की यादें ... भोले बचपन का एहसास .... अचानक ही इंसान खुद को खो देता है आज की चकाचोंध में .... खुद को ढूंढता है गुज़रे वक़्त में .... खोए हुए लम्हों को पकड़ना चाहता है मन ... कहीं अंदर तक जेला कर जाती है आपकी पोस्ट ....
ReplyDeleteक्या बोलूं.. खामोश हो गया हूं। क्या मैं आपकी कोई सहायता कर सकता हूं।
ReplyDelete@राजकुमार जी,
ReplyDeleteयह स्थिति तो हर ब्याहता की होती है.
-किसी न किसी कारण वश सब का एक साथ आना जाना नहीं हो पाता,,,
ऐसे में जब रिश्तेदार जाने अनजाने 'जोड़े में ही आने 'की शर्त रख देते हैं तो स्थिति भिन्न हो जाती है ...
संभवत जल्द ही हम सब के एक साथ आने का कार्यक्रम बने और सब से मिलना हो पाए.
--आप की शुभकामनाओं के लिए आभार.
Hi..
ReplyDeleteAankh sajal ho gayi hai meri..
Padhkar tera ye aalekh..
Gaon mujhe bhi yaad ho aaya..
Sang Biscope ko dekh..
Gaon ki wo sondhi khusboo..
Ab tak yaad hamen aati..
Maa ke haath paki chulhe pe..
Roti jo pakkar aati..
Etna na manuhar mila hai..
Na aisa fir pyaar mila hai..
Arth kamane jab se nikle..
Har pal hi mar mar ke jiya hai..
Dard mera na kah main paya..
Nahi kabhi bhi sah main paya..
Hui sajal jab bhi aankhen to..
Ashru ponch kar sada chhupaya..
Gaon sada hi yaad hai aaya..
Sajeev vivaran..
Haalanki main gana sun nahi paya par gana mere antar main
gunj raha hai.. Ek beti ki pukar.. Apne babul se.. Ah..
Meri salah maane ek baar punah apane pihar, naihar, nanihaal ho aayen
un chachion ki chinta bilcul bhi na karen..
Chand din ke liye hi sahi us kabrgaah aur us bhagti jindgi se door apne mahakte gaon ki amraai main kookti koyal ki aawaz sun aayen.. Jiski yaad ne hi aapki peeda se ashrudhara bah rahi hai..
Take Care..
DEEPAK..
Samay ho to Esi vishay par meri kavita "BACHPAN" mese blog par padhen..
www.deepakjyoti.blogspot.com
यूं किसी की बात का भी दिल पर क्या लगाना. जब जी चाहे जहां चाहे हो आना चाहिये. दुनिया बहुत छोटी हो गई है..
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना जी धन्यवाद
ReplyDeletebahut khoob...bhavuk rachna...
ReplyDeleteअल्पनाजी! अल्पनाजी!! अल्पनाजी !!!
ReplyDeleteकितनी संवेदनाएं भरी हैं आपमें ?
गीत पहले सुना … आंखें बंद करके …
"अब के बरस भेज भैया को बाबुल, सावन में लीजो बुलाय रे …"
कब आंसू गालों को छूने के लिए बाहर आ गए , गीत पूरा होने पर आंखें खोली तब भी पता नहीं चला ।
… "वक्त का बायस्कोप" पढ़ा तो गला भी रुंध गया । अरे ! इतनी ख़ुशियां बांटने वाली वही अल्पनाजी हैं या … ?!
सच्चा गुणी संवेदनशील होता ही है ! … और गुणी द्वारा प्रदत्त आनन्द का यह रूप भी होता है ।
न तो बधाई दे रहा हूं , न कुछ और कह रहा हूं
…बस यूं ही आनन्द के कुछ क्षणों से रूबरू हूं ,जिन्होंने बुत बना कर छोड़ दिया है … … …
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
कुछ पोस्टों को पढ कर दिल के अंदर सांय सांय सी होने लगती है , और शब्द साथ नहीं देते उन भावों को आप तक पहुंचाने में बिल्कुल ठीक वैसे जैसे आपने अपना समय बाईस्कोप से दिखा तो दिया मगर शायद वो दर्द आप ही महसूस कर सकती हैं , हम भी बहुत भावुक हो गए ।
ReplyDeleteअल्पना जी,
ReplyDeleteएक शायर कहते हैं-
यादे-माजी अजाब है या रब
छीन ले मुझसे हाफ़्ज़ा मेरा.
