दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में आज तीसरे चरण के मतदान हो रहे हैं.इन चुनावों के माहोल की गरमी हो या मौसम की गरमी .दोनों ही पूरे जोरों पर हैं.
स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी देश में बेरोज़गारी एक समस्या बनी हुई है.आज़ादी के ५० साल पूरे होने के अवसर पर यहाँ से एक पत्रिका [souvnir-१९९७-९८ में] निकाली गई थी ,उस में छपी मेरी यह कविता आज प्रस्तुत कर रही हूँ।
बेरोज़गार
----------
अन्धकार में अकस्मात,
एक रोशनी की किरण चमकी तो थी,
मगर,लुप्त हो गई!
आज फिर सोना होगा,बेबसी की चादर तले.
थक गया हूँ द्वार खटखटाकर ,
हर खुले द्वार के पीछे मिले अन्धकार के साए!
समझ से परे है कि यहाँ रोशनी भी बेनूर है,
जीवन के पिछले बसंत कितने सुहाने थे,
जब इस यात्रा की तैयारी भर करनी थी,
डगर यूँ होगी कठिन ,यह अहसास न था
पांवों में पड़े छाले ,हाथों का खुरदरापन,
बोलने लगते हैं,
मैं ही तो था,पिता की अंतिम आशा!
उनकी अपेक्षाएं अब कन्धों पर बोझ बनी,
खुद की नज़रों में मुझे छोटा किये जाती हैं!
कमर पर डिग्रियां, गले में तमगे अर्थहीन लगते है अब,
काश इन की जगह होते कुछ हरे पत्ते और सिफारिशों के टुकड़े!
छू लेता आसमान मैं भी जिनके सहारे!
हँसता ,नियति के क्रूर चेहरे पर!
मगर मैं माध्यम वर्ग का अदना सा प्राणी-
हंसने की कोशिश में ,
रिसने लगता है खून जिस के होठों से!
चलो--
कल की आस पर,
पलट देता हूँ आज का पृष्ठ!
सो जाता हूँ ओढ़ कर बेबसी की झीनी चादर को,
सपनो की मीठी रोटी खा,
दिलासाओं का खारा पानी पी,
इस आशा में -कि-शायद-
कल का सूरज काला नहीं ,उजाला बन कर आएगा!
--------[लिखित द्वारा --अल्पना वर्मा १९९७] -
स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी देश में बेरोज़गारी एक समस्या बनी हुई है.आज़ादी के ५० साल पूरे होने के अवसर पर यहाँ से एक पत्रिका [souvnir-१९९७-९८ में] निकाली गई थी ,उस में छपी मेरी यह कविता आज प्रस्तुत कर रही हूँ।
बेरोज़गार
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अन्धकार में अकस्मात,
एक रोशनी की किरण चमकी तो थी,
मगर,लुप्त हो गई!
आज फिर सोना होगा,बेबसी की चादर तले.
थक गया हूँ द्वार खटखटाकर ,
हर खुले द्वार के पीछे मिले अन्धकार के साए!
समझ से परे है कि यहाँ रोशनी भी बेनूर है,
जीवन के पिछले बसंत कितने सुहाने थे,
जब इस यात्रा की तैयारी भर करनी थी,
डगर यूँ होगी कठिन ,यह अहसास न था
पांवों में पड़े छाले ,हाथों का खुरदरापन,
बोलने लगते हैं,
मैं ही तो था,पिता की अंतिम आशा!
उनकी अपेक्षाएं अब कन्धों पर बोझ बनी,
खुद की नज़रों में मुझे छोटा किये जाती हैं!
कमर पर डिग्रियां, गले में तमगे अर्थहीन लगते है अब,
काश इन की जगह होते कुछ हरे पत्ते और सिफारिशों के टुकड़े!
छू लेता आसमान मैं भी जिनके सहारे!
हँसता ,नियति के क्रूर चेहरे पर!
मगर मैं माध्यम वर्ग का अदना सा प्राणी-
हंसने की कोशिश में ,
रिसने लगता है खून जिस के होठों से!
