१-तेरी चाहत ने
रिहा किया न मुझे,
यूं,
अपनी पहचान
खो रही हूँ मैं.
--------------------
२-संकरी हो गयी
कुछ इस क़दर,
पगडंडियाँ जीवन की ,
हर मोड़ पर,
ख़ुद से
टकरा जाती हूँ मैं!
-----------------------
३-वरक दर वरक ,
लिखती रही दास्ताँ मैं रात भर,
सुबह,
हर पन्ने पर तेरा ही नाम था!!
--------------------
4-यूं तो -
परत दर परत
खुलने लगी थी मैं,
ये उसकी कमनसीबी
जो बेखबर रहा!
[अल्पना वर्मा द्वारा लिखित.]
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सुन्दर!
ReplyDeleteन ! ये शब्द भटके हुए कहाँ हैं ?
ReplyDeleteये तो अपनी मंजिल की ओर रवां हैं
लेकिन .... भटकन मंजिल से जुदा कहाँ है ??
This comment has been removed by a blog administrator.
ReplyDeleteवरक दर वरक ,
ReplyDeleteलिखती रही दास्ताँ मैं रात भर,
सुबह,
हर पन्ने पर तेरा ही नाम था!!
vah alpna ji....bahut khoob.
वरक दर वरक ,
ReplyDeleteलिखती रही दास्ताँ मैं रात भर,
सुबह,
हर पन्ने पर तेरा ही नाम था!!
bahut barhiya
वरक दर वरक ,
ReplyDeleteलिखती रही दास्ताँ मैं रात भर,
सुबह,
हर पन्ने पर तेरा ही नाम था!!
bahut barhiya
वरक दर वरक ,
ReplyDeleteलिखती रही दास्ताँ मैं रात भर,
सुबह,
हर पन्ने पर तेरा ही नाम था!!
bahut barhiya
bahut khoob, lekhnee mein dum hai.
ReplyDeletecharo kavita bemisal hai, saalon bad itni kubsoorat rachna parhi hai.
ReplyDeleteMera pas shab nahi hai... aschrya hai log abhi bhi aiesa likh paate hain
वरक दर वरक ,
ReplyDeleteलिखती रही दास्ताँ मैं रात भर,
सुबह,
हर पन्ने पर तेरा ही नाम था!!
bahut hi sundar hai,jaise man ki aaj ho,awesome.
"संकरी हो गयी
ReplyDeleteकुछ इस क़दर,
पगडंडियाँ जीवन की ,
हर मोड़ पर,
ख़ुद से
टकरा जाती हूँ मैं!"
बहुत ही सुन्दर , अपनी -सी लगी ये पंक्तियाँ ....
shabd ...
ReplyDeleteअच्छी क्षणिकायें हैं।
ReplyDeleteवरक दर वरक ,
ReplyDeleteलिखती रही दास्ताँ मैं रात भर,
सुबह,
हर पन्ने पर तेरा ही नाम था!!
sach me bahut sunder
बधाई..
ReplyDeletekavi.kulwant@gmail.com
वरक दर वरक ,
ReplyDeleteलिखती रही दास्ताँ मैं रात भर,
सुबह,
हर पन्ने पर तेरा ही नाम था!!
वाह ! बहुत ही सुंदर अभिबयक्ति क्या बात है..
'संकरी हो गयीं कुछ इस कदर पगडंडियां जीवन की
ReplyDeleteहर मोड़ पर खुद से टकरा जाती हूं मैं।'
इससे बेहतर भला और क्या बात होगी,
पलायन का ख्याल जो आया दिल में
खुद से ही मुलाकात होगी।
जीवन में जब तक आदमी खुद से मिलता रहता है वह आदमी बना रहता है। बहुत प्यारी लगीं आपकी ये क्षणिकाएं।
'संकरी हो गयीं कुछ इस कदर पगडंडियां जीवन की
ReplyDeleteहर मोड़ पर खुद से टकरा जाती हूं मैं।'
इससे बेहतर भला और क्या बात होगी,
पलायन का ख्याल जो आया दिल में
खुद से ही मुलाकात होगी।
जीवन में जब तक आदमी खुद से मिलता रहता है वह आदमी बना रहता है। बहुत प्यारी लगीं आपकी ये क्षणिकाएं।
बहुत ही सुन्दर कवितायें हैं.
ReplyDeleteबधाई!