आपकी इस पोस्ट ने ऐसा ही माहौल बना दिया है. कुछ कहते नही बन पा रहा है.
एक बात तो है, ये यादें अनमोल दौलत भी होती है इन्सान के लिये...जो उम्र भर साथ रहती है.
सच !!!! वक्त का पहिया चलता ही रहता है रुकता कहाँ है ??? इस समय भारत मे छुट्टियों का मौसम तो है ही और ऐसे मे पीहर याद आता है भाई बहन याद आते हैं ...परिजन याद आते हैं पर समय कई सारी चीजें अपनी सुविधा अनुसार चलाता है ...आँखे भर आई ,भारत आने की कोशिश करिएगा हमारी शुभकामनाएं ।
ReplyDeleteहर स्त्री के भीतर एक लड़की होती है !!!!!
ReplyDeleteज़िन्दगी का बायोस्कोप रंग बिरंगा होता है..
ReplyDeleteइस पार और उस पार की दो दुनिया.. को देखना कितना सुकूनदायी हो सकता है.. ये आपके शब्दों से जाना..
ओहो!भावुक कर दिया आपने अल्पना जी.स्त्री कितने भी रूपों में समाज में व्यवहार करे परन्तु उसके भीतर एक संवेदनशील लड़की हमेशा जिंदा रहती है.अगर उसने बचपन भरपूर जिया है तो खुद को कभी भी उन यादों से अलग नहीं कर सकती.चाहे वह ३० साल की हो जाये या ७० साल की.
ReplyDeleteबहुत दिल से लिखती हैं आप.गीत भी लगता है इन्हीं भावों में डूबकर गाया है.मन भिगो दिया.
बहुत भावुक कर देने वाली पोस्ट है ,बचपन की यादों में यूँ खोना अच्छा लगता है कई बार और यह अजीब सा सकून देता है की हमने कुछ अच्छा जीया है पीछे ,जिसको शायद आज कल की जनरेशन महसूस न कर पाए ,गीत भी बहुत दिल से गाया है आपने ....और पहले की गयी तुलना सही में ज़िन्दगी का आईना दिखाती है
ReplyDeleteअजीब इतेफाक हैं मैं भी अपने बायोस्कोप से बीते दिनों को देख रहा था बस लिख नहीं पा रहा था| और आज आपकी पोस्ट पढ़ी तो और उदास हो गया| क्या कहूं ? .............. बचपन की यादे पूरे जीवन की यादो पर भारी पड़ती हैं ........... आपकी पोस्ट से मुझे नानी का गाँव याद गया और जब याद आता हैं उदास कर जाता हैं.......... और हाँ किसी की बात को इतना दिल से नहीं लगाया करते......दिल से लगी बाते उदास ही करती हैं बस ...........
ReplyDeleteयादें ऐसी ही होती हैं कभी हँसा जाती हैं कभी रूला जाती हैं ।वर्तमान परछाई छोड़ कर अतीत बन जाता है।पर हम वहीं रहते हैं अहसास के दायरे में सिमटे....
ReplyDeleteयादों में डूबने का भी आपका अंदाज़ एकदम अनोखा लगा ... अनुराग जी की छोटी सी टिप्पणी से सहमत कि हर औरत के अंदर एक बच्ची होती है ... और वो छत पर खड़ी बाइस्कोप में झांककर अक्सर रोती है.
ReplyDeleteविडम्बना ये कि जो बच्ची थी और अकेले ही दादी के यहाँ चली जाती थी ... वो अब ब्याहता होकर इतनी बड़ी होने पर भी अकेले नहीं जा सकती ...
