स्वदेश वापसी /दुबई से दिल्ली-'वन्दे भारत मिशन' Repatriation Flight from UAE to India

'वन्दे भारत मिशन' के तहत  स्वदेश  वापसी   Covid 19 के कारण असामान्य परिस्थितियाँ/दुबई से दिल्ली-Evacuation Flight Air India मई ,...

February 16, 2010

होती ही क्यूँ हैं अपेक्षाएँ?




हाल ही में प्रेम दिवस पर श्री शरद कोकस जी की एक कविता पढ़ी-उसके इस एक अंश से न जाने कितने विचार मन में उठने लगे.




बरसों बाद भी
खत्म नहीं होती अपेक्षाएँ
शुभकामनाओं की तरह अल्पजीवी नहीं होती अपेक्षाएँ
पलती रहती हैं
समय की आँच में
पकती रहती हैं

और कविता के अंत में अपनी 'पूर्व प्रेमिका [?]'से अपेक्षा भी ज़ाहिर कर भी देते हैं.
कविता में कुछ गलत नहीं कहा गया ,वह अच्छी थी मगर सोच रही थी कि अपेक्षाएं क्यूँ दीर्घजीवी होती हैं?रिश्ते की परिपक्वता के साथ साथ क्यूँ बढती चली जाती हैं क्यूँ समय की आंच में पकती रहती हैं?
दुनिया का क्या हर रिश्ता अपेक्षाओं के अधीन है?कौन सा रिश्ता अछूता है?क्यूँ हम इन रिश्तों की परवरिश बिना अपेक्षाओं के नहीं कर सकते ?

मैं अगर कहूँ कि 'चाहे थोड़ा प्यार करो ,मगर बिन तक़रार करो! तो क्या ग़लत कहा ?यह अपेक्षा नहीं मात्र एक इच्छा है! तक़रार /झगड़े/मन मुटाव क्या ये सब इन्हीं अपेक्षाओं के चलते नहीं होते?

'इच्छा 'और 'अपेक्षा 'में बहुत अंतर है.इसी को श्री कृष्ण गोपाल मिश्रा जी भगवद गीता के एक श्लोक का उदाहरण देते हुए समझाते हैं-


[इसकी पूरी व्याख्या आप उन्ही के ब्लॉग पर भी पढ़ सकते हैं]

अनपेक्षः शुचिर दक्षः उदासीनो गतव्यथः | सर्व आरंभ परित्त्यागी, यो मद भक्तः, मे प्रियः ||

इच्छा, जीवन का कारण है, और अपेक्षा मृत्यु का. इच्छा का बिना अपेक्षा के होना श्रेयस्कर है. एक आर्त (बीमार, असंतुष्ट, या दरिद्र) व्यक्ति की चेष्टा उसकी इच्छा के बिना संभव नहीं हो सकती. इसी तरह, एक चिकित्सक की अपनी इच्छा उसे दया, सलाह और औषधि के लिए विवश कर सकती है. इस तरह स्वतंत्र इच्छा-शक्ति, के मूल में श्रृद्धा और विश्वास स्थित होता है जो जीवन का एक मात्र आधार है. जबकि अपेक्षा एक व्यावसायिक (विषय युक्त) बंधन है, जो नियंत्रण पर आधारित होता है, और जिससे विश्वास का ह्रास होता है. अर्थात, विश्वास और अपेक्षा अलग अलग अर्थ रखते हैं. जिन पर विश्वास किया जा सकता है, उनसे अपेक्षा नहीं हो सकती. और जिनसे अपेक्षा होती है, उन पर विश्वास नहीं हो सकता.....contd...


सच ही कहा है जिन पर विश्वास किया जा सकता है उनसे अपेक्षा नहीं करनी चाहिये.क्योंकि जहाँ आप ने अपनी अपेक्षाएं बढ़ाईं वहीँ रिश्तों की बुनियाद कमज़ोर होने लगती है.

