
आज कुछ विचार हैं जो मेरे मन में आए और चाहा कि उन्हें आप के साथ बाँट लूँ ।यहाँ महिला मुक्ति की बात नहीं की जा रही.
बस,कुछ सवाल हैं,जिनके जवाब नहीं मिलते.कुछ घटनाएँ कुछ किस्से अक्सर झकझोर जाते हैं कि क्यों पुरूष का अहम् एक अभेद दीवार जैसा होता है. जिस का सहारा भी हम लेना चाहते हैं और उस के पार जाने की ख्वाहिश भी रखते हैं.एक सामान्य स्त्री इस दुनिया में आज भी पुरूष के अधीन है और आधीन रहना पसंद करती है.यूँ तो स्त्री -पुरूष एक दूसरे के पूरक हैं.लेकिन जब आप पढ़ी लिखी working स्त्रियों से भी पूछेंगे तो वो भी पुरूष को एक छत्र छाया के रूप में देखना पसंद करती हैं.एशियन और अरब स्त्रियों के साथ हुई बातचीत से मेरा अनुभव यही कहता है।
घर में जब पुरूष सदस्य नहीं होता तो बाहरी दुनिया अनजान लगती है ,भय लगता है।रात को कई बार आंख खुलती है सभी बालकनियों के और घर के दरवाज़े उठ उठ कर चेक किए जाते हैं.अपने पाँव पर खड़ी आर्थिक रूप से सक्षम महिला भी पुरूष के सहारे को अपना बल मानती है.
ऐसा क्यों है?इसे आप क्या कहेंगे?निर्भरता?या पुरूष के नारी का पूरक होने का प्रूफ़!
दुनिया में अच्छे पुरूष भी हैं जो महिलाओं के मन की भावनाओं का सम्मान करते हैं.मगर यहाँ मैं सिर्फ़ कुछ अलग से cases की बात कर रही हूँ.
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बस में चढते हुए देखा -'महिला सीटों पर पुरूष बैठे हैं!'
उतर कर एक किनारे चुपचाप खड़ी हो गई।[ड्राईवर ने पुरूष सवारियों को वहां से हटा कर पीछे की सीट पर भेज दिया।अब जगह खाली थी.
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गला खराब था,डॉक्टर की दिखने हस्पताल गई।कंप्यूटर में एंट्री करते समय रिसेप्शनिस्ट ने 'प्रेफेरेंस' पूछी--'महिला चिकित्सक या पुरूष चिकित्सक ? किसे दिखाना चाहेंगी?महिलाओं को अहमियत और उनको दिए जा रहे सम्मान को देख खुशी हुई।
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एक महिला को sms मिला-'i like you।you are beautiful'
पुलिस में शिकायत दर्ज हुई'-जुर्म-'privacy invasion'
-sms भेजने वाले पुरूष को २००० dhs जुरमाना और चेतावनी दी गई।
एक महिला की बात को इतनी अहमियत!कानून के दिल में महिलाओं के लिए हमेशा नरम कोना है.
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मगर क्या यह सम्मान या अहमियत क्या सिर्फ़ कानून को मानने का एक हिस्सा भर हैं?
फिलपींस से आई मारिया को यहाँ naukari kartey ३० साल हो गए...बहुत कमाया..अकेले रहती है..हर साल घर जाती है ..सोचती है इस बार उस का पति उसे घर वापस आने को कहेगा मगर नहीं वह हर बार उसे एक 'नए लोन 'के साथ नई जिम्मेदारी दे कर वापस भेज देता है।५८ की उमर में भी ९ घंटे की पूरी ड्यूटी करती है.उस के जैसी और भी कई फिलिपींस की महिलाएं यहाँ सालों से अकेला जीवन बिता रही ------us ki जिम्मेदारी सिर्फ़ पैसा kamaana रह गया है!
यह कैसा जीवन है?
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---- की रहने वाली नूरा...अपने पति से १९ साल छोटी है उस ki shaadi ke आठ साल में यह छठा बच्चा है।हम उसे समझाते हैं,जैसे उनके देश की असंतुलित स्थिति है ऐसे में थोड़ा प्लानिंग करे.वह कहती है-- 'वह सिर्फ़ अपने पति की इच्छा को जानती/मानती है!'
पढी लिखी समझदार वर्किंग नूरा के पास कोई और रास्ता नहीं है.
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ना जाने कितने ही किस्से याद आ रहे हैं - यही समझ आता की कोई समाज हो या देश...यह दुनिया मुख्यतः पुरूष प्रधान ही है और रहेगी।
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एक सवाल मुझसे एक अरब लड़की ने पूछा था-'भारत में अमूमन एक आदमी की कितनी बीवियां होती हैं।?मेरे जवाब कि अमूमन एक पति की एक पत्नी होती है.तो उसे विश्वास नहीं हुआ ।वह इसे सच मानी ही नहीं।[शायद जिस परिवेश में वह पली बढ़ी वहां इस बात की कल्पना भी झूठी लगती है.]
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जब भी ये गीत सुनायी देता है --'अब जो किए हो दाता फ़िर से न कीजो,अगले जनम मोहे ..]
ये सब किस्से फ़िर से याद आ जाते हैं
और यही सवाल उठता है कि क्या पुरूष प्रधान समाज में महिलाओं के लिए दिखने वाला' यह सब सम्मान 'सिर्फ़ कानून और नियमों का पालन मात्र है?
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[सभी घटनाओं में 'नाम' बदल दिए गए हैं.पोस्ट को संशोधित किया गया है.]
सही कहा आपने...."पुरूष प्रधान समाज में महिलाओं के लिए दिखने वाला' यह सब सम्मान 'सिर्फ़ कानून और नियमों का पालन मात्र है?" ये केवल दिखावा है..
ReplyDeleteबहुत गहरी बात कही आपने. समाज पुरूस प्रधान है और महिलाओ को सम्मान सिर्फ़ क़ानून मात्र नही है, अभी भी महिलाओ का सम्मान करने वाले लोग है, हाँ कमी ज़रूर आई है. दोनो तरह के लोग है , क़ानून का डर करने वाले और महिलाओ का सम्मान करने वाले लोग. ये भी है समाज की सोच, सनरचना उसके नियम हर जगह अलग-अलग है, जैसा की आपने कहा की भारत मे एक पत्नी की प्रथा है , हर जगह ऐसा नही, बहुत हद्द तक देश के नियम और क़ानून का भी सोच असर पड़ता है
ReplyDeleteये सिर्फ़ मेरे विचार है, सबे के अपने होंगे और सहमत न होते हुए भी मे उनका सम्मान करता हूँ
अगर और गहराई से सोचे तो बहुत बातें निकल के आएँगी
धन्यवाद
मन को उद्विग्न करती पोस्ट !
