इसी नतीजे पे पहुँचते हैं सभी आखिर में,
हासिल ए सैर ए जहाँ कुछ नहीं हैरानी है . --------------------------------- जुस्तजू जिसकी थी उसको तो न पाया हमने इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हमने ---------------------------------- शाम होते ही खुली सड़कों की याद आती है सोचता रोज़ हूं मैं घर से नहीं निकलूंगा ------------------------------------- सबका अहवाल वही है जो हमारा है आज ये अलग बात है शिकवा किया तन्हा हमने ---शहरयार---- |
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इन पंक्तियों के लिखने वाले मशहूर शायर शहरयार साहब थे. इन शेरों को पढ़ कर उनकी छवि एक संवेदनशील शायर के रूप में दिमाग में बन जाती है और इन्हीं पंक्तियों के लिखने वाले के बारे में जब कोई ऐसा बयान आता है जो इस छवि के विपरीत हो..जैसा कि उनकी पत्नी ने उनके मरणोपरांत दिया था. कोई भी यकीन नहीं कर पाता .
यह भी काफी हद तक सच है कि एक स्त्री जो कई साल अपने पति के साथ रही है वह उस के मरने के बाद उसके लिए गलत नहीं बोल सकती.
बहुत सी आलोचनाएं हुई /बहस हुईं........क्या किसी ने सोचा कि यह सब दोषारोपण अगर सच है तो फिर ऐसा कारण क्या रहा जो उन्होंने ऐसा कथित बर्ताव अपने घरवालों के साथ किया जो उनकी 'संवेदनशील शायर 'की पहचान से मेल नहीं खाता है.
Picture by Steven Wilson |
देखा जाए तो हम में से बहुत से लोग ऐसे हैं जिनका दोहरा व्यक्तिव है मगर कोई इस बात को स्वीकार नहीं करेगा क्योंकि हम खुद नहीं जानते कि किस हद तक हम इस की छाया में आ चुके हैं.
खासकर कला और साहित्य के क्षेत्र से जुड़े लोग या बेहद संवेदनशील लोग इस रोग के शिकार आसानी से हो सकते हैं.
विस्तार में इस रोग के बारे में फिर कभी लिखूंगी लेकिन फिलहाल यही सोचती हूँ कि हम में से बहुत से लोग ऐसे हैं जो जाने -अनजाने समान्तर दो अलग -अलग ज़िंदगियाँ जीते चले जाते हैं ,वह भी अक्सर विपरीत स्वाभाव वाली ज़िंदगियाँ!
जब तक कोई बड़ी समस्या नहीं आती हमें खुद मालूम नहीं चलता कि हम कहाँ और कैसे चल रहे हैं? या दोहरा व्यक्तित्व रखते हैं और मैं 'मैं' के साथ नहीं 'हम ' बन कर जीता है एक ही शरीर में !
अद्भुत है यह बिमारी, और सही भी है बिमार स्वयं नहीं जान सकता कि वह उसका शिकार है। उच्च बौद्धिक स्तर के लोगों में अगर यह आम है तो लोग प्रायः स्वभाव का सनकीपन मानकर किनारा करते है। और वह स्वयं लोगो को हीन मानकर दूर होता चला जाता है।
ReplyDeleteएक दम सही कहा....
ReplyDeleteसिर्फ लेखन ही नहीं तकरीबन हर इंसान एक ,दो नहीं कई पहचान लिए चलता है....
जो बिलकुल जुदा होतीं है एक दूसरे से..
उत्तम लेखन..
बढ़िया प्रस्तुति |
ReplyDeleteनव वर्ष मंगलमय हो ||
Alpana ji,apne ek bahut hi gambhir par am samasya ko bahut sahajta se prastut kiya hai....
ReplyDeleteHemant Kumar
उनकी पत्नी काफी पढ़ी लिखी थीं, और उन्होंने एक साक्षात्कार में यह भी कहा कि शायद शहरयार साहब के ऊपर किसी ने कुछ करा दिया था.
ReplyDeleteइस से भी उनकी हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है.
वैसे प्रतिभा का होना और व्यक्तिगत हालातों में कोई साम्य नहीं है. प्रतिभा एक अलग चीज है और व्यक्तिगत रिश्ते निहायत अलग.
..नहीं जानता कि शहरयार साब के बारे में ,उनके जीवन के बारे में उनकी पत्नी ने क्या कहा था,पर इतना ज़रूर मानता हूँ कि कवि,शेयर या लेखक जो लिखता है,सोचता है,वैसा ही उसे होना भी चाहिए.
ReplyDeleteहमारी जिंदगी दोहरे-रूपों में होती है कई बार लेकिन मूल सिद्धांत एकदम उलट-पलट नहीं होने चाहिए !
मैं खुद क्या कहूं जो ऐसी ही किसी किसी हालात में मुब्तिला हूँ :)
ReplyDeleteशहरयार ने अपनी पत्नी मन -निकासी कर दी थी ....फिर कभी पास नहीं गए !
रहिमन कड़वे मुखन को चहियत यही सजाय !
घर में खाते डांट नित, भीगी बिल्ली जान ।
ReplyDeleteबेगम के सम्मुख गई, बुद्धि भूल पहचान ।
बुद्धि भूल पहचान, मंच पर अकड़ दिखाते ।
दोहरा जीवन मान, भले इल्जाम लगाते ।
रविकर बाहर मस्त, अगर थोडा मुस्काते ।
हो दुनिया को कष्ट, डांट क्यूँ घर में खाते ।।
रविकर बाहर मस्त, अगर थोडा मुस्काते ।
ReplyDeleteहो दुनिया को कष्ट, डांट ना बाहर खाते ।।
सचमुश ऐसा ही होता है अल्पना जी. सुन्दर ग़ज़ल पढवाने के लिये आभार.