यह रिश्ता कोई भी हो..जब अपेक्षाएं पूरी नहीं होती तो कुंठाएं जनम लेती हैं और रिश्तों में कडुवाहट घुलने लगती है.रिश्तों को खत्म करने में इन्हीं का बहुत बड़ा योगदान होता है.
रिश्तों में इनको हावी न होने दें.क्या कोई भी आत्मीय सम्बन्ध अपेक्षा रहित नहीं हो सकता?
किसी से भी अधिक अपेक्षा करना उसे हतोत्साहित ही करता है और व्यक्ति में नकारात्मक उर्जा का प्रवाह अधिक होने लगता है.
और जब इनका बोझ उठाया नहीं जाता तो व्यकित विद्रोही बन जाता है...सामने वाले से ,समाज से और खुद अपने आप से भी!
हर रिश्ते को दीर्घजीवी और मजबूत बनाने के लिए अपेक्षाएं नहीं विश्वास की जरुरत है.

जानती हूँ यह सब कहने की बातें हैं ऐसा होना संभव ही नहीं,भगवान और भक्त का नाता भी इस से अछूता नहीं है.
बेसिकली हम सब स्वार्थी हैं और हर रिश्ते को स्वार्थ के तराजू में ही तोला करते हैं.इसीलिये निस्वार्थ प्रेम,समर्पण सब किताबों में अच्छा लगता है.



वास्तव में तो हम सब अपने Emotions को,Feelings को रिश्तों में इन्वेस्ट करते हैं और बस रखते हैं Never dying अपेक्षाएं!


.........................?

58 comments:

  1. अल्पना जी ...
    संजीदा विषय उठाया है आपने .. दरअसल इंसान के पास मन है, दिमाग़ है .. सोचने की शक्ति है पर सोच क्या नियंत्रित हो सकती है ..? शायद कोई योगी तो ऐसा कर भी ले पर मानव मन जो संबंधों, आशाओं, निराशाओं, अपेक्षाओं में जीता है .. उसके साथ तो ये संभव नही ... हाँ कुछ हद तक कम कर सकत है या उसको काबू में रखने की कोशिश कर सकता है ... शायद ये बात ही मानव को ईश्वर से जुदा करती है ...

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  2. क्या कहूँ अल्पना जी ....इस विषय पर मैं कुछ नहीं कह सकती ......कुछ कहने लगूंगी तो बहती चली जाउंगी .....!!

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  3. विषय को जिस ढंग से आपने विवेचित किया है न....बस क्या कहूँ...मन मोह लिया आपने....
    पूर्णतः सहमत हूँ ...इच्छाएं जीवन दायिनी हैं और अपेक्षाएं समबन्धों की संहारक...

    समबन्धों में अपेक्षाएं एक प्रकार से बनियागीरी है,जिसमे नाप तोल का बराबर हिसाब रखा जाता है...और प्रेम में हिसाब किताब नहीं चलता....केवल और केवल समर्पण चलता है...

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  4. अपेक्षाओं पर किसी के खरा न उतरने पर दुःख तो होता है, पर प्यार जैसे रिश्ते में तो अपेक्षा होती ही है. थोड़ी बहुत अपेक्षा तो ज़रूरी भी होती है, किसी भी रिश्ते में गर्मी बनाये रखने के लिये, पर आवश्यकता से अधिक अपेक्षाएँ निश्चय ही कुंठाओं को जन्म देती हैं. व्यक्तिगत रूप से मैं जब भी किसी से अपेक्षा करती हूँ, दुःखी होना पड़ता है, पर फिर भी जी नहीं मानता.

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  5. चिन्तन-मंथन को करो, चिन्ता है बेकार!
    चिन्तन-मंथन छोडकर, दुखी हुआ संसार!

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  6. सही है अल्पाअ जी. अपेक्षाएं ही इन्सान को दुखी करती हैं. कितना अच्छा हो कि हम किसी से कोई उम्मीद ही न रखें. लेकिन क्या सम्भव है ऐसा?