ReplyDeleteआपने एक शाश्वत प्रश्न को बहुत से उधाहरण दे कर बहुत अच्छे से समझाने की कोशिश की है...लेकिन इसका जवाब पाना इतना आसान नहीं...ना पुरूष का काम स्त्री बिन चलता है और न स्त्री का पुरूष बिन...
ReplyDeleteनीरज
मै आपके विचारोसे सहमत हूँ . महिलाओं की अस्मिता और अहमियत को पहचाना जन चाहिए और समानता का अधिकार होना चाहिए . आभार
ReplyDeleteaapka blog bahut hi badhiya hain shabdo mein ya likhker bayan nahi ho sakta hain
ReplyDeleteस्त्री को आत्मविश्वास बनाए रखना चाहिए और दूसरी स्त्री को भी अपने जैसा मानना चाहिए, अकेला पुरुष कभी भी प्रधानता ज़बरन नहीं ले सकता, स्त्री चाहे किसी भी रिश्ते की क्यों न हो उसे दूसरी स्त्री की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
ReplyDeleteयह नकारात्मक मुद्दों पर भी लागू होती है। स्त्री को पहले स्वयं ज़िम्मेदार और न्यायप्रिय एवं स्पष्ट होना होगा। इसमें शिक्षा सबसे ज़्याद घेरे में आती है। कृपया शिक्षा को व्यापक अर्थ में लें।
असमानता तो है ही। जेण्डर की है, जात की है, समृद्धि/मुद्रा की है। मैं पाता हूं अपने लिये बुने आदर्शों की जकड़न भी असमानता को जन्म देती है।
ReplyDeleteनारी के लिये परिस्थितियां कठिन तो हैं ही - विश्व भर में।
आपकी सोच सही है। यह नियम मात्र है। इसकी पडताल वहॉं पर की जा सकती है, जहॉं कानून कडाई से नहीं लागू किये जाते। लेकिन अगर ऐसा न होता, तो ज्यादा अच्छा होता।
ReplyDeletevicharon ki sateek aur sunder abhivyakti.
ReplyDeleteहॉं, पर काश ऐसा न होता।
ReplyDeleteऔर यही सवाल उठता है कि क्या पुरूष प्रधान समाज में महिलाओं के लिए दिखने वाला' यह सब सम्मान 'सिर्फ़ कानून और नियमों का पालन मात्र है?
ReplyDeleteजहॉं तक मेरी समझ है, तो इसका उत्तर है हॉं, पर काश ऐसा न होता।
और यही सवाल उठता है कि क्या पुरूष प्रधान समाज में महिलाओं के लिए दिखने वाला' यह सब सम्मान 'सिर्फ़ कानून और नियमों का पालन मात्र है?
ReplyDeleteमेरी समझ के अनुसार इसका उत्तर है हॉं, पर मैं सोचता हूं कि काश ऐसा न होता।
स्त्री को अपनी जगह इस पुरूष प्रधान समाज में ख़ुद बनानी होगी ...हर जगह स्त्री का एक सा हाल लगता है ..बहुत सी बातें आपके लेख में विचारणीय है ...अगर किसी गलत बात को न सहा जाए तो ही आगे बढ़ कर अपनी बात कही जा सकती है
ReplyDeleteस्त्री को अपनी जगह इस पुरूष प्रधान समाज में ख़ुद बनानी होगी ...हर जगह स्त्री का एक सा हाल लगता है ..बहुत सी बातें आपके लेख में विचारणीय है ...अगर किसी गलत बात को न सहा जाए तो ही आगे बढ़ कर अपनी बात कही जा सकती है
ReplyDeleteक्या पुरूष प्रधान समाज में महिलाओं के लिए दिखने वाला' यह सब सम्मान 'सिर्फ़ कानून और नियमों का पालन मात्र है?
ReplyDeletefilhaal is sawaal ka koi jawaab nahiN sujh rahaa mujhe. vazandaar sawaal hai.
बहुत से प्रशन है अल्पना जी जिनके उत्तर घोल मोल है ,कहने को देखिये हमारे उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री एक दलित महिला है ..लेकिन दूसरा सच ये भी है की वे सबसे अमीर मुख्यमंत्री है .ओर कल ही एक ५ साल की लड़की का बलात्कार करने के बाद उसकी हत्या हुई है ....ठीक वैसे ही जैसे बांग्लादेश की बागडोर एक महिला के हाथ में है ,कभी पाकिस्तान में भी था ...
ReplyDeleteहमारे समाज में महिलाओं की सारी समस्या केवल आर्थिक आत्म-निर्भता से हल हो जायेगी ऐसा नही है ,मैंने उन महिलाओं को जो पुलिस में काम करती है अपनी सास के ताने सुनते देखा है ओर पति से शोषित होते हुए भी...पढ़ी लिखी महिला का शोषण पढ़े लिखे पति मार पीट कर नही करते उसके दूसरे तरीके होते है.....
खैर दूर क्यों जाती है अभी पब पर बहस चिडी...लड़कियों के साथ मार पीट की गई .क्या भारत में कभी किसी लड़के को जींस टी शर्त पहनने पर पिटते सुना है ..या शराब पीने पर ...क्यूंकि शराब तो दोनों को नुक्सान पहुंचाती है .महिला को भी पुरूष को भी..
पर एक बात ओर है ..महिला को भी निर्भरता के इस माहोल की सुविधा छोडनी होगी .क्यों वे अपेक्षा करे उनके लिए बैंक या किसी बिल की लाइन में अलग लाइन हो...क्यों नही वे अपनी बहू या बेटियों को तितली की तरह खुला आकाश स्वंय दे .....
anupama ji
ReplyDeleteaapka ye lekh padha ,man bada dravit ho gaya. Purush pradhaan samaaj ki kai galat baaton me se ye bhi kuch aisi hi baaten hai ...jinhe hum nazarandaaz karna chahe to be nahi kar sakte hai ..
i am sorry ,i spelled ur name wrong..
