'जोकर' ..'ताश की गड्डी का वो पत्ता होता है जिसका अपना कोई रंग नहीं होता '.यह है इस फिल्म का एक संवाद जिस के बाद फिल्म में जोकर का नाम बार-बार आना शुरू होता है और अंत में अक्षय 'जोकर' बेरंग के पत्ते की अहमियत समझाता है.
उनके साथ उनकी दोस्त भी साथ भारत आती है .गांव की बुरी हालात और यह जानकार कि यह गाँव देश के नक़्शे में है ही नहीं उन्हें आश्चर्य होता है. गाँव को मूलभूत सुविधाएँ दिलाने के लिए और नक़्शे में स्थान दिलाने के लिए सीधे रास्ते जब अक्षय सफल नहीं होते तो कुछ ऐसी ट्रिक्स करते हैं कि सब का ध्यान उस गाँव की तरफ आकर्षित हो और ऐसा होता भी है.लेकिन कहानी में विलेन न हो ऐसा कभी हो सकता है ?
संगीत ठीक-ठाक है .फिल्म का एक गाना याद रहता है जो दलेर मेहदी का गाया हुआ है ,मेरे ख्याल से वह पहले ही चार्ट बस्टर हो चुका है -'डांस कर ले इग्लिश में और नाच ले तू हिंदी में '.
मुझे यह फिल्म औसत ही लगी .सब्जियों से बने या असलीवाले एलियंस के दृश्य ही कुछ और डाले जाते तो इसे 'बच्चों की फिल्म 'तो कह सकते थे . अक्षय के स्टंट भी नहीं हैं जो अक्षय के चाहने वाले टिकट खिडकी पर जमा हों और इसे हिट करवा सकें .
प्रकाशित सभी तस्वीरें अपने मोबाइल से ली हुई हैं .
फिल्म-जोकर का एक दृश्य |
आज हिंदी फिल्म 'जोकर ' देखी .जिसके निर्देशक शिरीष कुंदर हैं .एमिरात में वीरवार को रिलीज़ हुई इस फिल्म के बारे में निर्देशक का यह कहना था कि इस फिल्म की कहानी 'छुपी हुई' है और उनके अनुसार लोगों को बहुत पसंद आएगी .
बड़े सितारे अक्षय कुमार और सोनाक्षी सिन्हा को ले कर बनाई गयी फिल्म से कई उमीद्दें थीं लेकिन इस बार बॉक्स ऑफिस पर इनकी जोड़ी पिछली फिल्म जैसा रंग नहीं जमा पायेगी.
यह फिल्म पौने दो घंटे की है ,अंतराल आता है तो लगता अरे !इतनी जल्दी इंटरवल.
फिल्म खतम होती है तो लगता है जल्दी में खतम की गयी है.
फिल्म खतम होती है तो लगता है जल्दी में खतम की गयी है.
मुझे पहले तो लगा कि शायद कुछ सीन काटे गए होंगे ,एमिरात में भी सेंसर होती है .
लेकिन जब पूरी जानकारी ली तो मालूम हुआ कि बस इतनी ही है.
लेकिन जब पूरी जानकारी ली तो मालूम हुआ कि बस इतनी ही है.
सुना है ,इस फिल्म को थ्री डी बनाने का सोचा गया था .मुझे लगता है शायद इसलिए महज एक घंटा ४५ मिनट की अवधि रखी गयी होगी .
निर्देशक ने इस फिल्म को बना कर लगता है कोई प्रयोग किया है .
यह व्यवसायिक रूप से शायद सफल नहीं होगी लेकिन कहीं न कहीं पुरुस्कारों के लिए नामांकित अवश्य हो जायेगी.
अक्षय-सोनाक्षी |
कहानी कुछ ऐसे है कि अक्षय अमरीका में एक वैज्ञानिक हैं जिन्हें एक महीने की मोहलत मिली होती है अपना प्रोजेक्ट पूरा करने के लिए .अब एलियंस से संपर्क करने की पूरी कोशिश के बावजूद उन्हें सफलता नहीं मिल रही है कि उनके गाँव से खबर आती है कि उनके पिताजी बीमार हैं .
उनके साथ उनकी दोस्त भी साथ भारत आती है .गांव की बुरी हालात और यह जानकार कि यह गाँव देश के नक़्शे में है ही नहीं उन्हें आश्चर्य होता है. गाँव को मूलभूत सुविधाएँ दिलाने के लिए और नक़्शे में स्थान दिलाने के लिए सीधे रास्ते जब अक्षय सफल नहीं होते तो कुछ ऐसी ट्रिक्स करते हैं कि सब का ध्यान उस गाँव की तरफ आकर्षित हो और ऐसा होता भी है.लेकिन कहानी में विलेन न हो ऐसा कभी हो सकता है ?
फ़िल्मी ड्रामा शुरू होता है और अंत सुखद .
एक पागलखाने से छूटे रोगियों के बसने से बने गाँव पगलापुर के शुरू के दृश्य तो बहुत ही मजेदार हैं .रंग-बिरंगे सेट भी लीक से हट कर दीखते हैं.
