गरमी इस बार भी अपनी हदों को पार किये जा रही है.कल भी पारा ५० से ऊपर ही था.धूल भरी गरम खुश्क हवाएं दिन भर कहर ढाती हैं.सुबह ९ बजे के बाद नलों में आते पानी को हाथ लगा नहीं सकते. इतना गरम हो जाता है!हर साल अलऐन शहर यू.ऐ.ई का सब से गरम शहर होता है इस बार भी अपना रिकॉर्ड बनाये रखेगा! मई तो गुजरने वाला है,जल्दी से जून और जुलाई भी गुज़र जाएँ तब ही इस मौसम से निजात मिलेगी.मौसम की बात दर किनार कर ,पेश करती हूँ कुछ ख्याल-:
सुनिये अदाकारा और शायरा स्वर्गीय मीना कुमारी जी की आवाज़ में उन्हीं की लिखी हुई यह ग़ज़ल-
'पूछते हो तो सुनो-[download]'
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गरमी की परेशानी में इस गजल ने कुछ राहत दी है। सुन्दर।
ReplyDeleteसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
ख़ूबसूरत ख़्यालात
ReplyDeleteसभी ख्याल ख्यालों में खोने को मजबूर कर देते हैं.
ReplyDeleteहमेशा की तरह एक सुंदर गीत की प्रस्तुति के लिए साधुवाद. हालंकि इस बार आपकी आवाज़ में नहीं था.
अल्पना जी नमस्कार,
ReplyDeleteअरे जल्दी से बच्चो को संग ले कर हमारे यहां आ जाओ, मोसम बहुत अच्छा है आज कल , फ़िर अरूणा जी भी यही है , साथ मै आप का परिवार होगा तो ओर भी ज्यादा मजा आयेगा.
वेसे मै अप्रेल मै भारत गया तो उस समय भी बहुत गर्मी थी, अब तो ओर भी ज्यादा हो गई, फ़िर दुबाई मै तो ओर भी ज्यादा है ही,
अन्त मै आप ने बहुत ही सुंदर शेर दिया...
आज भी कहाँ दो जून रोटी है ?
कहने को वो परदेस में कमाता है!
धन्यवाद
एक से बढकर उम्दा खयाल. बहुत शानदार, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteमीनाकुमारीजी की आवाज मे उनकी गजल, मैं तो इमानदारी से कह रहा हूं कि, पहली बार ही सुन रहा हूं. बहुत ही सधी हुई आवाज. इनकी सीडी क्या नाम से मिलती है? या हो सके तो लींक दिजियेगा.
रामराम.
आपके यहाँ की गर्मी का हाल जानकार होश उड़ गए. क्या रातें भी गरम ही होती हैं? क्या ज़िन्दगी होगी आप सब की. हमारे यहाँ अभी ४४ चल रही है और हालत ख़राब है. "मजदूर का सच" कितनी सच्चाई छिपी है. सभी एअच्नाएं शानदार हैं. मीना कुमारी की एल पी ( I write, I recite) हमने १९७४ में खरीदी थी. हमें तो "जिसका जितना आँचल था" बहुत अच्छी लगी.थी. "पूछते हो तो सुनो" में वास्तव में मीना कुमारी जी ने अपना पूरा दर्द उंडेल कर रख दिया था.
ReplyDeleteगजल बहुत अच्छी है।
ReplyDeleteबार-बार सुनने को मन करता है।
आफ भी कहां कहां से चुन कर मोती चुग लाती हैं और हमें मालामाल किये जा रही है. ये नायाब क्लिप को आप के सौजन्य से सुनने को मिला , धन्यवाद.