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  7. बहुत ही उम्दा अभिव्यक्ति अल्पना जी!


    शुभ भाव

    राम कृष्ण गौतम "राम"

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  8. हर रिश्ता अपने साथ अपेक्षा ले कर आता है .जहाँ ज्यादा लगाव वहां उतनी ही ज्यादा अपेक्षा .....ओर औरत सबसे बड़ी इन्वेस्टर है .........सबसे बड़ा लोस भी उसी के खाते में दर्ज है

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  9. alpana ji , bahut sahi aur achcha likha hai aapne .........aur uspar bhagwadgeeta ka shlok vyakhya sahit.................sone par suhaaga. ek ek shabd sachai aur vastvikta se bhara hua............anubhav parilakshit hota hai.

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  10. अपेक्षायें खत्म हो जायेंगी तो शायद मनुष्य देवता हो जायेगा. मानवीय संवेदनाओं का एक बहुत महत्वपूर्ण अंग है अपेक्षा.

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  11. कोकस सही कहते हैं. लेकिन अपेक्षा न रखना मानवसुलभ प्रवृत्ति है ही कहां...हर दिल जो प्यार करेगा वो गाना गाएगा :)
    असंभव सा ही आम आदमी के लिए विरक्त होना.

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  12. This comment has been removed by the author.

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  13. अल्पना जी ! शरद जी की कविताओं ने मुझे भी यूँ ही विचलित किया .........हमें अपेक्षाओं की नही विश्वास की जरुरत है . रिश्तों की बुनियाद यदि निःस्वार्थ हो तभी दीर्घजीवी होगा वह रिश्ता ........,अनुराग जी ने लिखा की ''स्त्री रिश्तों में जिस तरह निवेश करती है उस तरह उसे मिलता नही '' इसके पीछे कारण जो भी हो पर तकलीफ तो दोनों ही भुगतते हैं .

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  14. digambar ji ki baate prabhit kar gayi ,aur aapki baate khyaalo me le gayi .jahan umeed wahi dar ,short cut me itna hi kahoongi .waise sabne kafi kah diya .

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  15. ''यह अपेक्षा नहीं मात्र एक इच्छा है! तक़रार /झगड़े/मन मुटाव क्या ये सब इन्हीं अपेक्षाओं के चलते नहीं होते?..''
    यह संवेदन शील प्रश्न है,मानव या यूँ कहिये हर संवेदन शील मानव इन्ही अपेक्षाओं के सहारे सहज रूप में अपना पूरा जीवन अर्पित कर देता है .
    श्री मद भगवद गीता के एक जिस श्लोक का उद्धरण आपनें दिया है वह तो वास्तव में ज्ञान-बोध का उत्कर्ष है,इसको आत्मसात करना ही श्रेयष्कर है .
    इसी लिए संपूर्ण श्री मद भगवद गीता में निर्लिप्त भाव से कर्म करनें की प्रेरणा का अंकन है.
    इस पर लिखूंगा तो मेरी टिप्पणी भी पोस्ट स्वरुप हो जायेगी .
    आपने बहुत यथार्थ-परक विषय पर लेखनी चलाई है,बढ़िया पोस्ट .

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  16. सुन्दर और सुचिंतित -अभी अभी मैंने एक स्वजन को यह लिखा -
    "महत्वाकांक्षी बनिए,अभिरुचियाँ ऊंच्ची रखिये (जैसे मेरी -हा हा ) मगर जीवन से ज्यादा अपेक्षाएं मत रखिये .प्रसन्न रहिये ."
    अपेक्षा किसे नहीं है और किन किन चीजों की नहीं है ?
    मगर सुखी वही है अपेक्षाओं से यथा संभव रहित है .
    आपके ब्लाग पर यह रस परिवर्तन भी बहुत भाया-हम स्थाई श्रोता हो जायं इस क्रम को अगर बनाये रखें !