ReplyDeleteaad iska jawab haa mein hi hai,magar har jagah paristhithi aisi nahi,nari ko apna aatmasamman banaye rakhana chahiye,aur sabse jaruri uski shiksha sampurn ho,jab wo khud apne man ke vichar badalne ki sthithi mein hogi ,tab shayad aaspaas ke logo ke nazariye bhi badlenge.
ReplyDeleteफिलहाल का सच तो यही है. आगे क्या होगा कौन जानता है? पढ़ते हैं वैदिक भारत में स्त्रियों की स्थिति बेहतर और ज़्यादा स्वतन्त्र थी और इसके पीछे क़ानून का ज़ोर नहीं था बल्कि सामाजिक संरचना ही कुछ ऐसी थी, मगर तो भी समाज तो तब भी पुरूष-प्रधान ही था. पश्चिम मियन भी तमाम नारी-आंदोलनों के बावजूद नारी द्वितीय ही है. गड़बड़ अस्तित्व को रेखांकित करने की नारी की परिभाषा में ही है शायद क्योंकि स्त्री अपनी existense को डिफाइन करने के फेर में पुरूष की प्रतिलिपि ही बनने की कोशिश कर बैठी और अब भी वही कर रही है. उसके लिए शायद ज़्यादा ज़रूरी था पुरूष के समकक्ष होना मगर उससे अलहदा होना. वह नहीं हो पाया.
ReplyDeleteकाश कि ये सम्मान दिल से (बिना कानून के) दिया जाए तो बहुत बडी बात होगी।
ReplyDeleteवाह.......एक जबरदस्त तस्वीर पेश की है समाज की,
ReplyDeleteबहुत से पहले विचारनिए हैं,पर समाधान ?
आज कोई गीत नहीं? प्रतीक्षा रहती है.....
आपकी पोस्ट पढ कर ऐसा लगा जैसे सामने बैठ कर कोई स्पीच सुन रहा होऊं. सबसे पहले तो आपको इस सशक्त त्रीके से संप्रेषण के लिये बधाई. आपने काफ़ी ठोस तरीके से अपनी बात को रखा है.
ReplyDeleteदेखिये समस्याए तो हैं इससे कोई इन्कार नही कर सकता. पर ये समस्यायें शायद युगों से हैं. सतयुग मे भगवान राम और सीता जी की कथा भी यही सिद्ध करती है कि यह समाज पुरुष प्रधान रहा है.
युगों की पीडाए और कुंठाएं एक दम से नही जा सकती. आज इन मामलों के लिये कानून बने हैं, और यकीन रखिये समय के साथ साथ सब बदलेगा,
ये जो पुरुष का हौवा है ये मुझे तो टूटता दिखाई दे रहा है. आज शिक्षा के क्षेत्र मे सब जगह बेटियां आगे हैं. और शायद समय लगेगा पर स्थिति मुझे तो इन तीस सालों मे बहुत बेहतर होती दिख रही हैं.
और स्त्री भी क्या करे ? वो अकेला इस लिये महसूस करती है कि उसके अचेतन मे यह डर सदियों से बैठा हुआ है कि वो कमजोर है.
रामराम.
समाज पुरूष प्रधान तो है किन्तु पुरूष नारी का पूरक भी है। नारी को उसकी पहचान और सम्मान भी वही दिलाता है।
ReplyDeleteआपने कई प्रसँग और उनसे जुडे भाव गहराई से दर्शाये हैँ यहाँ अप्लना जी ..असल मेँ स्त्री और पुरुष दोनोँ अलग हैँ कानूनन समानता भले मिल जाये फर्क तो रहेगा ही पर हर देश मेँ स्थिति अलग भी है ..बदलाव जारी रहेँ यही कामना है.
ReplyDelete- लावण्या
दोहरा चरित्र,दोहरा कानून,दोहरा व्यव्हार,सब कुछ तो दोहरा-तीहरा है।हम किसी के साथ उसके पद-प्रतिष्ठा-जात-पात-लिंग आदि के साथ-साथ उसका खुद से रिश्ते के आधार पर व्यव्हार करते हैं।ये समाज का दोहरा चेहरा नही है तो क्या?बहुत सही सवाल है आपका जिसका पूरी ईमानदारी से जवाब देना बहुत कठीन है।
ReplyDeleteअच्छा लिखा है आपने। बहुत कुछ सोचने पर बाध्य करती हैं आपकी बातें।
ReplyDeleteअल्पना जी,सब से पहले तो यह पता होना जरुरी है कि *पुरूष प्रधान समाज* है क्या ? बस युही कुछ ग्रुप बन गये, ओर कुछ माडर्न नारिया, ओर उन्हे एक शोशा मिल गया...
ReplyDeleteयह पुरूष प्रधान समाज सिर्फ़ एक सोच है जब कि ऎसा नही है, खास कर भारत मै तो, हा कुछ अपवाद जरुर है, जिस मे नारी का शोषाण होता है, तो कुछ अपवाद ऎसे भी है जिन मे एक नारी पुरष का भी शोषण करती है यानि, यह कुछ अपवाद है, ओर इन अपवादो को पुरा समाज नही कहा जा सकता,
पुरुष नारी से ज्यादा ताकत वर होता है इस लिये उस पर घर की रक्षा कि, बच्चो की रक्षा, बीबी की रक्षा की जिम्मेदारी होती है, उस का कुछ रोब होता है, शायद इस लिये हम *पुरूष प्रधान समाज* कह देते है, ओर अगर पुरुष ऒरतो की तरह से बात करे, उन की तरह से चले , उस के हाव भाव भी नारियो की तरह से हो तो उस की बीबी ही उस की इज्जत नही करती.
ओर मेने अकसर देखा है सभी घरो मे ज्यादातर मियां बीबी दोनो ही एक दुसरे की सलाह से चलते है, ओर जो लोग कहते है कि पश्चिम मे नारी आजाद है, तो वो बहुत बडी भूल मे है, पश्चिम मै नारी बस एक खिलोना है, ओर इस खिलोने को आजादी नाम का एक गलत मंत्र दे दिया जिसे वो जपती है ओर उसे गुमान है कि वो आजाद है, अरब ओर पाकिस्तान, अफ़्गानिस्तान की नरियो के बारे तो सभी जानते है.