ReplyDeleteमीना कुमारी का नाम जेहन में बाबस्ता है, भाव प्रवीण अभिनय के लिये, और उनका चेहरा खूबसूरती के साथ साथ expressive होता था. एक संपूर्ण भारतीय नारी का व्यक्तित्व था उनमे.मगर इतना सुरीला और एहसास के साथ तरन्नुम में गायी हुई ये नज़्म इस बात की पुष्टि करती है, कि वो एक आला दर्ज़े की गायिका भी थी.काश उन्होने कभी गाया भी होता फ़िल्मों में...
आसमान की ज़मीं पर पाँव मत रखना,
अपने हिस्से की तन्हाईयाँ बांटता है वो..
खूबसूरत खयाल.
वाह क्या बात है ...मीना जी की आवाज़ उनकी शख्शियत का एक अहम हिस्सा रही - और जैसा महसूस करतीँ थीँ वही सामने पेश कर देतीँ थीँ -
ReplyDeleteपाली हील पे पहली मँज़िल पर उनका फ्लेट और आगे की तरफ की ओवल शेप की गैलरी आज याद आ गयी है अल्पना जी शुक्रिया आपका ~~~
- लावण्या
-बुलंदी पर पहुँच कर सच में अकेलापन ही मिलता है..बहुत अच्छा शेर लगा.
ReplyDelete-मजदूरों की हर जगह हालत एक सी ही है.गरीबी से बड़ा कौन सा अभिशाप है!
-चित्र देख कर दुःख हुआ कि वहां भी इनकी हालत दयनीय ही है.दो घडी आराम करने को जगह कैसी मिली है..नीचे गत्ते बिछाए हुए हैं!
-मीना जी कि आवाज़ में दर्द भरा यह गीत उनकी याद ताज़ा कर गया.
-सुन्दर पोस्ट-धन्यवाद
बहुत उम्दा...एक तरफ गरमी की जलन और दूसरी तरफ शब्दों और गज़ल की शीतल फुहार...बहुत राहत देती.
ReplyDeleteचित्र और भावः की अनूठी संगत........ सुकून देती .अल्पना जी काश हम न्यू यार्क की इस मौसम में भी जरूरत से ज्यादा ठंढी निर्यात कर सकते .
ReplyDeleteऔर मीनाकुमारी की शयिरी और आवाज़ , शीतलता एक्स्ट्रा !
wah "faisle ye kaise" "bulandi par" "mere aziz" " mazdoor" alpana ji , sabhi kshanikayen, gahri bhavabhivyakti liye huye. khas taur par mujhe bulandi par bahut bha gai. geet sun raha hun , lajawaab geet. sadhuwaad.
ReplyDeleteगर्मी की सुन रुलाई आयी गजल ने राहत पहुंचाई !बहुत खूब !
ReplyDeleteअल्पना जी, इस पोस्ट को पढ़ने के लिए थोड़े और समय की जरूरत है वरना नाइंसाफी होगी. समय से कुछ मोहलत ले कर हाज़िर होता हूँ.
ReplyDeleteसब एक से बढ़कर एक ,जितनी तारीफ की जाय कम है ,और ग़ज़ल के क्या कहनें .
ReplyDeleteउदासियों के शज़र तले रहने दो मुझको,
ReplyDeleteइनके साए में खुद से मुलाकातें होती हैं.
कितनी खूबसूरती से कितनी गहरी बात आपने कर डाली.... सतब्ध कर देने वाली बात है ये तो पूरी तरह से मुकम्मल.. ढेरो बधाई आपको...
अर्श
मेरे दिल की बात आप कैसे जान गयी.
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा है...
मीत
आपके शहर की गर्मी का हाल सुनकर कुछ राहत मह्सूस हो रही है।कहते है न आदमी अपने सुखों से नही दूसरो की परेशानी से सुखी होता है।हा हा हा हा हा………॥ वैसे खयाल बहुत खूबसूरत है।
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्तियाँ |
ReplyDeleteअवनीश तिवारी
आसमान की ज़मीं पर पाँव मत रखना,
ReplyDeleteअपने हिस्से की तन्हाईयाँ बांटता है वो.