चलो--
कल की आस पर,
पलट देता हूँ आज का पृष्ठ!
सो जाता हूँ ओढ़ कर बेबसी की झीनी चादर को,
सपनो की मीठी रोटी खा,
दिलासाओं का खारा पानी पी,
इस आशा में -कि-शायद-
कल का सूरज काला नहीं ,उजाला बन कर आएगा!
--------[लिखित द्वारा --अल्पना वर्मा १९९७] -
'आज प्रस्तुत है गीत-'रुके रुके से क़दम',जो फिल्म-मौसम से है,लिखा है -गुलज़ार साहब ने और संगीत मदन मोहन जी का है. यह मूल गीत नहीं है . यह गीत यहाँ से डाउनलोड कर सकते हैं.[ Mp3] यह विडियो २ मई को जोड़ा गया है. टिप्पणी फॉर्म पर सीधा पहुँचने हेतु यहाँ क्लिक करें. |
---|
बस सब कुछ हासिल और आसन करने की कोशिशें सदियों से उन्हीं अंधेरों में पड़ी है जहां वे थी.
ReplyDeleteगीत मेरी पसंद का है और आज पहली बार आपकी आवाज़ भी सुनी.
भारतीय लोकतंत्र - हमारा गर्व
बेरोजगार सही शब्द दिए हैं आपने ...पर उम्मीद का दामन थामे रहना भी अच्छा लगा
ReplyDeleteगाना बहुत पसंद आया .गुलजार के लफ्जों के जादू के साथ आपकी आवाज़ भी अच्छी लगी ..शुक्रिया
थक गया हूँ द्वार खटखटा कर ( नो वेकेंसी )का माकूल चित्रण / ""जीवन के .......अहसास न था"" विद्यार्थी जीवन में कभी ऐसी कल्पना भी नहीं की होगी ,कि बेरोजगारी का मुंह ताकना पड़ेगा उस वक्त तो स्वम ने व माँ बाप ने कलेक्टर ,बंगला ,गाडी के सपने देखे होंगेहरे पत्ते और शिफारिश आज की आवश्यक आवश्यकता बन गई है बहुत ही सही लेकिन व्यंगात्मक लहजे में यह बात दर्शाई गई हैपिता की अंतिम आशा और बेरोजगार पुत्र का डिप्रेसन में आजाना ,निराश रहना ,चिडचिडा होजाना ,बात बात पर माँ बहिनों से झल्ला जाना ,अक्सर क्रोधित रहना ,नींद न आना को "खुद की नजरों में छोटा "बहुत उचित वाक्यांश प्रयोग किया गया हैतथा हंसने की कोशिश में खून रिसने लगता है और कल की आस पर आज का प्रष्ट पलट देना वास्तविक अभिव्यक्ति /( छोटा सा व्यंग्य -साहित्य कार की यही विशेषता होती है कि जो स्वं पर नहीं बीता उसका भी ऐसा चित्रण कर देता है कि लगता है लेखक आपबीती सुना रहा है .) इस रचना को द्रश्य काव्य कहा जा सकता है क्योंकि पढ़ते पढ़ते बेरोजगार युवक की ऊपर वर्णित तस्वीर दिखने लगती है
ReplyDeleteइस आशा में -कि-शायद-
ReplyDeleteकल का सूरज काला नहीं ,उजाला बन कर आएगा!
शायद आज भी ये रचना समयिक ही है. बहुत शुभकामनाएं.
आपकी आवाज मे ये गाना सुनना, इस ४४ दिग्री की गर्मी मे एक शीतलता का एहसास दे रहा है. बहुत खूबसूरत.
रामराम.
कुछ दौरे आपके ब्लॉग के लगा गया पर समझ नहीं आया क्या कहूँ मेरी कविता की जानकारी बहुत कम है . ये जरूर कहना चाहूँगा बेरोजगारी के सन्दर्भ में कि, इतना इसके बारे में कहा जाता है, लेकिन आज खेतों में काम करें के लिए भी लोग मुश्किल से मिलते हैं
ReplyDeleteजीजिविषा और जीवन के प्रति आशान्विता आपकी कविताओं का मूल स्वर है -बहुत अच्छी लगी यह कविता भी !