लेकिन एक भारतीया नारी सच मै आजाद है, उतनी ही जितना एक पुरुष आजाद है, यानि अगर दोनो समझ दार है तो दोनो को ही अपनी अपनी जिम्मेदारिया का ग्याण होता है, ओर वो घर ही सही बनता है जिस घर मै दोनो समझ दार हो, ओर यह समझ सिर्फ़ पढ लिख कर नही आती, मेने बहुत सी अनपढ नारिया भी देखी है, जिन्होने अपने घर क स्वर्ग से भी सुंदर बना दिया, ओर बहुत पढी लिख भी देखी है जिन्होने अपने स्वर्ग से सुंदर घर को नरक से भी गंदा बना लिया...
नारी कमजोर नही , ओर ना ही वो किसी की गुलाम है, शादी को बंधन इसी लिये कहा जाता है कि इस मै बहुत सी जिम्मेदारियां होती है, ओर उन जिम्मेदारियो को निभाना इतना आसान नही, लेकिन समझ दार लोगो के लिये कठिन भी नही.
अन्त मै.......
यूं पुरुष-स्त्री में कोई मतभेद नहीं है। उनके स्वभाव, प्रकृति में भिन्नता हो सकती है, लेकिन हैं दोनों ही सृष्टि का अंश। स्वयं में पूरे, पर एक-दूसरे के बिना अधूरे।
तभी तो किसी शायर ने कहा है कि...
एक दूजे से मिलकर पूरे होते हैं,
आधी-आधी कहानी हम दोनों।’
आपके विचारो से सहमत हूँ.....कुछ दिल में उथल पुथल सी हो रही है...सोचती हूँ जब स्त्री -पुरूष एक दूसरे के पूरक हैं तो फ़िर कैसी हार जीत कैसी एक दुसरे से ऊपर या समानता की होड' कैसा कानून और नियम का पालन ???? इस मामले मे हर इंसान के अपने अलग अलग विचार हैं.....सोच है.....इस विषय पर इतिहास रचा जा सकता है.......एक अंतहीन बहस की जा सकती है......लकिन सच ये की निष्कर्ष नही निकलेगा.....नारी शब्द ही एक सम्मानजनक व्यक्तित्व की पहचान है और नारी को सम्मान दिल से मिलना चईये न की कानून और नियम के अधीन होकर...."
ReplyDeleteRegards
bus se agar mahila seat hat jaye tab kuch baat banegi.. waise bhi mahilao ke liye alag se ques jaha hoti hai.. waha purush apne sath mein le gayi mahila ko aage kar dete hai.. railway reservation counters is maamle mein achhe hai.. jaha ek hi que hai sabke liye..
ReplyDeleteअल्पना जी
ReplyDeleteआपका लेख बहूत विचारोत्तेजक है, मुझे नही लगता की इस बात का कोई भी निश्चित जवाब है. अलग अलग समय पर, अलग अलग परिवेश में, अलग अलग तरीके से इस पर चर्चा हो सकती है. कुछ तथ्य शुरू से ही निश्चित हैं जैसे समाज का पुरूष प्रधान होना, शारीरिक रूप से पुरूष का बलशाली होना, मानसिक रूप से स्त्री का बलशाली होना, प्राकृतिक रूप से दोनों की अलग अलग रचना और अलग अलग छमता. अगर प्राकृतिक रूप से देखें तो श्रृष्टि नें दोनों को एक दूसरे का पूरक बनाया है, किन्तु, बल शाली होने के कारण पुरूष नें समय के साथ साथ अपनी प्रधानता मनवा दी और आजतक ऐसा ही चला आ रहा है.
मुझे नही पता की जानवरों में भी ऐसा होत है या नही, पर मुझे लगता है की शायद ऐसा नही होता, क्यूंकि उनमे सोचने वाला और विचारने वाला दिमाग नही होता. सोचने की शक्ति ने इंसान को जहाँ प्रगति के पथ पर डाला है वहीं कुछ ऐसे कुत्सित भावनाएं भी प्रदान की हैं.
वैसे आज ही दिल्ली से लौटा हूँ, सर्दी कुछ कुछ दुबई जैसे ही है, गौतम जी से छोटी सी यादगार मुलाक़ात का आनंद अभी भी ताज़ा है
समय के पास इसका जवाब सुरक्षित है पर थोड़ा इंतज़ार और....
ReplyDelete............न पुरूष और न ही स्त्री..............दरअसल ये तो समाज ही नहीं.........पशुओं के संसार में मजबूत के द्वारा कमजोर को खाए जाने की बात तो समझ आती है......मगर आदमी के विवेकशील होने की बात अगर सच है तो तो आदमी के संसार में ये बात हरगिज ना होती.......और अगरचे होती है.....तो इसे समाज की उपमा से विभूषित करना बिल्कुल नाजायज है....!! पहले तो ये जान लिया जाए कि समाज की परिकल्पना क्या है.....इसे आख़िर क्यूँ गडा गया.....इसके मायने क्या हैं....और इक समाज में आदमी होने के मायने भी क्या हैं....!!
ReplyDelete..............समाज किसी आभाषित वस्तु का नाम नहीं है....अपितु आदमी की जरूरतों के अनुसार उसकी सहूलियतों के लिए बनाई गई एक उम्दा सी सरंचना है....जिसमें हर आदमी को हर दूसरे आदमी के साथ सहयोग करना था....एक दूसरे की जरूरतों को पूरा करना था.....एक आदमी ये काम करता.....और दूसरा वो काम करता....तीसरा कुछ और....हर आदमी अपने-अपने हुनर और कौशल के अनुसार समाज में अपने कार्यों का योगदान करता....और इस तरह सबकी जरूरतें पूरी होती रहतीं.....साथ ही हारी-बीमारी में भी लोग एक-दूसरे के काम आते....मगर हुआ क्या............??हर आदमी ने अपने हुनर और कौशल का इस्तेमाल को अपनी मोनोपोली के रूप में परिणत कर लिया...........और उस मोनोपोली को अपने लालच की पूर्ति के एकमात्र कार्यक्रम में झोंक दिया.......लालच की इन्तेहाँ तो यह हुई कि सभी तरह के व्यापार में ,यहाँ तक कि चिकित्सा आदि के क्षेत्रों में भी लालच की ऐसी पराकाष्ठा का यही घृणित रूप तारी हो गया.....और आज यह राजनीति और सेवा कार्यों में तक में भी यही खेल मौजूं हो गया है....तो फ़िर समाज नाम की चीज़ अगर हममे बची है तो मैं जानना चाहता हूँ कि वो है तो आख़िर कहाँ है....एक समाज के सामाजिक लोगों के रूप में हमारे कार्य आख़िर क्या हैं.....कि हम जहाँ तक हो सके एक-दूसरे को लूट सकें...........????