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  17. डा. महेंद्र भटनागर जी की 'अपेक्षा' नाम से एक खूबसूरत कविता है :
    कोई तो हमें चाहे
    गाहे-ब-गाहे!
    .
    निपट सूनी
    अकेली ज़िन्दगी में,
    गहरे कूप में बरबस
    ढकेली ज़िन्दगी में,
    निष्ठुर घात-वार-प्रहार
    झेली ज़िन्दगी में,
    .
    कोई तो हमें चाहे,
    सराहे!
    .
    किसी की तो मिले
    शुभकामना
    सद्भावना!
    .
    अभिशाप झुलसे लोक में
    सर्वत्र छाये शोक में
    हमदर्द हो
    कोई
    कभी तो!
    .
    .
    कोई तो हमें चाहे
    भले,
    गाहे-ब-गाहे!


    रिश्तों के जाल में हर रिश्ते की अपनी अपेक्षा और हर अपेक्षा पर खरा उतरने की चुनौती। मौजूदा समय के भौतिकवादी माहौल ने लोगों की महत्वाकांक्षाओं और अपेक्षाओं को काफी बढ़ा दिया है। प्रत्येक रिश्ते में कुछ जायज अपेक्षाएँ रखना स्वाभाविक हैं, परंतु जब मन के भीतर अपेक्षाओं की इमारत खड़ी हो जाए तो उन्हें पूर्ण करना संभव नहीं हो पाता। खासकर तब, जब अपेक्षाएँ रखने वाला पक्ष स्वयं उन अपेक्षाओं की पूर्ति न करता हो। हमें नहीं भूलना चाहिए कि अधिकतम ख़ुशी तब होती है जब अपेक्षा न हो और आपके मन का कार्य पूरा हो जाए। मात्र अपेक्षाओं पर टिके संबंध खोखले होते हैं।

    हर रिश्ता प्यार के कोमल एहसास से बंधा होता है इसलिए हर रिश्ते का आदर करना जरूरी भी है और हमारा कर्तव्य भी है।

    चीन मे एक कहावत है कि इंसान का चरित्र बदलने से ज्यादा आशान है पहाड़ का स्वरूप बदलना. अतः बहुत ज्यादा अपेक्षाएं रखना सिर्फ़ निराशा ही दिलायेगा और हम अपनी जिंदगी से नाखुश हो जायेंगे... अतः हमे जरुरत से ज्यादा अपेक्षाएं नहीं रखनी चाहियें...

    शुभ कामनाएं

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  18. अब क्या कहे.... हम ने तो यही सवक लिया है किसी से कोई अपेक्षा रखो ही मत, बस दुनिया के सब से ज्यादा खुश बन जाओ..... लेकिन उस सवक लेने मै एक उम्र बीत जाती है. बहुत सुंदर लिखा धन्यवाद

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  19. बहुत ही सही लिखा है आपने.

    अपेक्षायें ही खुशियों के आडे आती हैं. हालांकि अपेक्षा ही प्रेम के ताने बाने का एक महत्वपुर्ण घटक है, मगर रेशम के कीडे जैसी गत होती है, इस जाल को अपने इर्द गिर्द इतना बुन लेने से.

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  20. आदरणीय अल्पना जी, यह लेख बहुत अच्छा लगा जो हमें कुछ सोचने ,समझने के लिये झकझोरता है.

    मेरे ख्याल से ईच्छा और अपेक्षा के बीच एक सेतु का होना आवश्यक है.

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  21. सटीक लेख....अपेक्षा छोड़ दें तो जिंदगी सुकून भरी हो जाये.....