ReplyDeleteमाध्यम= मध्यम
ऐसी पंक्ति भला अमृता प्रीतम के अलावा कौन लिख सकता है !
ReplyDeleteयह कविता नहीं है !
ReplyDeleteएक कहानी की तरह हमारी आँखों में
बिम्ब उभरते हैं !
बेरोजगार के मन का अवसाद और दर्द
समझा जा सकता है :
"यहाँ रोशनी भी बेनूर है,"
युवक जब तक अध्ययनरत रहता है तब तक
सब आसान लगता है .....
न कोई चिंता न कोई गम
समुन्दर भी एक छलाँग से ज्यादा का
नहीं लगता !
बाद में सब उलट-पुलट जाता है !
यथार्थ की कठोर चट्टानें सामने आ खड़ी होती हैं !
सपने दम तोड़ने लगते हैं :
"डगर यूँ होगी कठिन ,यह अहसास न था"
धीरे-धीरे उम्मीदें शिथिल पड़ने लगती हैं !
आत्मविश्वास बुरी तरह हिल जाता है :
"खुद की नज़रों में मुझे छोटा किये जाती हैं"
कविता का सबसे अच्छा पक्ष यह है कि
आशाएं बरकरार हैं :
"कल का सूरज काला नहीं ,
उजाला बन कर आएगा"
यही मानव का श्रेष्ठ गुण है !
अल्पना जी आपने रचनाकार का नाम नहीं दिया !
आपको नाम अवश्य लिखना चाहिए !
ऐसी कविता पर 'वाह' नहीं 'आह' निकलती है !
प्रस्तुति के लिए आभार !
बहुत ही सामयिक रचना और आपके इन लाइनों पर विशेष ध्यान देना चाहूँगा कि -
ReplyDelete"इस आशा में -कि-शायद-
कल का सूरज काला नहीं ,उजाला बन कर आएगा!""
इसी बात पर मुझे भी किसी कवि की ये लाइनें याद आ रहीं हैं कि -
होके मायूस ना यूँ शाम से ढलते रहिये ,
जिन्दगी भोर है सूरज से निकलते रहिये .
आपको पुनः बधाई अच्छी रचना के लिए .
"कल का सूरज काला नहीं ,उजाला बन कर आएगा"
ReplyDeleteजीने के लिए यही सोच आवश्यक है.
यह गीत हमें बहुत पसंद है. आपने बहुत ही अच्छा गाया है. हम बड़े उत्सुक थे कि उस दूसरे "चले" को आप कैसे गाओगी. निभा लिया. बहुत अच्छा लगा. .
एक माध्यम वर्गीय परिवार तो हमेशा से परेशानियाँ झेलता रहा है ...कभी किसी कारण तो कभी किसी कारन ...और सबसे बड़ा कारन पैसा ...और उसका कारण बेरोजगारी और भ्रष्टता
ReplyDeleteकल की आस पर,
ReplyDeleteपलट देता हूँ आज का पृष्ठ!sach hai kal ka suraj kala nahi hoga.....hope 4 the best...
चलो--
ReplyDeleteकल की आस पर,
पलट देता हूँ आज का पृष्ठ!
सो जाता हूँ ओढ़ कर बेबसी की झीनी चादर को,
सपनो की मीठी रोटी खा,
दिलासाओं का खरा पानी पी,
इस आशा में -कि-शायद-
कल का सूरज काला नहीं ,उजाला बन कर आएगा!
ये पंक्तियाँ दिल में फिर से उम्मीद भारती हैं...
बहुत खूबसूरत रचना...