....................क्या यह सच नहीं कि हम सब एक दूसरे को सहयोग देने की अपेक्षा,उसका कई गुणा उसे लूटते हैं.....वरना ये पेटेंट आदि की अवधारणा क्या है......??और ये किसके हित के लिए है.....लाभ कमाने के अतिरिक्त इसकी उपादेयता क्या है.....??क्या एक सभ्य समाज के विवेकशील मनुष्य के लिए ये शोभा देने वाली बात है कि वो अपनी समझदारी या फ़िर अपने किसी भी किस्म के गुण का उपयोग अपनी जरूरतों की सम्यक पूर्ति हेतु करे ना कि अपनी अंधी भूख की पूर्ति हेतु......??मनुष्य ने मनुष्य को आख़िर देना क्या है.....??क्या मनुष्यता का मतलब सिर्फ़ इतना है कि कभी-कभार आप मनुष्यता के लिए रूदन कर लो.....या कभी किसी पहचान वाले की जरुरत में काम आ जाओ....??..........या कि अपने पाप-कर्म के पश्ताताप में थोड़ा-सा दान-धर्म कर लो.......??
.......................मनुष्यता आख़िर क्या है...........??............अगर सब के सब अपनी-अपनी औकात या ताकत के अनुपात में एक दूसरे को चाहे किसी भी रूप में लूटने में ही मग्न हों....??..........और मनुष्य के द्वारा बनाए गए इस समाज की भी उपादेयता आख़िर क्या है..........??.........और अपने-अपने स्वार्थ में निमग्न स्वार्थियों के इस समूह को आख़िर समाज कहा ही क्यूँ जाना चाहिए..........??.........हम अरबों लोग आख़िर दिन और रात क्या करते हैं........??उन कार्यों का अन्तिम परिणाम क्या है......??अगर ये सच है कि परिणामों से कार्य लक्षित होते हैं.............तो फ़िर मेरा पुनः यही सवाल है कि इस समूह को आखर समाज कैसे और क्यूँ कहा जा सकता है......और कहा भी क्यूँ जाना चाहिए.......??
जहाँ कदम-दर-कदम एक कमज़ोर को निराश-हताश-अपमानित-प्रताडित-और शोषित होना पड़ता है......जहाँ स्त्रियाँ-बच्चे-बूढे और गरीब लोग अपना स्वाभाविक जीवन नहीं जी सकते........??जहाँ हर ताकतवर आदमी एक दानव की तरह व्यवहार करता है........!!??
.........दोस्तों मैं कहना चाहता हूँ कि पहले हम ख़ुद को देख लें कि आख़िर हम कितने पानी हैं.....और हमें इससे उबरने की आवश्यकता है या इसमें और डूबने की........??हम ख़ुद से क्या चाहते हैं.........ये अगर हम सचमुच इमानदारी से सोच सकें तो सचमुच में एक इमानदार समाज बना सकते हैं............!!याद रखिये समाज बनाने के लिए सबसे पहले ख़ुद अपने-आप की आवश्यकता ही पड़ती है........तत्पश्चात ही किसी और की.....!!आशा करता हूँ कि इसे हम पानी अपने सर के ऊपर से गुजर जाने के पूर्व ही समझ पायेंगे..........!!!!
बहुत गहरी बात कही आपन
ReplyDeleteसच में बहुत चिंताजनक विषय लिया है आपने बाकी इतने ज्ञानी लोगों ने कहा है हम सुन सकते हैं क्योंकि ये बहुत ही गंभीर विषय हे सभी के लिए
ReplyDeleteएक गंभीर प्रश्न उपस्थित किया है आपने.कानून और सामाजिक मान्यतायें अलग अलग दिशायें हैं. मगर ये बात सही है, कि शायद स्त्री ही स्त्री का अधिक शोषण करती है, हमारे समाज में तो कम से कम.सास बहू के रिश्ते की बुनियादी दूरी ही इस बात की पुष्टी करती है (अधिकतर). पुरुष तो शोषण करता है दमन करता है, उसके पीछे है शारीरिक और पुरुष प्रधान समाज की परंपरायें, जो अब टूटती भी जा रही हैं. मगर स्त्री का दमन करना एक स्त्री द्वारा , इसका लॊजिक समझ में नही आता सिवाय इसके कि " भला इसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से उजली क्यों?"
ReplyDeleteAlpana ji
ReplyDeleteReally Great, vicharon ko aapne kya organize kiya hai, great. Aapke vichar kitani pratibha ke sath sab ke man ko prabhavit kar rahe hai.
Ek ke bad ek kadi sab ko jod kar aapne ek imprasive vichar rakha hai....
Bahut sundar
महिला महत्व को रेखांकित करता आपका आलेख महत्पूर्ण है
ReplyDeleteRespected Alpana ji,
ReplyDeletebahut achchhe dhang se apne jendar probleme ko likha hai.badhai.kabhee mere blog par padhariye.apka hardik svagat hai.
Poonam
दिक्कत फिर वही है, sympathy रखने की जगह empathy रखकर देखिये, समस्याओं का निदान मिल जायेगा, लेकिन किसे इतनी फुर्सत रखी है. कुल मिलाकर आपकी पोस्ट लाखों में से एक है.