अल्पना जी ,
ReplyDeleteसारी ब्याहता एक सा नियति लेकर पैदा हुई है क्या ? आप सात समदर पार हो यहाँ तो ३५० किलोमीटर का फासला है जो सात समंदर जैसा हो गया है, कारण वही जोड़े से आने की शर्त .
आपकी आँखों के कोरों में जो बूंदे छलकी थी वो अब मेरी आँखों में छलक उठी है इससे तो बिना ब्याहे अच्छे थे
जब मन भर आये तो शब्द बिलकुल भी साथ नहीं देते...क्या कहूँ.....
ReplyDeleteशायद इसीलिए कहा गया है कि जीवन चलने का नाम....
ReplyDeleteकैसे लिखेगें प्रेमपत्र 72 साल के भूखे प्रहलाद जानी।
बेहतरीन पोस्ट,एक आर्ष वाणी में कहा गया है कि" समय नहीं गुजरता -हम गुजर जाते है".
ReplyDeleteवक्त का बाइस्कोप
ReplyDeleteजिंदगी की राहें कितनी भी घुमावदार और उलझाऊ क्यों न हों हर मोड़ पर एक पगडंडी मिलती है जो हमें वापस उन्ही गलियों की ओर ले जाती है जहाँ से हमने सफ़र शुरू किया होता है..मगर फिर भी हमारे बेचैन कदम बस ठिठक कर रह जाते हैं...यह भी खुशकिस्मती की बात होती है कि आपने एक अच्छा बचपन जिया है..जिसकी मधुर स्मृतियाँ अभी तक सहेज कर रखी हैं...
बड़ी भावनात्मक सी पोस्ट!!
पुनह एक अच्छे लेख की प्रस्तुति. धन्यवाद और आभार.
ReplyDeleteसंवेदना सदैव बनी रहनी चाहिये.... ये भी जीने का सहारा है अल्पना जी.... बहरहाल शुभकामनाएं... अब की बार आप जोड़े से ही आएं...
ReplyDeleteबाईस्कोप’ में झांकती हूँ तो देखती हूँ एक लड़की शायद कक्षा ७ में रही होगी,फ्राक पहने हुए है, बस से उतरी है,नहर के किनारे -किनारे पगडण्डी से यहाँ -वहाँ देखते हुए चली जा रही है.आते-जाते लोग उस से मिल रहे हैं प्यार से पूछ रहे हैं 'स्कूल ख़तम हो गए?दादी के पास आई हो?अकेली आई हो?और न आया कोई साथ में? कुछ दिन रूक कर जाएगी? सब का जवाब ‘हाँ /न’ में देती हुई आगे बढ़ रही है.नहर और खेत के बीच बना है यह रास्ता.
ReplyDeleteकितना आत्मीय और कल्पनाशील भावबोध है आपका। शब्द की चयनशैली में डूब जाने की शक्ति है.. यादों के गहरें नीले जल में ऐसे ही उतरा जाता है ..क्योंकि सीढियां वहां नहीं होतीं..
अल्पना जी!आपने अपने प्रोफाइल में जो चित्र लगाया हे वह आज समझ में स्पष्ट तौर पर आया ..कोई वही बाइसकोप वाली लड़की अपने पैरों में आलता लगाकर झूम रही है और जैसे आकाशगंगा में डाल रही है अल्पना...
बचपन की यादों में यूँ खोना अच्छा लगता है
ReplyDeleteबेहद भावुक
deepak
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ज़िन्दगी अपने पूरे जोश में दौड़ भाग रही है,..हरा सिग्नल होते ही फिर दौड शुरू मंज़िल की ओर!
ReplyDeleteDaud to hai par nirudeshya!Kahan ja rahe hain hum?
sundar post.
अल्पनाजी
ReplyDeleteआपतो हमे भी साथ ले गई उन कसकती यादो में सच कितने सुनहरे थे वे दिन .और गीत ने तो जैसे निशब्द ही कर दिया |
मै कभी भी ये गीत पूरा नहीं गा पाती आंखे गाने ही नहीं देती |
मेरी फरमाइश अभी भी बाकि है
ओ सजना बरखा बहार आई
अंखियो में प्यार लाई
और हाँ गर्मी तो है ????