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  22. शीर्षक पढ कर भागा चला आया और अपने काम के ढेर को एक तरफ पटक कर पहले पोस्ट पढी। बखूबी से आपने अपेक्षा के सन्दर्भ में बात कही। किंतु इस गूढ विषय पर संक्षिप्त में मैं भी कुछ कहना चाहूंगा। आपने जिन मिश्राजी द्वारा भगवत गीता के उक्त श्लोक व्याख्या का जिक्र किया उसमे मुझे खामी लग रही है, हो सकता है आपने उसका अर्थ न लिखा हो या उसे विस्तारित करने का प्रयत्न किया हो, या फिर यदि उस श्लोक का यही अर्थ लिखा गया है तो इसमे सुधार की आवश्यक्ता है।
    अध्याय 12 में यह 16 वें क्रम पर आया है और यह कुछ इस प्रकार का है कि-
    "अनपेक्ष: शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथ:।
    सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्त: स मे प्रिय:॥"
    अर्थात जो पुरुष आकांक्षा से रहित, बाहर-भीतर से शुद्ध, चतुर, पक्षपात से रहित और दुखों से छूटा हुआ है-वह सब आरम्भों का त्यागी मेरा भक्त मुझको प्रिय है।
    आपने जिस सन्दर्भ में इसका उदाहरण दिया वो उपयुक्त है किंतु इसके अर्थ की विशेषता जानने समझने योग्य है। इसे इस रूप में देखें कि इस श्लोक में कदाचित आपने सिर्फ 'अनपेक्ष' को ही केन्द्र बनाया है, जो यहां आकांक्षा या अपेक्षा से जोडा जा सकता है। अपेक्षा करना ही दुखों को बुलावा देना है। और जो इससे परे है वो तमाम दुखों से दूर है। रिश्तों में अपेक्षा का आना नैसर्गिक है। आप जब अपने से बाहर का सोचते है, दूसरे लोगों का सोचते हैं तो अपेक्षा जन्म लेती है। वो किसी भी प्रकार की हो सकती है। रिश्ता कैसा भी हो दूसरो से अपने लिये का एक बन्धन होता है। रिश्ता यानी बन्धन। स्वार्थ का घर। यहां अपेक्षाविहीन रहा ही नहीं जा सकता। यानी दुख स्वभाविक हैं। अपेक्षा अक्सर दुख देती है। क्योंकि आप दूसरों को अपनी तरह बना नहीं सकते, उनसे की गई अपेक्षा सिवाय दुख देने के और कुछ नहीं होती। इसलिये मेरा मानना है कि जीवन में अपेक्षा का कोई स्थान नहीं होना चाहिये। गीता में यही कहा गया है। उक्त श्लोक का वर्णन बहुत ही सारगर्भित है, मैं विस्तार से लिखना भी चाह्ता हूं किंतु जगहाभाव के कारण नहीं लिख सकता।
    "दुनिया का क्या हर रिश्ता अपेक्षाओं के अधीन है?कौन सा रिश्ता अछूता है?क्यूँ हम इन रिश्तों की परवरिश बिना अपेक्षाओं के नहीं कर सकते ?" आपने सही लिखा है। किंतु जब रिश्ता है तो इसकी परवरिश बगैर अपेक्षा के हो ही नहीं सकती, यदि हुई भी तो वो निराकार होगी। निराकार हो गई तो रिश्ता जैसा कोई भी भाव लुप्त ही हो जाता है। फिर विश्वास और अपेक्षायें जरूर अलग अलग चीजे हैं मगर जिनपर विश्वास किया जाता है उनसे ही अपेक्षा जन्म लेती है, कैसे? विश्वास आपने कैसे किया? क्या सोच के किया? यही न कि यह विश्वास योग्य हो सकता है या किसी भी तरह का मनोभाव हो। यही तो छुपी हुई वो अपेक्षा है जो विश्वास न टूट जाये जैसी मनोगत में व्यक्ति को रखता है। और टूट जाता है तब? दुख। अपेक्षा ही दुख का एकमात्र कारण है, इसके अलावा कुछ नहीं।
    चलिये अब बंद करता हूं लिखना( लिखना चाह कर भी) अच्छा लगा आपने जिस तरह के सवाल अपने मन में उठाये फिर उसका जवाब खोजा, अपने अंतरमन से, अपने अध्यात्म से। यही आपकी गम्भीरता को प्रदर्शित करता है।

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  23. ... लेख की अंतिम पंक्तियों ने ये गाना याद दिला दिया "...किताबों में छपते हैं चाहत के किस्से हकीकत की दुनिया ..."
    ..... अपेक्षाएं अक्सर दुखदाई होती है!!