उदासियों के शज़र तले रहने दो मुझको,
इनके साए में खुद से मुलाकातें होती हैं.
बहुत खूब....! और मीना कुमारी की आवाज़ और अशआर बाँटने का शुक्रिया..!
गर्मी में आपकी रचनाओं ने ठंडी हवा के झोंके का काम किया है...वाह..
ReplyDeleteनीरज
बहुत सुंदर.
ReplyDeleteहरेक ख़याल में मौजूद गहरे भावों ने मौन कर दिया....
ReplyDeleteबहुत बहुत सुन्दर..
हम तो ४७ डिग्री झेलकर ही छटपटा गए थे....५० डिग्री....बाप रे बाप...
आज भी कहाँ दो जून रोटी है ?
ReplyDeleteकहने को वो परदेस में कमाता है!
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रियली? वहां के कंस्ट्रक्शन वर्कर के बारे में जानने की जिज्ञासा जग गई है!
आसमान की ज़मीं पर पाँव मत रखना,
ReplyDeleteअपने हिस्से की तन्हाईयाँ बांटता है वो...
क्या बात है.....
और यह ग़ज़ल तो मेरी जुबां,मेरे अन्दर हमेशा रहती है
यहाँ आकर दिल खुश हो जाता है क्योंकि एक साथ दो दो चीजें मिलती है। पढने का सुकून और सुनने का सुकून। और आज जब मीना कुमारी जी आवाज में एक उनकी लिखी एक ग़ज़ल सुनावा दी। तो दिल खुश हो गया। स्कूल के दिनों उनकी एक किताब हाथ लगी थी तब ही से उनका फैन हो गया था। और आपकी लेखनी का तो जवाब नही।
ReplyDeleteसुखी कोई नहीं, हम सोच रहे हैं कब जल्दी से गर्म हो, १ दिन गर्म होता है उसके बाद फिर वोही ठण्ड
ReplyDeleteमजदूर को पढ़ कर कई लोगो का भरम टूट जाएगा....बहुत खूब
तरुण
चुनाचे ...मजदूर कही का भी हो ...मुश्किलें वही है....पेट भी ....बस रोटियों ने सूरत बदली है .....
ReplyDeleteमत पूछो ये बे-मौसम मे बरसात क्यों कर आयी है
लगता है परदेस मे किसी मज़दूर को वतन की याद आयी है
मय्यसर उसको,
ReplyDeleteआज भी कहाँ दो जून रोटी है ?
कहने को वो परदेस में कमाता है!
jaise jaise apne kamaane ke din paas aa rahe hai,aisa lag raha hai maano zindagi ko aur samajh paa raha hoon...aapki in panktiyo ne sabse adhik prabhaavit kiyaa :)
www.pyasasajal.blogspot.com
... उम्दा-उम्दा शेर ... बहुत खूब ... प्रसंशनीय ।
ReplyDeleteइन मुख्तलिफ़ शेरों को पढ़ कर मजा आ गया.."आसमान की ज़मीं पर पाँव मत रखना,/अपने हिस्से की तन्हाईयाँ बांटता है वो" ये वाला शेर बहुत भाया..
ReplyDeleteऔर ये गर्मी???????? ये क्या चीज है?
दासियों के शज़र तले रहने दो मुझको,
ReplyDeleteइनके साए में खुद से मुलाकातें होती हैं.
वाह.........कितने खूबसूरत पल उतारे हैं आपने , सुन्दर चित्रों के साथ. ये शेर खास है,.....अक्सर इंसान उदासियों में खुद को तलाशता है.....सो आने सच बात........गर्मी वाकई बहूत हो रही है..... आगे आगे क्या होगा......
बहुत ही सुन्दर मन को छु लेने वाले शब्द,शेर क्या कहूं......मोतियों की तरहां सुशोभित कर रहे हों जैसे आपके दिल-मन आपके विचारों को
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा......