ReplyDeleteअल्पना जी,
ReplyDeleteसबसे पहले तो आपको बधाई कि आपने अपनी बात अत्यन्त प्रभावपूर्ण ढंग से रखी। हांलाकि टिप्पणियों में कुछ विपरीत स्वर भी थे लेकिन हर एक व्यक्ति सदियों से निरुत्तरित प्रश्न का उत्तर टटोलने की ही कोशिश कर रहा था और इसमें कहीं व्यक्तिगत अहम नहीं था। पर मेरी नजर में इस सवाल का जवाब केवल प्रक़्रति ही दे सकती है कि उसने नारी को वस्तुत: पुरुष से शक्तिशाली क्यों नहीं बनाया, या मां बनने का हक (जो मेरे जैसे पुरुषों के लिए प्रकति द्वारा नारी को दी गई अमूल्य सौगात है) या मजबूरी (जैसा कि आजकल की ज्यादातर progressive औरतें मानती हैं) औरत को ही क्यों दी। या फिर इस प्रश्न का उत्तर उन लोगों के पास होगा जो कहते हैं कि सत्ता ताकतवर के पास ही होती है या विजय प्रकति ने ताकतवर की झोली में ही दी है। यह विषय बहुत sensitive है और टिप्पणी पोस्ट से बडी न हो जाए अत: इस क्ल्ष्टि प्रश्न के मकडजाल से बाहर आते हुए अंत में मैं यही कहना चाहता हूं कि आपकी पोस्ट से भी सहमत हूं (क्योंकि बहुत से परिवारों, समाजों और देशों में औरत के साथ ज्यादती हुई है और हो रही है, जिसे रोकना चाहिए) और राज भाटिया जी व दिलीप कवठेकर जी से भी सहमत हूं क्योंकि ज्यादातर पुरुष अपनी जिम्मेदारी समझते हैं और बदलाव की हवा में बहुत कुछ हिस्सा पुरुषों का भी है, लेकिन यह भी कडवा सच है कि बहुत बार ज्यादतियों के लिए औरत भी दोषी होती है।
अल्पना जी ,
ReplyDeleteहमारे देश में पूर्वजों ने कभी कहा था की जहाँ नारियों की
पूजा होती है वहां देवताओं का निवास होता है.लेकिन आज हमारे देश क्या पूरी दुनिया भर में नारियों को दूसरे दर्जे पर रखा जा रहा है.अपने इस मुद्दे को बहुत ही अच्छे उदहारण देकर लिखा है .
मुझे लगता है की जितना ही हम सभ्य होते जा रहे हैं ,समाज में लोग पढ़ लिख कर शिक्षित हते जा रहे हैं उतना ही नारियों के शोषण का ग्राफ भी बढ़ता जा रहा है .दहेज़ हत्या .अजन्मे भ्रूण को कोख में ही मार देने की घटनाएँ ...इसके साथ ही घर और बहार दोनों जगहों पर पुरूष का शोषण ..ये सब कुछ सिर्फ़ पुरूष प्रधान
समाज ..उसके अहम् की संतुष्टि ,उसके दर्प का परिणाम है.
इन हालातों को बदलने के लिए ख़ुद नारी को मजबूत बनना होगा . उसे तैयार करना होगा एक मजबूत और सुदृढ़ कवच जिसके मध्यम से वो अपने अस्तित्व की रक्षा कर सके ,अपने रास्ते बना सके और कर सके विरोध अपने ऊपर होने वाले किसी भी अत्याचार का .अपने इस संवेदनशील मुद्दे को इतने अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया है .बधाई.
हेमंत कुमार
... समय बदल रहा है थोडे-से बदलाव की जरुरत और है। कुछ लोगों की अन्दर की सोच ने भेद कर रखा है । आज महिलाएँ पुरुषों को कडी टक्कर दे रही हैं। स्वतंत्र व आत्मनिर्भर हो कर जी रही हैं।
ReplyDeleteआपने इस बार तो बहुत गंभीर मसले सामने रख दिए वह भी चुप चाप एक दम सादगी से. अब नौबत हम सब के कपड़े फाड़ने की हो रही है. यदि नारी प्रधान समाज होता तो क्या होता? हम तो तैयार हैं. अब हमारे लिए एक विषय भी मिल गया. आभार.
ReplyDeleteइतनी अहम् पोस्ट हमारे आंखों से ओझल रही - हमारे नेट के ३/४ दिन काम न करने से.
अल्पना जी सहित अन्य सभी साथियों को धन्यवाद, मेरे ब्लॉग पर आए और अपनी राय दी. यूँ ही बात दिल में आई, लगा एक गंभीर मुद्दा है, आप सभी के सहयोग के लिए बहुत -बहुत धन्यवाद
ReplyDeleteअल्पना जी मेरा एक और ब्लॉग है, अमिताभ प्रियदर्शी के नाम से . लेकिन वह खाली पन्ना है.
जो आपने पढ़ा वह मेरे मित्र के ब्लॉग मंथन न्यूज़ ब्लॉग स्पॉट डॉट कॉम पर था .जिसे मंथन जी ने मेरी सहमती से अपने ब्लॉग पर ले जा कर मुझे कृतार्थ किया था .
vicharo ki undar abhivyakti jo sochne ko badya karti hai...ham yuva ko ek soch pradaan karne me ye lekh sahayak ho.ham yuva bhi es samvedansheel mudde par sochne ko taiyar hai.