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  24. जिन पर विश्वास किया जा सकता है उनसे अपेक्षा नहीं करनी चाहिये.क्योंकि जहाँ आप ने अपनी अपेक्षाएं बढ़ाईं वहीँ रिश्तों की बुनियाद कमज़ोर होने लगती है.


    बात तो कहने सुनने मे सही लगती है. परंतु व्यवहारिक रुप से संभव ही नही है. एक छोटा सा उदाहरण देना चाहुंगा....छोटा बच्चा भी मां के गले हाथ डालकर उसको प्यार से दुलराता है और मुस्कराता है जब उसे मां से स्तनपान करना हो. यानि अपेक्षा हमारे अंदर जन्म जात होती है.

    और योगी लोग जो साधना करने की बात कहते हैं वह भी इसी अपेक्षा को मारने की कला है.

    अब बताईये...ऐसे में इस अवस्था तक पहुंचते पहुचते तो मानव स्थितप्रज्ञ हो ही जायेगा.

    यहां तो बराबरी का लेन देन तो कम से कम चाहिये ही. यही संसार है वर्ना संसार गया.

    रामराम.

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  25. @@अमिताभ जी इतनी अच्छी तरह से और विस्तार से श्लोक का अर्थ समझाने के लिए आभार,वास्तव में मैं ने पूरी व्याख्या का एक अंश मात्र दिया था ..अब वहाँ उनकी पोस्ट का लिंक भी लगा दिया.

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  26. बहुत बढ़िया विषय चुना है अल्पना आपने यह अपेक्षा ही ज़िन्दगी को न जाने कहाँ से कहाँ ले आती है ..टिप्पणियों में बहुत कुछ अच्छा कह दिया गया है ...पढने लायाक है यह पोस्ट बहुत सच्ची शुक्रिया

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  27. apeksha aur iksha ka bahut sundar aur suljha hua vishleshan...padhte padhte vichar aaya ki apekshaye to insaan ko khud se bhi kai hoti hai...

    regards,

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  28. अल्पना जी, मुझे ऐसा लगता है कि अपेक्षाएँ हमारी असुरक्षा की भावना से उपजती हैं. यदि विश्वास है तो असुरक्षा कैसी ? इंसानी रिश्तों के बारे में इस विचारोत्तेजक पोस्ट के लिए आभार और बधाई !

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  29. बड़े दिनों बाद दिखी हैं मैम...और वो भी इतना संजीदा विषय लेकर।

    जो अपेक्षायें नहीं होती तो संसार में कोई दुख ही नहीं होता।

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  30. badhiya likhti hain aap

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  31. अल्पना जी सबने इतना कुछ तो लिख दिया अब मेरे लिखने जैसा तो कुछ बचा ही नहीं पर ये कह सकती हूँ की ज्ञानवर्धक पोस्ट और ऊपर से टिप्पणियों में विस्तार से चर्चा सब कुछ बहुत अच्छा लगा आभार

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  32. vishay bahut hi badhiyaa hai.....aur aapke lekhan ki to baat hi alag hai