ReplyDeleteआ0 अल्पना जी
ReplyDeleteआप का प्रयास सराहनीय है मगर एक बात कहनी है
" कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कभी ज़मीं तो कभी आसमाँ नहीं मिलता "---
यह शे’र जनाब ’निदा फ़ाज़ली" साहेब का है..."शहरयार " साहब का नहीं ।
यह बात दीगर है कि दोनो ही आला मर्तबा के शायर हैं
सादर
आनन्द.पाठक
ReplyDelete♥
बहुत हट कर लिखा है आपने
# कला और साहित्य के क्षेत्र से जुड़े लोग या बेहद संवेदनशील लोग इस रोग के शिकार आसानी से हो सकते हैं.
अरे बाबा रे ...!
:)
आदरणीया अल्पना जी
आप कहती हैं - हम में से बहुत से लोग ऐसे हैं जिनका दोहरा व्यक्तिव है मगर कोई इस बात को स्वीकार नहीं करेगा
Dissociative identity disorder नामक इस रोग का तो डर लग रहा है ...
:(
अब तो विस्तृत जानकारी वाली आपकी पोस्ट का इंतजार रहेगा ...
~*~नवरात्रि और नव संवत्सर की बधाइयां शुभकामनाएं !~*~
शुभकामनाओं-मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार
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ReplyDelete♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
नव संवत् का रवि नवल, दे स्नेहिल संस्पर्श !
पल प्रतिपल हो हर्षमय, पथ पथ पर उत्कर्ष !!
-राजेन्द्र स्वर्णकार
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*चैत्र नवरात्रि और नव संवत २०६९ की हार्दिक बधाई !*
*शुभकामनाएं !*
*मंगलकामनाएं !*
सहमत, बहुधा आदर्श लेखनी के बवाले हो जाता है।
ReplyDeleteसंवत 2069 विक्रमी आप सब को सपरिवार शुभ एवं मंगलमय हो।
ReplyDeleteपिछले दिनों अचानक फेसबुक पर दिमाग में उठी लहर ने एक पंक्ति उधृत की थी कि- 'मै' अकेला होता है...'हम' में भी एक 'मै; होता है और वो नितांत अकेला होता है.." आज आपके ब्लॉग पर कुछ इसी अंदाज़ का लेखन पढ़ा ...
ReplyDeleteदोहरी जिन्दगी चिपकी होती है..हर एक के तन से ..मानता हूँ मै...दिमाग इस दोहरे पन को अपनी बुद्धि अनुसार छानता है..जीवन में कितने छन जाया करते है हम..अपने मूल 'मै' को भी कही इतना घिस लेते है ..कि बेचारा महीन हो जर्जर जाता है .., आवरण पर आवरण ...
आपसी रिश्ते, आपसी व्यवहार, संवेदनशीलता और किसी भी प्रतिभा का होना ... या कला का होना ... ये सब अलग अलग बातें हैं मुझे ऐसा लगता है ... जहाँ तक इस बिमारी की बात है कई बार जाने अनजाने भी ऐसा हो सकता है ... एक व्यक्ति के दो व्यक्तित्व हो सकते हैं ... पर अगर ये किसी को नुक्सान नहीं देते तो सब जायज है ...
ReplyDeleteसंवेदन शील विषय पर उतना ही संवेदनशील चिंतन...
ReplyDeleteप्रस्तुत कलाम में कन्फ्युसन है शायद...
इसके शायर शहरयार साहब का न होकर जनाब निदा फाजली साहब हैं... ।
Movie: Ahista Ahista
Year: 1981
Singer: Bhupinder Singh
Music: Khayyam
Lyrics: Nida Fazli
सादर।
हर आदमी मुखौटा लगाये घूम रहा है, शायर भी इससे अछूते तो नही ।
ReplyDelete@आनंद पाठक जी,आप ने जिस त्रुटि की ओर ध्यान दिलाया उस के लिए धन्यवाद.
ReplyDeleteअपेक्षित सुधार कर दिया गया है.
पिछले दिनों अंतर्जाल से दूर थी इसलिए देर से प्रतिक्रिया दे पा रही हूँ इसके लिए क्षमा चाहती हूँ.
Achha!!...aisa bhi hai koi rog?...yun to dohra vyaktitv kafi log rakhte hain.....par ye vyakti-dar-vyakti badalta rahta hai.. Aapke vistrut lekh ki pratiksha rahegi...
ReplyDeleteEn dohre vyaktitv valon ke liye urz hai....
Chehre pe mukhota liya, ya,... ye hi asal hai...
Dekhi nahi khushiyan, ya koi gam dikha vahan...
सुन्दर रचना!
ReplyDeleteनवसम्वतसर की हार्दिक शुभकामनाएँ!
यह तो सच है ....
ReplyDeleteआभार बढ़िया पोस्ट के लिए !
is beemari ke bishay me koi jaankari nahi thee...gyanvardhak lekh..sadar badhayee aaur apni nayee post par aapke amantran ke sath...aapke gaaye geet bhee sune ..kya aap ham logon ke ghazlon ko khobsurat see dhun de sakti hain..
ReplyDeleteBILKUL SAHI BAT LIKHI APNE ....ASANTUSHTI MANAV PRAVRITTI BN CHUKI HAI ....HR JAGAH LOG DOHRA JEEVAN JEE RAHE HAIN ...AISA LAGATA HAI YH BEEMARI NAHI BALKI PRAKRITI PRADTT MANVEEY PAHCHAN BN CHUKI HAI...
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