मीत
अल्पना जी
ReplyDeleteये कविता आज भी उतनी ही सार्थक है जितनी १० वर्ष पहले थी............बेरोजगार आज भी वाही यंत्रणा झेल रहा है, उतनी ही बेरोजगारी आज भी है देश में .............पर सही लिखा उम्मीद बाकी है..........
इस आशा में -कि-शायद-
कल का सूरज काला नहीं ,उजाला बन कर आएगा
गीत भी बहूत खूबसूरत है आपके ब्लॉग पर ....रुके रुके से कदम.............रुक के बार बार चले
ऊपरवाले ने आपको बहुत अच्छी आवाज़ से नवाजा है, बधाई...
ReplyDeleteकविता और गीत दोनों एक से बढ़कर एक.. बेरोजगारी एक बड़ी समस्या है औऱ आर्थिक मंदी की वजह से औऱ विकराल रूप लेती जा रही है.. आपकी कविता पुरानी होने के बावजूद सामयिक लग रही है.. आभार
ReplyDeleteक्या कहूँ अल्पना जी कुछ हँसते चेहरों पर एक अजीब सी खामोशी आ गई है। माथे पर चिंता की लकीरे साफ नज़र आ रही है। आज की आपकी पोस्ट पढकर लगा आज भी वही हालात है।
ReplyDeleteमगर मैं माध्यम वर्ग का अदना सा प्राणी-
हंसने की कोशिश में ,
रिसने लगता है खून जिस के होठों से!
सच कह दिया है।
कल का सूरज काला नहीं ,उजाला बन कर आएगा!
ये बात सही में ही सच साबित हो। खामोश चेहरे फिर से मुस्कराए। गाना घर जाकर ही सुना जाऐगा जी।
यह गाना मेरी पसंदीदा गानों में से एक है। ऐसे गानों को सुनकर ही बडे हुए है।
चलो--
ReplyDeleteकल की आस पर,
पलट देता हूँ आज का पृष्ठ!
सो जाता हूँ ओढ़ कर बेबसी की झीनी चादर को,
सपनो की मीठी रोटी खा,
दिलासाओं का खरा पानी पी,
इस आशा में -कि-शायद-
कल का सूरज काला नहीं ,उजाला बन कर आएगा!
ek asha hi hai jiske sahare insaan poora jiwan kaat deta hai, hum bhi isi
asha men hain kab bharat se berojgari door hogi, aur kal ka suraj kala nahin ujala ban kar aayega. khubsurat pankti
yon ke liye badhai.
चलो--
ReplyDeleteकल की आस पर,
पलट देता हूँ आज का पृष्ठ!
सो जाता हूँ ओढ़ कर बेबसी की झीनी चादर को,
सपनो की मीठी रोटी खा,
दिलासाओं का खरा पानी पी,
इस आशा में -कि-शायद-
कल का सूरज काला नहीं ,उजाला बन कर आएगा!
ek asha hi hai jiske sahare insaan poora jiwan kaat deta hai, hum bhi isi
asha men hain kab bharat se berojgari door hogi, aur kal ka suraj kala nahin ujala ban kar aayega. khubsurat pankti
yon ke liye badhai.
माफ कीजियेगा अल्पना जी !
ReplyDeleteमैंने चित्र पर ध्यान नहीं दिया था !
अभी जब "इनलार्ज" करके देखा तो
पता चला कि यह कविता तो आप की
ही लिखी हुयी है !
कितनी विधाओं में आपको महारत हासिल है ?
पांवों में पड़े छाले ,हाथों का खुरदरापन,
ReplyDeleteबोलने लगते हैं,
मैं ही तो था,पिता की अंतिम आशा!........
सो जाता हूँ ओढ़ कर बेबसी की झीनी चादर को,
सपनो की मीठी रोटी खा,
दिलासाओं का खरा पानी पी,
इस रचना में निम्न -मध्मवर्गीय जीवन की हकीकत ,बेबसी पूरी तरह से उभर कर सामने आयी है .जो आज भी सामयिक है .
कल का सूरज काला नहीं ,उजाला बन कर आएगा!