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  33. अल्पना जी ,मेरी कविता की पंक्तियों ने आपको यह सब सोचने पर विवश किया ,अच्छा लगा । मैं इसे कविता की सार्थकता से जोड़कर देख रहा हूँ । सही है इच्छाओं और अपेक्षाओं को लेकर मन में बहुत उथल-पुथल मची रहती है। लेकिन इसमें अस्वाभाविक क्या है?यह हमारा मन है और यह हमें निर्देशित करता है । और मन हमारे सामाजिक सम्बन्धों और हमारे संस्कारों से निर्देशत होता है । रिश्ते जैसे जैसे प्रगाढ़ होते है वैसे वैसे अपेक्षायें भी जन्म लेती है और बढती जाती है ।जिस वक़्त मेरी बेटी पैदा हुई थी मैं उस वक़्त इस प्रश्न के बारे में सोच रहा था कि आज उससे मेरी कोई अपेक्षा नहीं है लेकिन जैसे जैसे वह बडी होगी मैं अपेक्षायें पालने लगूंगा । और ऐसा ही हुआ । हम सभी के साथ ऐसा ही होता है ।अपेक्षायें जन्म लेती है ,अपेक्षायें भंग होती है ,फिर नई अपेक्षाएँ जन्म लेती है । हम सभी साधारण मनुष्य हैं यह सब हमारे साथ घटित होना ही है । इसे स्वीकार करना ही होगा ।

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  34. माना .....
    अपेक्षाएं दुःख देती हैं
    लेकिन अपेक्षाएं
    एहसास का हिस्सा हैं
    और ....
    इक आस भी तो बंधी रहती है

    आलेख सच-मुच आंदोलित करता है
    आभार .

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  35. kmal hai mame yeh post mujhse miss kaise ho gai...
    sach me sharad kokas ji ki yeh line dil ko chooti hain...
    or apki yeh post bhi..
    meet

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  36. बहुत ही सारगर्भित पोस्ट---। पूनम

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  37. बहुत सुन्दर पेंटिंग
    बहुत बहुत आभार

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  38. क्या कहूँ जी कुछ समझ नही आ रहा है शायद इसका कारण शायद हम सायने नही हुए। इन गूढ बातों को समझने में देर लगेगी। और बिना समझ के कुछ कहना भी ठीक नही। वैसे ये पोस्ट विचारों से भरी हुई है। और दिमाग में उथल पुथल मचाती है। लगता दो एक बार और पढनी पडेगी।

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  39. इतने गुनी जानो ने इतना कुछ कह दिया की कोई गुंजाईश ही नहीं बची है कुछ और कहने की...फिर भी इतना अवश्य कहना चाहूंगी ..ये सच है की सभी कुंठाओं और दुःख की जड़ अपेक्षाएं ही हैं ..परन्तु मनुष्य को दिल और दिमाग दोनों मिले हैं उसका दिल प्यार करता है तो उसका दिमाग बदले में कुछ चाहता भी है ..और ये जरुरी भी है जीवन की गर्माहट को बरक़रार करने के लिए अगर इंसान अपनी अपेक्षाओं को त्याग दे तो साधू बन जायेगा...मेरे ख्याल से व्यावहारिक रूप से यह संभव नहीं...
    बहुत सुन्दर विषय उठाया है आपने ..बेहतरीन चिंतन...शुभकामनायें.

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  40. अल्पना जी, आदाब
    -यह रिश्ता कोई भी हो..जब अपेक्षाएं पूरी नहीं होती तो कुंठाएं जनम लेती हैं और रिश्तों में कडुवाहट घुलने लगती है.रिश्तों को खत्म करने में इन्हीं का बहुत बड़ा योगदान होता है.
    -किसी से भी अधिक अपेक्षा करना उसे हतोत्साहित ही करता है और व्यक्ति में नकारात्मक उर्जा का प्रवाह अधिक होने लगता है.
    -और जब इनका बोझ उठाया नहीं जाता तो व्यकित विद्रोही बन जाता है...सामने वाले से ,समाज से और खुद अपने आप से भी!
    -हर रिश्ते को दीर्घजीवी और मजबूत बनाने के लिए अपेक्षाएं नहीं विश्वास की जरुरत है.
    ---------जानती हूँ यह सब कहने की बातें हैं ऐसा होना संभव ही नहीं,भगवान और भक्त का नाता भी इस से अछूता नहीं है....बेसिकली हम सब स्वार्थी हैं और हर रिश्ते को स्वार्थ के तराजू में ही तोला करते हैं.इसीलिये निस्वार्थ प्रेम,समर्पण सब किताबों में अच्छा लगता है.
    __________________________
    पूरा आलेख....खासकर ये अंश....कितना गहन चिंतन....कितनी बड़ी शिक्षा...कुछ कहने को शब्दों का ऐसा अभाव शायद पहले कभी महसूस नहीं किया

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  41. shabd nahi hai... bahut kuch kehna chahti hoon bas shabd hain ki kam pad rahe hain..