आपने त्रेवेनियाँ लिखी थी बहुत पहले बहुत अच्छी लगी.........वो भी....
कुछ मैंने भी लिखी हैं आपकी नज़र चाहूंगा....
अक्षय-मन
http://akshaya-mann-vijay.blogspot.com
beautiful post.
ReplyDelete-Anita
उदासियों के शज़र तले रहने दो मुझको,
ReplyDeleteइनके साए में खुद से मुलाकातें होती हैं.
बहुत बहुत सुन्दर .यह एक सच है ...गर्मी है कि आग बरस रही है ..वहां ..मीना कुमारी की यह अनमोल आवाज़ सुनाने का शुक्रिया
आसमान की ज़मीं पर पाँव मत रखना,
ReplyDeleteअपने हिस्से की तन्हाईयाँ बांटता है वो.
उदासियों के शज़र तले रहने दो मुझको,
इनके साए में खुद से मुलाकातें होती हैं.
बेशकीमती ख्याल पढ़े और महसूस भी किये !
ख्याल की खूबसूरती यह है कि पंक्तियाँ मौन
हो जाती हैं लेकिन पढने वाला भीगता रह जाता है !
पोस्ट का एक सशक्त आकर्षण है ख्याल के साथ संजोये गए
खूबसूरत चित्र !
चित्रों के चयन में भी कमाल किया है आपने !
मीना जी की कशिश भरी आवाज को सुनना एक अनोखा अहसास है !
बार-बार सुनने का मन करता है !
दो जून रोटी से याद आया कि बहुत पहले ही धूमिल साहब कह गए है "एक आदमी रोटी बेलता है, एक आदमी खाता है, एक तीसरा आदमी भी है जो सिर्फ रोटियों से खेलता है"
एक और बेहतरीन पोस्ट के लिए बधाई !
Quite a nice blog,
ReplyDeleteand
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आसमान की ज़मीं पर पाँव मत रखना,
ReplyDeleteअपने हिस्से की तन्हाईयाँ बांटता है वो.
वाह...वाह....बहुत खूब.......!!
उदासियों के शज़र तले रहने दो मुझको,
इनके साए में खुद से मुलाकातें होती हैं.
लाजवाब....अल्पना जी छू गयीं ये पंक्तियाँ.....!!
सब ख़याल खूबसूरत है, बहुत बढ़िया
ReplyDeleteउदासियों के शज़र तले रहने दो मुझको,
इनके साए में खुद से मुलाकातें होती हैं.
प्रतीक्षा...इस कविता को अपनी आवाज़ में अपने संशिप्त परिचय के साथ मेरे पास भेज दें rasprabha@gmail.com
ReplyDeletesundar abhivyakiti.
ReplyDeleteउदासियों के शज़र तले रहने दो मुझको,
ReplyDeleteइनके साए में खुद से मुलाकातें होती हैं.
waah bahut sunder,wo aakhari roti aur pardeswala bhi.dil tak chala gaya.garmi yaha to ab kum hone lagi hai.haa magarbaarish abhi nahi aayi.meena kumari ji ki gazal sach mein badi khubsurat,dilkash lagi.
sahi kaha aapne,hum kuch ogon ka shurawati dour ka saath,gehre dosti kab tapdil hua pata hi nahi chala.
yuhi aap hamare humsafar bane rahiye
tera aks dost dil mein basta hai rab sa.
आसमान की ज़मीं पर पाँव मत रखना,
ReplyDeleteअपने हिस्से की तन्हाईयाँ बांटता है वो.वाह बहुत खूब लिखा है आपने.
एसी दर्श्न्युक्त कल्पना कम पढ्ने को मिलती है.
वेसे तनहइयो से डर कर आसमान पर पहुचने की इच्छा को खत्म कर सकना मुमकिन भी नहीं.
और ये चित्र, गाना ...../ क्रिकेट की भाषा में कहू तो हेट्रिक है, ऐसी हेट्रिक जो लुभा लेती है.