ReplyDeleteaaj bhi yahi haal.......ummide kal ke sooraj par tiki he.....///////
hnaa sooraj ugaa to tha, chamchamate roop me ...magar afsos netao ne use dakaar liyaa...
hanumaanji ne to bs masti aour sooraj ko seekh dene use muh me rakh kar ugalaa thaa, par vidambna esi he ki neatao ne nigalaa he...
koi doctor hi nikaal saktaa he use,,,filhaal talaash he, taaki aapki kavita bhi saarthak ho.//////
अच्छी उकेरी है मध्यवर्ग की कुण्ठा। धन्यवाद।
ReplyDeleteबहुत खूब।
ReplyDeleteकिसी को पेट भरने मयस्सर है नहीं रोटी।
बहुत से लोग खा खाकर यहाँ बीमार होते हैं।
जिन्हें रातों में बिस्तर के कभी दर्शन नहीं होते।
बिछाकर धूप टुकड़ा ओढ़ अखबार सोते हैं।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
चलो--
ReplyDeleteकल की आस पर,
पलट देता हूँ आज का पृष्ठ!
आस का दामन थामे रखना भी जीवन
को हरक़त देते रहने के बराबर है ....
परेशानी के आलम में भी पैगाम का परचम
बलंद रखती हुई एक अछि रचना ...
---मुफलिस---
'कमर पर डिग्रियां, गले में तमगे अर्थहीन लगते है अब,
ReplyDeleteकाश इन की जगह होते कुछ हरे पत्ते और सिफारिशों के टुकड़े!
छू लेता आसमान मैं भी जिनके सहारे!'
-आज आजादी के ६२ साल के बाद भी यही स्थिति है | मधुर गीत के लिए साधुवाद |
पांवों में पड़े छाले ,हाथों का खुरदरापन,
ReplyDeleteबोलने लगते हैं,
मैं ही तो था,पिता की अंतिम आशा!
उनकी अपेक्षाएं अब कन्धों पर बोझ बनी,
खुद की नज़रों में मुझे छोटा किये जाती हैं!
वाह जी अल्पना जी बहुत ही शानदार आप दिन ब दिन महारत हासिल करते जा रहे हो शुभकामनाएं आपको
सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDelete---
चाँद, बादल और शाम ! गुलाबी कोंपलें
कभी तो सबेरा होगा-यही उम्मीद है. गाया बहुत बढ़िया.
ReplyDeleteअल्पना जी
ReplyDeleteआपकी लिखी कविता
आज भी हर पँक्ति मेँ
भावपूर्ण लगतीँ हैँ ...
गीत आपने सुँदरता से गाया है
..ये सुकुन देता है
इस तरह साहित्य, गायन जैसी कला विधा से जुडे रहना
बधाई और आगे भी करती रहेँ
स स्नेह,
- लावण्या
आशा पर आकाश थमा है...
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति।
AAPKE BLOG PAR KAVYA AUR SANGEET KA ANOOTHA AUR MOHAK SANGAM MILTA HAI .
ReplyDeleteAAP JIN CHUNINDA GEETON KO GANE KE LIYE CHUNTEE HAIN VO HINDEE FILM SANGEET KE APNE VAQT KE HEE NAHEEN AAJ BHEE AUR KAL BHEE SADABAHAR AUR JANE JATE RAHENGE .
IN UTTAM PRASTUTIYON KE LIYE DHANYAVAAD .
... बेहद खूबसूरत, प्रभावशाली, प्रसंशनीय अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteआपने ब्लॉग का टेम्पलेट बहुत प्यारा चुना है। गर्मियों के हिसाब से आंखों को ठंडक पहुंचाने वाला।
ReplyDeleteकविता भी बेरोजगारों के दर्द को भलीभांति पाठकों तक पहुंचाने में समर्थ होती है।
----------
सावधान हो जाइये
कार्ल फ्रेडरिक गॉस
bahut shi kaha
ReplyDeletehar pach sal me ranggen sapne dikhaye jate hai parntu ham bhi kya kre ham vishvas karna nhi chodte aur har bar chle jate hai vishvas krke .