ReplyDeleteकविता गीत और विचार में बहुत अंतर होता है /कविता और गीत में प्रयास आवश्यक है ,विचार स्वाभाविक होते है /गीत लयबद्ध करना होता है कविता में तुक मिलाने के लिए शब्दों को इधर उधर करना पड़ता है किन्तु विचार यथावत प्रस्फुटित होते हैं /
ReplyDeleteआपने जो द्रष्टान्त दिए है उनके अपोजिट एक हजार उदहारण कुछ काल्पनिक और कुछ वास्तविक, पेश किये जा सकते हैं पुरुष - प्रधान ,स्त्री- प्रधान =आखिर ये शब्द कब तक चलते रहेंगे /भय ,यदि कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाये तो ,महिला में स्वाभाविक गुण (या दुर्गुण कहलो ) होता है /गोस्वामी जी की तो हर बात की आलोचना होती ही है लेकिन उन्होंने कहा है "अबगुन आठ सदा उर रहही " उनमे एक भय भी है /इस प्रकृति प्रदत्त स्वभाव के कारण ,आत्मरक्षा या रक्षा हेतु एक संबल आवश्यक है अब उसे कोई भी प्रधान समाज कह लो
आबू धाबी में जो नियम है उसका वहां पालन किया गया /यदि पब्लिक और प्रायवेट सेक्टर में महिला के लिए अलग व्यबस्था है तो क्या बुराई है
गला ख़राब था ......इसमें महिला की अहमियत की कोई बात नहीं कुछ बीमारिया महिला ,पुरुष चिकित्सक को बताने से कतराती है चाहे वे ग्रामीण हों या शहरी
एस एम् एस -जुर्माना =यदि महिला वास्तव में सुंदर नहीं थी तो जुरमाना किया जाना उचित ही था
साहित्यिक पत्रिकाएं देखो या लेख कहीं स्त्री विमर्श ,कहीं पुरुष प्रधान समाज =लेखों की भरमार है ऐसा लगता है कि बीरगाथा काल,भक्तिकाल ,रीतिकाल की तरह वर्तमान साहित्य का युग स्त्री विमर्श काल है
जैसे यह एक साहित्यिक विधा हो और लोगों को लेख ,व्यंग्य ,कविताये ,शेर लिखने जमीन उपलब्ध हो गई हो ,२० रुपया प्रतिदिन औसत आय वाले गरीब से ज्यादा तो शोषित नहीं होंगी हाँ उस गरीब की पत्नी अलबत्ता ज्यादा शोषित और पीड़ित हो सकती है /
नियम धीरे धीरे मस्तिष्क में बस जाते हैं। इससे आदत का जन्म होता है। और आज आदतें कई पीढियों तक जारी रहती हैं, तब वे संस्कार का रूप पाते हैं। शायद ऐसा ही इस विषय में भी हो।
ReplyDeleteअल्पना जी,
ReplyDeleteअजमान से शोभित जैन का नमस्कार...
दिगंबर नस्वा भाई से बात करके पता चला कि हम भी पडोसी हैं तो अपने आप को यहाँ आने से रोक नहीं पाया....आशा है कभी मुलाकात होगी.....
समाज आज भी इस त्रासदी से जूझ रहा है. यह सिर्फ कानून नहीं होना चहिये, वरन यह सोच हमारे व्यवहारिक समाज, का हिस्सा बनना चहिये.
ReplyDeleteमान-सम्मान तो मन से ही उपजते हैं ,
ReplyDeleteकिसी कानून से तो सिर्फ इससे
लादा या ढोया ही जा सकता है ......
आपकी चिंता व्यर्थ नहीं है ....
ज़रूरत है, तो बस सोच बदलने की , मानसिकता बदलने की ,
अपनी व्यावहारिकता को ईमान के सांचे में ढालने की .....
खैर , आपका ये शुभ संकेत और सन्देश हर मन तक पहुंचे , यही कामना है . . . .
---मुफलिस---
Visited your blog for the first time and liked the matter and way of presentation. Congratulations. As regards this post, I can only say that each one of us has got three separate persons within him /her - the Parent / Adult and Child. In Parent are the 'taught' concepts of life (Do's and Don't do's that one gets from the parents/parent substitutes. Whenever we are dogmatic and critical of others without sufficient grounds and merely because the others are doing things differently, our Parent has taken over.) The Child are our 'felt concepts of life' - (All our childhood experiences - our laughs, fears, sorrows, troubles are recorded in this part and often replay even when we are 60 years old.) The Adult contains the THOUGHT concepts of life - (The rational part of us which is analytical, thoughtful - able to evaluate our 'taught concepts' and 'felt concepts' for their relevance and taking a conscious decision which is not directed by any dogmas/ whims / fears.
ReplyDeleteSo, people are not always rational, thoughtful people. They behave in a certain fashion because in their childhood they were taught that this was the way to do something. Or, they had some good or bad experiences, some haunting or pleasant memories associated with their childhood. All these things may drive them to behave in a certain fashion.
If even educated women feel unsecured when lonely in their houses, it is their childhood fears being replayed. They get solace when they have male members around. Perhaps they saw their mothers behaving like that and they are just replaying their parental recordings.
Hope I have been able to clarify what I wish to say. I would like to elaborate it some time. Till then, bye.
आपके कुछ आलेख तथा कविताओं को एकसाथ पढ़ा...कहने का तात्पर्य है,आपके पोस्टों का भ्रमण किया और फिर झट उसे अपने फेवरेट में एड कर लिया...अब तक जो ब्लोग्वानी के माध्यम से पोस्ट पर जाती थी,उसके स्थान पर सीधे जाकर नियमित पढ़ती रहूंगी.
ReplyDeleteपहली बार आपके स्वर में गीत सुना और बस यही लगा कि रूप रंग सोच संस्कार और इतने गुण भगवान् ने एक ही जगह ऐसे कैसे उडेल दिए...मन आह्लाद से भर गया.....आपपर ईश्वर और माँ सरस्वती के असीम अनुकम्पा है....
is lekh ne soch mein daal diya..... bahut hi achcha lekh.....
ReplyDeleteवर्किंग वुमन हो तो क्या..साथी की जरूरत तो उसे भी होती है, ये साथी कब गार्जियन बन जाता है या वो खुद बना देती है...औरतों को पहले खुद से ही स्वतंत्र होने की कोशिश करनी चाहिये...
ReplyDeleteDid not have patience for reading 56 comments. There won't be much that would add to my knowledge- there will be pitty, helplessness, guilt and blame women in comments made by men. Female comments will be lamenting male apathy and talking about dysfunctional patriarchal social structures. Here are my two cents:
ReplyDelete...घर में जब पुरूष सदस्य नहीं होता...अपने पाँव पर खड़ी आर्थिक रूप से ...
Yes, because she is brought up with messages that she is incomplete with out a man. She grew up watching what happens to single women, men make cat calls at them, stalk them and break into their homes, Just wearing a mangalsutra or sindoor keeps strange men away from them. But this security of marriage is not accorded to lower caste women who work in fields because upper caste men can rape them anytime. Hope you remember Bhanwari Devi Rape case that became the landmark for Supreme Court judgement on Work Place sexual harrassment.
If there were no fear that a strange man will not break into her home and sexually assault her a woman would not be so worried. A man might be fearful of theft but not sexual assault.
...एक महिला को sms मिला-'i like you।you are beautiful'...
That was not one sms, there is a histroy of stocking that lead to the case. The definition of harrassment is dependent on the impact on the harrassed.
...फिलपींस से आई मारिया को...