!
ReplyDeleteye rang bha gaye ! :)
ReplyDeleteAlpana jee, kaise aap log apne man ke bhawon ko itna sundar roop de paate hain............:)
ReplyDeletekashh ham bhi kuchh seekh paate.....
bahut sundar, aur marmik rachna!!
dil ko chhu jane wali rachna...
ReplyDeletekitni bar sochata hu ki aisa kaisa likha jata hai.kosis krta hu aap aise hi haosala badhate rahe.
thanx for commenting on my post "Unhe kaise manau".
भाव पूर्ण अभिव्यक्ति....आपके ब्लॉग पर पहली बार आई और इस वक्त के बाइस्कोप ने बहुत कुछ याद दिला दिया...
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteआपका बाइस्कोप आज दुबारा देखा, और फिर तारीफ किए बिना न रहा गया। वाकई बहुत शानदार है आपका बाईस्कोप।
ReplyDelete--------
क्या हमें ब्लॉग संरक्षक की ज़रूरत है?
नारीवाद के विरोध में खाप पंचायतों का वैज्ञानिक अस्त्र।
आज दैनिक जनसत्ता दिनांक 22 मई 2010 के संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में आपकी यह पोस्ट वक्त का बाइस्कोप शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई। स्कैनबिम्ब आप यहां पर देख सकती हैं http://blogonprint.blogspot.com/2010/05/blog-post_22.html
ReplyDeleteआज दैनिक जनसत्ता दिनांक 22 मई 2010 के संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में आपकी यह पोस्ट वक्त का बाइस्कोप शीर्षक से प्रकाशित हुई है, वहीं पढ़ा और उसके बाद आपके बलॉग पर आया...बहुत अच्छी पोस्ट है.....
ReplyDeleteis post ko padha kar turant koi pratikriya nahi nikali...kuch der tak inhi shabdo inhi ahsaso me khoyi rah gyi...na jaane kya jaadu hai aapki lekhni me...ya aapme!
ReplyDeleteRegards,
shubham.
बहुत ही खूबसूरत अंदाज में ये पीडा अभिव्यक्त की है.शायद ये हर नारी पर लागू होती है. यूं लगता है इस पोस्ट मे एक सहज नारी मन अभिव्यक्त हुआ है.
ReplyDeleteइससे इतर वो गांव की यादे, वो कच्चे आम, छाछ और दादी मां का सरल स्नेह....ये बाईसकोप दिखाकर आप कितना पीछे लौटा लेगई पाठकों को. आपकी कुछ अदभुत पोस्टों मे इसका शुमार होगा.
बहुत शुभकामानाएं.
रामराम.
संवेदना पूर्ण, भावपूर्ण सुगंधित लेखन !
ReplyDeleteकहाँ-कहाँ नहीं पहुँचे !
आभार ।
बायास्स्कोप वाला अब नज़र नहीं आता ......इस नयी सदी में गुम हो गया है ...अपने साथ कितने छोटे बड़े सपनो की दुनिया लेकर.....उस छोटे से डब्बे में बंद......शायद वक़्त भी इस तरह ही है .......क्यूंकि नोस्टेल्जिया भी यतार्थ से टकराकर जब वापस लौटता है ...दुःख देता है ......
ReplyDeleteपर आपके दिल से निकली ये आवाजे जरूर दिल तक जा रही है .
उफ! ये हथेलियां..अल्पना जी !! कितना कुछ मेंहदी सा रचा रखा है आपने..ये हथेलियां उर्वर और उपजाऊ हैं..एक पूरी पत्रिका है आपका ब्लाग...कविता, त्रिवेणी ,गीत और कथाएं...
ReplyDeleteवाकई बहुत सुन्दर
सुन्दर,संवेदनशील पोस्ट।
ReplyDeleteचाची के कहने का मतलब यह थोड़ी है कि अकेले आना ही मत। जोड़ीदार के साथ आने का सहज आग्रह है।
bachpan pyara hota hai:)
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