dhanywad
bhut sahi kha
ReplyDeletehar pach sal me rngeen sapne dikhaye jate hai aur ham vshvas kr chle jate hai par kya kre vishvas karna hmare sanskaro me ach bs gya hai aur usi ka fayda ve log uthate jate hai .
bdhai
कविता अच्छी है। इसके प्रकाशित होने पर बधाई।
ReplyDeleteकैराओके पर लता के इन कठिन गानों को गाना बहुत हिम्मत का काम है।
कमर पर डिग्रियां, गले में तमगे अर्थहीन लगते है अब,
ReplyDeleteकाश इन की जगह होते कुछ हरे पत्ते और सिफारिशों के टुकड़े!
छू लेता आसमान मैं भी जिनके सहारे!
हँसता ,नियति के क्रूर चेहरे पर!
.....yah sthiti jaane kab badlegi!is anmani sthiti me aapki aawaaz...mann khush ho gaya
"सो जाता हूँ ओढ़ कर बेबसी की झीनी चादर को,
ReplyDeleteसपनो की मीठी रोटी खा,
दिलासाओं का खारा पानी पी,"
क्या कहूँ??
बस आह और वाह ही निकलते हैं...
मान गए..
~जयंत
चलो--
ReplyDeleteकल की आस पर,
पलट देता हूँ आज का पृष्ठ!
सो जाता हूँ ओढ़ कर बेबसी की झीनी चादर को,
सपनो की मीठी रोटी खा,
दिलासाओं का खारा पानी पी,
इस आशा में -कि-शायद-
कल का सूरज काला नहीं ,उजाला बन कर आएगा!
अल्पना जी बहुत खूब लिखा है आपने!!!!!
सो जाता हूँ ओढ़ कर बेबसी की झीनी चादर को,
ReplyDeleteसपनो की मीठी रोटी खा,
दिलासाओं का खारा पानी पी,
इस आशा में -कि-शायद-
कल का सूरज काला नहीं ,उजाला बन कर आएगा!
अल्पना जी ,
लगभग एक दशक पहले अपने जो यथार्थ लिखा था ..वो आज के भारत की सही तस्वीर है ....बहुत बढ़िया यथार्थवादी कविता .
हेमंत कुमार
Dear Alpana ji
ReplyDeleteBahut bhaavpoorn kavita ka srijan kiya hai aapne...jaisa maine pehle bhi kaha tha..aap apnne aap mein ek institution hain...vishay chaahe prem ka ho, virah ka ya samkaaleen samsyaaon ka ...aapki bhavnaayein lekhni ke madhyam se achook nishana saadhti hain ...bahut bahut badhayee.....geet hamesha ki tarah mere fav geeton mein se ek hai aur aapne vilakhan pratibha ka pradarshan karte hue bahut karnpriya gaaya hai...phir se badhayee....shubhkaamnaon sahit..
N.B. Naye kalevar mein blog jyada Manbhaavan lag raha hai...
Dr Sridhar Saxena
आज से कई साल पहले हमने भी उन आदर्शो से भरे दिनों में बेरोजगारी पे कविता लिखी थी ...आज आपको पढ़ा तो लगा की कैसे कुछ वक़्त अलग अलग जगह एक से ख्यालो को आसमान में रखते है........
ReplyDeleteरुके रुके से कदम ....बेहद प्यारा गीत है......
दो गीत है जो मुझे बेहद पसंद है....एक फिल्म अनुपमा का "कुछ ऐसी भी बाते होती है ".....दूसरा ...रजनी गंधा फिल्म का रजनी गंध फूल तुम्हारे "जब कभी फुर्सत हो मूड हो.....अपनी आवाज में....