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  42. bahoot he achha bog hai aapka vigyan visay par lekh dekane ja raha hon

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  43. bahut gaharaa bhaav.....bahut bheetar tak chhote prashn....aur uttar....!!jinhen ham jaankar bhi nahin jaante.....!!

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  44. विषय गंभीर है, दीर्घकालीन चिंतन से जुड़ा हुआ है.

    रिश्ता है तो अपेक्षाएं भी है. वैसे मैंने एक बात महसूस किया है, कुछ इच्छाए नितांत व्यक्तिगत होती है और कुछ सामूहिक होती हैं. यहाँ थोडा सा टकराव हो सकता है. मगर रिश्ते में जुडाव और ठहराव के लिए और भी अन्य गुण होने चाहिए.

    Aage bahut kuch kahna baaki hai...

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  45. Badihee sanjeedgee se likha hua aalekh hai...ekek shabd kisee shilp kee baanti jada-ghada hua hai..

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  46. आदरणीय अल्पना जी, यह लेख बहुत अच्छा लगा..रिश्ता है तो अपेक्षाएं भी है.शुभकामनायें.!!

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  47. alpana ji
    charcha ka vishay accha
    sundar vichar
    lajabab.............
    abhar ..........

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  48. किसी विचार को पकड़कर उससे समुत्पाद निकालना यही चिन्तन की परम्परा है प्रेरणास्प्रद है आपका ब्लाग

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  49. apni kavita ka pata hai
    www.shesh-fir.blogspot.com
    aapke chintan ka vistar ko padh ke achha laga
    Dr.ajeet

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  50. हर रिश्ते को दीर्घजीवी और मजबूत बनाने के लिए अपेक्षाएं नहीं विश्वास की जरुरत है.

    सच ही कहा आपने, पर आज विश्वास ही तो उठ सा गया लगता है...........

    चन्द्र मोहन गुप्त

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  51. जहां रिश्ते होते हैं अपेक्षाएं होती ही हैं ।गैरों से वे नही होतीं इसी लिये कोई हमारे लिये कुछ करता है तो हम ्भिभूत हो जाते हैं . जव कि अपने द्वारा किया गया तो मात्र कर्तव्य का निबाह होता है ।

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  52. अपेक्षा न हो ये काफी मुश्किल है...इच्छा और अपेक्षा में ही जिदगी चक्कर काटती रहती है....और इंसान चक्करघिन्नी बना रहता है....

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  53. होली की हार्दिक शुभकामनाएँ।।

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  54. आपको और आपके समस्त परिवार को होली की बहुत बहुत शुभ-कामनाएँ ......

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  55. आपको व आपके परिवार को होली की हार्दिक शुभकामनायें

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  56. नमस्कार,
    होली के अवसर पर बधाई और शुभकामनायें.

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  57. अपनों से समाज से और शासन से अपेक्छाएं रखना मनुष्य के लिये सहज, स्वाभाविक है लेकिन उद्दाम अपेक्छाएं मानव के दु:खों का सबसे बडा कारण भी है।
    सारगर्भित कृति प्रशंसनीय है।

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  58. एक सिंहावलोकन हो गया ,समग्र परिप्रेक्ष्य -व्यक्ति(यों) ,देश काल और परिस्थिति के समग्र संदर्भ में भी!

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आप के विचारों का स्वागत है.
~~अल्पना