अभिनय-अक्षय सहित सभी कलाकारों का अभिनय अच्छा है .बिद्दू कहीं -कहीं ही दिखायी दिए परन्तु श्रेयस और संजय मिश्र का अभिनय प्रभावी है .सोनाक्षी की स्क्रीन प्रेसेंस आँखों को अच्छी लगती है.कई जगह रीना रॉय की झलक देती हैं.
आप को एक झलक फराह खान की भी इस फिल्म में देखने को मिलेगी [ज्ञात हो कि शिरीष कुंदर कोरियोग्राफर-निर्देशक फराह खान के पति हैं]
संगीत ठीक-ठाक है .फिल्म का एक गाना याद रहता है जो दलेर मेहदी का गाया हुआ है ,मेरे ख्याल से वह पहले ही चार्ट बस्टर हो चुका है -'डांस कर ले इग्लिश में और नाच ले तू हिंदी में '.
बाकि उदित नारायण को लंबे अरसे के बाद फिल्म में सुनकर बहुत अच्छा लगा.उनका गाया 'जुगनू 'गाना आते ही फिल्म-लगान की याद आ गयी .
मुझे यह फिल्म औसत ही लगी .सब्जियों से बने या असलीवाले एलियंस के दृश्य ही कुछ और डाले जाते तो इसे 'बच्चों की फिल्म 'तो कह सकते थे . अक्षय के स्टंट भी नहीं हैं जो अक्षय के चाहने वाले टिकट खिडकी पर जमा हों और इसे हिट करवा सकें .
यूँ ही समय गुज़ारना है ,घर-बाहर के काम से से पौने दो घंटे का ब्रेक लेना है तो देख आईये अन्यथा अगली नयी फिल्म का इंतज़ार करीए .
ये है वास्तविक एलियन .इसकी एंट्री देर में और एक्सिट जल्दी होती है . |
शुक्रिया इस सधी हुई शब्दश :संतुलित समीक्षा से बावस्ता करवाने के लिए ...
ReplyDelete. यहाँ भी पधारें -
शुक्रवार, 31 अगस्त 2012
लम्पटता के मानी क्या हैं ?
लम्पटता के मानी क्या हैं ?
कई मर्तबा व्यक्ति जो कहना चाहता है वह नहीं कह पाता उसे उपयुक्त शब्द नहीं मिलतें हैं .अब कोई भले किसी अखबार का सम्पादक हो उसके लिए यह ज़रूरी नहीं है वह भाषा का सही ज्ञाता भी हो हर शब्द की ध्वनी और संस्कार से वाकिफ हो ही .लखनऊ सम्मलेन में एक अखबार से लम्पट शब्द प्रयोग में यही गडबडी हुई है .
हो सकता है अखबार कहना यह चाहता हों ,ब्लोगर छपास लोलुप ,छपास के लिए उतावले रहतें हैं बिना विषय की गहराई में जाए छाप देतें हैं पोस्ट .
बेशक लम्पट शब्द इच्छा और लालसा के रूप में कभी प्रयोग होता था अब इसका अर्थ रूढ़ हो चुका है :
"कामुकता में जो बारहा डुबकी लगाता है वह लम्पट कहलाता है "
न्यूज़ में भी इस फिल्म के रिव्यूज कुछ अच्छे नहीं आये हैं. पता चला कि अक्षय इस फिल्म को लेकर कुछ नाराज़ हो गए हैं.
ReplyDeleteसोनाक्षी की अभी बस दबंग ही देखी है मैंने. मुझे भी वो रीना राय की झलक देती सी लगती हैं, पर उनसे ज्यादा क्यूट हैं.
...चलो भले बता दिया,देखनी नहीं पड़ेगी !
ReplyDelete...चलो भले बता दिया,देखनी नहीं पड़ेगी |
ReplyDeleteकहानी तो रोचक लग रही है..
ReplyDeletegood.
ReplyDeleteअच्छी समीक्षा ...देखते हैं हम भी....
ReplyDeleteSorry Shobhna ji..this comment was deleted by mistake.
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शोभना चौरे has left a new comment on your post "जोकर":
utsukta jga di hai aapne .
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अच्छी समीक्षा की है अल्पना जी आपने.देखना ही होगा..आभार..
ReplyDeleteआभार.
Deleteहमने तो सुना बहुत ही बोर है जोकर इसलिए देखने का मन नहीं बनाया ... देखो जल्दी ही टी वी पर आ जायगी तब देखेंगे अब तो ...
ReplyDeleteदेखेंगे पर टी वी पर आयेगी तब ही । समीक्षा सही है ।
ReplyDeleteचलिए आपके बजरिये यह फिल्म देख ली -पहले तो लगा कि साई फाई है मगर एलिएन के जिक्र भर से तो कोई फिल्म साई फाई नहीं हो जाती -अब नयी जगहं जाने के बाद लगता है फ़िल्में यहीं देखनी होंगी -व्योम के पार ! आप दिखाती रहिएगा !
ReplyDeleteक्या नयी जगह पर सिनेमा हाल भी नहीं है?ऐसी - कैसी जगह है?
Deleteखूबसूरत समीक्षा. अभी चेन्नई पहुँच गया हूँ. शनिवार "इंग्लिश विन्ग्लिश" जाने के लिए मुझे फुसला रहे हैं. सोच रहा हूँ देख आऊँ.
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