आसमान की ज़मीं पर पाँव मत रखना,
ReplyDeleteअपने हिस्से की तन्हाईयाँ बांटता है वो
उदासियों के शज़र तले रहने दो मुझको,
इनके साए में खुद से मुलाकातें होती हैं
Dil ko chu gayi.Badhai.
दूर के ढोल सुहावने हैं. अल्पना जी, परदेस में घी-शक्कर नहीं मिलता... खैर....
ReplyDeleteअल्पना जी अपनी गैरहाजिरी के लिए क्षमा चाहता हूं काफी दिनों बाद बलाग जगत में आया हूं
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी प्रस्तुति लगी लेकिन अंत वाली
मय्यसर उसको,
आज भी कहाँ दो जून रोटी है ?
कहने को वो परदेस में कमाता है!
बेहतरीन
आसमान की ज़मीं पर पाँव मत रखना,
ReplyDeleteअपने हिस्से की तन्हाईयाँ बांटता है वो.
बेहद कशिश है इस शेर में |
सभी शेर लाजवाब .
हर बार की तरह
ReplyDeleteहर प्रस्तुति शानदार
लाजवाब
कमी है तो सिर्फ meri taraf..अल्फाज़ की..
तब्सेरा करना ही मुश्किल महसूस हो रहा है ...
कम शब्दों में इतना कुछ कह पाना
सिर्फ आपकी लेखनी का ही कमाल है
अभिवादन स्वीकारें
---मुफलिस---
सुन्दर मोहक अभिव्यक्ति
ReplyDeleteगागर में सागर भरती रचनाएं रच दी हैं आपने। बधाई।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
alpana didi
ReplyDeletehame aapka blog bahut sundar laga.
majdoor wali kavita sabse achi lagi.
(मुन्सिफों ka matlab kya hota hai?)
मय्यसर उसको,
ReplyDeleteआज भी कहाँ दो जून रोटी है ?
कहने को वो परदेस में कमाता है!
अल्पना जी, गरीब के लिए क्या देश और क्या परदेस!.....बहरहाल आपने लिखा बहुत दमदार है....सारी की सारी पोस्ट ही काबिले तारीफ है।
मय्यसर उसको,
ReplyDeleteआज भी कहाँ दो जून रोटी है ?
कहने को वो परदेस में कमाता है!
मन को छू कर दिमाग को झनझनाने वाली कविता आपके सहृदयता और मानवता के प्रति गहरी संवेदना की ओर इंगित कराती हैं. इतनी छोटी, इतने कम शब्दों में, अद्भुत. मेरी सलाम कबूल करें.
अरुण कुमार झा
ओह हो....लगता है पहुँचते-पहुँचते थोड़ी देर हो गयी.....खैर जब आपने इतनी मेहनत करके इस तपती गर्मी से राहत दे ही दी है तो मैं भी बिना कुछ लिखे जाने वाला नहीं......लेखन उत्तम, ग़ज़ल अति उत्तम.....सुनवाने के लिए धन्यवाद!!!
ReplyDeleteसाभार
हमसफ़र यादों का.......
क्या कहूँ,क्या लिखूं....ऐसे शेरों मुंह सिल जाता है....कलम भी चुप....और बढ़िया या उम्दा कहने से काम चलता नहीं....!!
ReplyDeleteअल्पना जी
ReplyDeleteअभिवंदन
एक से एक शेर
और उसके बाद मीना जी की ग़ज़ल सूनी
" साँस भरने को तो जीना कहते या रब "
वैसे तो मीना कुमारी जी की निजी ग़ज़लें मैंने पढ़ी हैं ,
लेकिन एक लम्बे अरसे बाद उनकी आवाज सुन कर जो संतुष्टि प्राप्त हुई वह भी कम नहीं है.
आभार.- विजय
durlabh fazal ke ek ek lafz me gehrai hai...khoobsoorat gazal
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