अल्पना जी ,
ReplyDeleteसो जाता हूँ ओढ़ कर बेबसी की झीनी चादर को,
सपनो की मीठी रोटी खा,
दिलासाओं का खारा पानी पी,
एक सवाल आपसे के आप ऐसे शब्द कहाँ से लेकर आती है जिससे दिल को झकझोर के रख देने वाली वाक्य बनते है ... कमाल की लेखनी है आपकी... अबिभुत हुआ पढ़ के ये कविता....इस कविता को सार्थक करता हुआ आपके कशिश भरी आवाज़ में ये रुके रुके से कदम वाली गीत पूर्णतया सत्य है... हालाकि ये गीत इतना आसान नहीं है जितने आसानी से आपने इसे आपने गाया है ... जैसे ही ये गीत आपने शुरू किया और आपके कंठ से रुके ... शब्द निकला तो यकीनन लता दीदी की याद आगई... बाद की मैं नहीं जानता मगर ये रुके शब्द का आपने पूरी तरह से निर्वाहन किया है .... देरी से आने के लिए मुआफी चाहूँगा... आपकी आवाज़ मुझे पसंद है...
अर्श
वाह आनंद आ गया गाना सुनकर अल्पना जी। जी खुश हो गया।
ReplyDeleteअल्पना जी ,
ReplyDeleteबेरोजगारी और उससे संघर्षरत युवाओं की व्यथा को अपने बहुत बढ़िया शब्दों में अभिव्यक्ति दी है .
पूनम
कमर पर डिग्रियां, गले में तमगे अर्थहीन लगते है अब,
ReplyDeleteकाश इन की जगह होते कुछ हरे पत्ते और सिफारिशों के टुकड़े!
आज़ादी के इतने साल बीत गये, मगर ये ज़मीनी हकीकत नही बदली. बात भले ही नकारात्मक है, मगर इससे सकारात्मक अर्थ निकाले जा सकते हैं और स्वयम से शुरु कर बदलाव लाया जा सकता है. Charity begans home.
आब आपके गायन में रवानी आने लगी है. सुरों की एक निरंतरता और उसके साथ मधुरता गानों को श्रवणीय बना दे रही है.कृपया जारी रखें.
berozgari aaj ke samay ka aisa sach hai jiske saath samjhauta karna pad raha hai...
ReplyDeletejahana brashtaachaar hoga wahaan vikaas hoga bhi to sab tak nahi pahunch sakta...haalat sudharte nahi dikhte mujhe bilkul
मंदी के इस दौर में आपकी कविता अत्यधिक प्रासंगिक है .
ReplyDeleteइतनी अद्भुत कविता और आप इतने दिनों बाद पढ़वा रही हैं हमे...?
ReplyDelete"मगर मैं माध्यम वर्ग का अदना सा प्राणी-
हंसने की कोशिश में ,
रिसने लगता है खून जिस के होठों से..."
शब्दों की क्रूर सच्चाई दहला देती है
ह्म्म्म्म्म्म यूँ ही रुके-रुके से क़दमों के संग चलते रहिये....और चलते मिलेंगे हम भी आपके साथ ही......सच......!!
ReplyDeleteAlpana ji,
ReplyDeleteBahut achchee kavita aur 'ruke ruke se qadam ' geet ke liye--OverAll Aapne Bahut Acche Surr Laga Ke Mehnat Se Is Song Ko Khubsurti se Gaaya Hai.
अल्पना जी, कविता/गजल के बारे में इतनी समझ तो नहीं है,लेकिन इन्सान हूं शायद इसीलिए शब्दों के बीच छुपे भावों को जरूर समझ लेता हूं ...इस कविता के माध्यम से आपने मध्यमवर्ग की कुण्ठा/पीडा को बाखूबी से उकेरा है...
ReplyDeleteऔर हां,मौदगिल जी से मेरी कल फोन पर बात हो रही थी..तब उन्होने बताया था कि कुछ दिन पहले उनके ब्लाग ने काम करना बन्द कर दिया था..जिसके लिए उन्होने विनय जी की मदद ली थी(जो कि तकनीकी विषय के जानकार भी है). बस विनय जी ने अपनी सेवाओं की कीमत इस तरफ से वसूल की,कि बेचारे मौदगिल जी अपनी टिप्पणियों के माध्यम से उनके ब्लागस का प्रचार करते घूम रहे हैं..))
achcha hai alpana ji aapne aaj teesare charan ka jikr apni post me kiya hai...