Many middle class women work towards collecting for their dowry or instalments of dowry when they get married. And top of it they are expected to come home and do the second shift (house keeping) then third shift (emotional caring of the spouse inorder to make him feel a man).
Yeh patriarchy hai, ek haath se deti hai aur kai haathon se leti hai... :)
For a change and gender equality women can only do 50% the other 50% has to come from men. But why would they give up their privilege? They'll give up their privilge only when they realize they are also suffering in this oppressive system. Unless they understand how violence against women is also their problem.
http://girlsguidetosurvival.wordpress.com/2010/11/02/take-back-the-night-2010/
Keep pushing for the change...
Peace,
Desi Girl
Did not have patience for reading 56 comments. There won't be much that would add to my knowledge- there will be pitty, helplessness, guilt and blame women in comments made by men. Female comments will be lamenting male apathy and talking about dysfunctional patriarchal social structures. Here are my two cents:
ReplyDelete...घर में जब पुरूष सदस्य नहीं होता...अपने पाँव पर खड़ी आर्थिक रूप से ...
Yes, because she is brought up with messages that she is incomplete with out a man. She grew up watching what happens to single women, men make cat calls at them, stalk them and break into their homes, Just wearing a mangalsutra or sindoor keeps strange men away from them. But this security of marriage is not accorded to lower caste women who work in fields because upper caste men can rape them anytime. Hope you remember Bhanwari Devi Rape case that became the landmark for Supreme Court judgement on Work Place sexual harrassment.
If there were no fear that a strange man will not break into her home and sexually assault her a woman would not be so worried. A man might be fearful of theft but not sexual assault.
...एक महिला को sms मिला-'i like you।you are beautiful'...
That was not one sms, there is a histroy of stocking that lead to the case. The definition of harrassment is dependent on the impact on the harrassed.
...फिलपींस से आई मारिया को...
Many middle class women work towards collecting for their dowry or instalments of dowry when they get married. And top of it they are expected to come home and do the second shift (house keeping) then third shift (emotional caring of the spouse inorder to make him feel a man).
Yeh patriarchy hai, ek haath se deti hai aur kai haathon se leti hai... :)
For a change and gender equality women can only do 50% the other 50% has to come from men. But why would they give up their privilege? They'll give up their privilge only when they realize they are also suffering in this oppressive system. Unless they understand how violence against women is also their problem.
http://girlsguidetosurvival.wordpress.com/2010/11/02/take-back-the-night-2010/
Keep pushing for the change...
Peace,
Desi Girl
Did not have patience for reading 56 comments. There won't be much that would add to my knowledge- there will be pitty, helplessness, guilt and blame women in comments made by men. Female comments will be lamenting male apathy and talking about dysfunctional patriarchal social structures. Here are my two cents:
ReplyDelete...घर में जब पुरूष सदस्य नहीं होता...अपने पाँव पर खड़ी आर्थिक रूप से ...
Yes, because she is brought up with messages that she is incomplete with out a man. She grew up watching what happens to single women, men make cat calls at them, stalk them and break into their homes, Just wearing a mangalsutra or sindoor keeps strange men away from them. But this security of marriage is not accorded to lower caste women who work in fields because upper caste men can rape them anytime. Hope you remember Bhanwari Devi Rape case that became the landmark for Supreme Court judgement on Work Place sexual harrassment.
If there were no fear that a strange man will not break into her home and sexually assault her a woman would not be so worried. A man might be fearful of theft but not sexual assault.
...एक महिला को sms मिला-'i like you।you are beautiful'...
That was not one sms, there is a histroy of stocking that lead to the case. The definition of harrassment is dependent on the impact on the harrassed.
...फिलपींस से आई मारिया को...
Many middle class women work towards collecting for their dowry or instalments of dowry when they get married. And top of it they are expected to come home and do the second shift (house keeping) then third shift (emotional caring of the spouse inorder to make him feel a man).
Yeh patriarchy hai, ek haath se deti hai aur kai haathon se leti hai... :)
For a change and gender equality women can only do 50% the other 50% has to come from men. But why would they give up their privilege? They'll give up their privilge only when they realize they are also suffering in this oppressive system. Unless they understand how violence against women is also their problem.
http://girlsguidetosurvival.wordpress.com/2010/11/02/take-back-the-night-2010/
Keep pushing for the change...
Peace,
Desi Girl
Did not have patience for reading 56 comments. There won't be much that would add to my knowledge- there will be pitty, helplessness, guilt and blame women in comments made by men. Female comments will be lamenting male apathy and talking about dysfunctional patriarchal social structures. Here are my two cents:
ReplyDelete...घर में जब पुरूष सदस्य नहीं होता...अपने पाँव पर खड़ी आर्थिक रूप से ...
Yes, because she is brought up with messages that she is incomplete with out a man. She grew up watching what happens to single women, men make cat calls at them, stalk them and break into their homes, Just wearing a mangalsutra or sindoor keeps strange men away from them. But this security of marriage is not accorded to lower caste women who work in fields because upper caste men can rape them anytime. Hope you remember Bhanwari Devi Rape case that became the landmark for Supreme Court judgement on Work Place sexual harrassment.
If there were no fear that a strange man will not break into her home and sexually assault her a woman would not be so worried. A man might be fearful of theft but not sexual assault.
...एक महिला को sms मिला-'i like you।you are beautiful'...
That was not one sms, there is a histroy of stocking that lead to the case. The definition of harrassment is dependent on the impact on the harrassed.
...फिलपींस से आई मारिया को...
Many middle class women work towards collecting for their dowry or instalments of dowry when they get married. And top of it they are expected to come home and do the second shift (house keeping) then third shift (emotional caring of the spouse inorder to make him feel a man).
Yeh patriarchy hai, ek haath se deti hai aur kai haathon se leti hai... :)
For a change and gender equality women can only do 50% the other 50% has to come from men. But why would they give up their privilege? They'll give up their privilge only when they realize they are also suffering in this oppressive system. Unless they understand how violence against women is also their problem.
http://girlsguidetosurvival.wordpress.com/2010/11/02/take-back-the-night-2010/
Keep pushing for the change...
Peace,
Desi Girl
काश, कि ये सम्मान दिल से (बिना कानून के) भी दि जाए तो बहुत बडी बात होगी।
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