दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में आज तीसरे चरण के मतदान हो रहे हैं.इन चुनावों के माहोल की गरमी हो या मौसम की गरमी .दोनों ही पूरे जोरों पर हैं.
स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी देश में बेरोज़गारी एक समस्या बनी हुई है.आज़ादी के ५० साल पूरे होने के अवसर पर यहाँ से एक पत्रिका [souvnir-१९९७-९८ में] निकाली गई थी ,उस में छपी मेरी यह कविता आज प्रस्तुत कर रही हूँ।
बेरोज़गार
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अन्धकार में अकस्मात,
एक रोशनी की किरण चमकी तो थी,
मगर,लुप्त हो गई!
आज फिर सोना होगा,बेबसी की चादर तले.
थक गया हूँ द्वार खटखटाकर ,
हर खुले द्वार के पीछे मिले अन्धकार के साए!
समझ से परे है कि यहाँ रोशनी भी बेनूर है,
जीवन के पिछले बसंत कितने सुहाने थे,
जब इस यात्रा की तैयारी भर करनी थी,
डगर यूँ होगी कठिन ,यह अहसास न था
पांवों में पड़े छाले ,हाथों का खुरदरापन,
बोलने लगते हैं,
मैं ही तो था,पिता की अंतिम आशा!
उनकी अपेक्षाएं अब कन्धों पर बोझ बनी,
खुद की नज़रों में मुझे छोटा किये जाती हैं!
कमर पर डिग्रियां, गले में तमगे अर्थहीन लगते है अब,
काश इन की जगह होते कुछ हरे पत्ते और सिफारिशों के टुकड़े!
छू लेता आसमान मैं भी जिनके सहारे!
हँसता ,नियति के क्रूर चेहरे पर!
मगर मैं माध्यम वर्ग का अदना सा प्राणी-
हंसने की कोशिश में ,
रिसने लगता है खून जिस के होठों से!
चलो--
कल की आस पर,
पलट देता हूँ आज का पृष्ठ!
सो जाता हूँ ओढ़ कर बेबसी की झीनी चादर को,
सपनो की मीठी रोटी खा,
दिलासाओं का खारा पानी पी,
इस आशा में -कि-शायद-
कल का सूरज काला नहीं ,उजाला बन कर आएगा!
--------[लिखित द्वारा --अल्पना वर्मा १९९७] -
स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी देश में बेरोज़गारी एक समस्या बनी हुई है.आज़ादी के ५० साल पूरे होने के अवसर पर यहाँ से एक पत्रिका [souvnir-१९९७-९८ में] निकाली गई थी ,उस में छपी मेरी यह कविता आज प्रस्तुत कर रही हूँ।
बेरोज़गार
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अन्धकार में अकस्मात,
एक रोशनी की किरण चमकी तो थी,
मगर,लुप्त हो गई!
आज फिर सोना होगा,बेबसी की चादर तले.
थक गया हूँ द्वार खटखटाकर ,
हर खुले द्वार के पीछे मिले अन्धकार के साए!
समझ से परे है कि यहाँ रोशनी भी बेनूर है,
जीवन के पिछले बसंत कितने सुहाने थे,
जब इस यात्रा की तैयारी भर करनी थी,
डगर यूँ होगी कठिन ,यह अहसास न था
पांवों में पड़े छाले ,हाथों का खुरदरापन,
बोलने लगते हैं,
मैं ही तो था,पिता की अंतिम आशा!
उनकी अपेक्षाएं अब कन्धों पर बोझ बनी,
खुद की नज़रों में मुझे छोटा किये जाती हैं!
कमर पर डिग्रियां, गले में तमगे अर्थहीन लगते है अब,
काश इन की जगह होते कुछ हरे पत्ते और सिफारिशों के टुकड़े!
छू लेता आसमान मैं भी जिनके सहारे!
हँसता ,नियति के क्रूर चेहरे पर!
मगर मैं माध्यम वर्ग का अदना सा प्राणी-
हंसने की कोशिश में ,
रिसने लगता है खून जिस के होठों से!
चलो--
कल की आस पर,
पलट देता हूँ आज का पृष्ठ!
सो जाता हूँ ओढ़ कर बेबसी की झीनी चादर को,
सपनो की मीठी रोटी खा,
दिलासाओं का खारा पानी पी,
इस आशा में -कि-शायद-
कल का सूरज काला नहीं ,उजाला बन कर आएगा!
--------[लिखित द्वारा --अल्पना वर्मा १९९७] -
'आज प्रस्तुत है गीत-'रुके रुके से क़दम',जो फिल्म-मौसम से है,लिखा है -गुलज़ार साहब ने और संगीत मदन मोहन जी का है. यह मूल गीत नहीं है . यह गीत यहाँ से डाउनलोड कर सकते हैं.[ Mp3] यह विडियो २ मई को जोड़ा गया है. टिप्पणी फॉर्म पर सीधा पहुँचने हेतु यहाँ क्लिक करें. |
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