ReplyDeletethanks
बहुत ही सुंदर,
ReplyDeleteधन्यवाद........आपने अच्छी जानकारी दी है .....
अन्दर तो छोडिये साब ...छत पर लेट कर भी कोई समाधान नही खोज पता । इसे जड़ता नही कहा जाए तो और क्या ?हालत तो ऐसी है की जब अपनी ही पीडाओं का पता नही तो दूसरों ......!
अभी भी रोटी के संघर्ष को नही जान पाया । कैसे माफ़ किया जाय मुझे ......
घर और मुल्क की गरीबी का कोई प्रभाव नही पड़ा । कैसे माफ़ किया जाय मुझे ......
कमर पर डिग्रियां, गले में तमगे अर्थहीन लगते है अब,
ReplyDeleteकाश इन की जगह होते कुछ हरे पत्ते और सिफारिशों के टुकड़े!
छू लेता आसमान मैं भी जिनके सहारे!
हँसता ,नियति के क्रूर चेहरे पर!
जीवन की एक गहरी सच्चाई ....क्या कहूँ....??
सो जाता हूँ ओढ़ कर बेबसी की झीनी चादर को,
सपनो की मीठी रोटी खा,
दिलासाओं का खारा पानी पी,
इस आशा में -कि-शायद-
कल का सूरज काला नहीं ,उजाला बन कर आएगा!
एक बेरोजगार के मनोभावों को बखूबी पहचाना आपने ...!
शानदार अभिव्यक्ति.....!!
और फिर मेरा एक पसंदीदा गीत...."'रुके रुके से क़दम....."
वाह......!!!!!
man ko achchhi lagi, aapki bhaavnaayen.
ReplyDeleteइस आशा में -कि-शायद-
कल का सूरज काला नहीं ,उजाला बन कर आएगा!
-vijay
चलो--
ReplyDeleteकल की आस पर,
पलट देता हूँ आज का पृष्ठ!
सो जाता हूँ ओढ़ कर बेबसी की झीनी चादर को,
सपनो की मीठी रोटी खा,
दिलासाओं का खारा पानी पी,
इस आशा में -कि-शायद-
कल का सूरज काला नहीं ,उजाला बन कर आएगा!
pehle to maafi chahti hun itani deri ke liye,sach ek aam insan ki kahani ka samapan kabhi nahi hota,wo har raat sota hai kal ke ujale suraj ki aas mein.pehle kavita padhte waqt ek gehra sa dard mehsus hua jo aakhari lines tak aate aate aasha mein badal gaya.ek nayi subhah ki aasha.sunder vicharon saji behtarin rachana.
geet sunane phir aa ke jaungi alpanaji,abhi yaha sunane ke liye kuch nahi.ruke ruke kaadam ki mithas lene phir hazir hogi ye aapki pankhi.
very nice & sweet voice ..!! congrats ..!!!!! keep it up..!
ReplyDeletechetu - www.samnvay.net
kavita samayik hai.
ReplyDeletebahut hi sahi chitran kiya hai aap ne ek berozgaar ki manh sthiti ka.
geet bhi suna,bahut hi madhur geet gaya hai aap ne.shukriya.
Wah..wa
ReplyDeletegeet bhi achha hai.........
बेरोजगारों की व्यथा और बेबसी और उसी आंधकार में कहीं कोई आस की किरण बडी खूबसूरती से पेश किया है आपने ।
ReplyDeletebahut intazaar ke baad aaj sun paaye hai ruke ruke sekadam,mann to yahi vyom ke paar mein hi ruka hai,sumadhur,behad khubsurat aawaz ki dhani hai alpanaji aap.
ReplyDeletekoi kuch kahta to hai nahi, bechare shabd! bada hi durvyavhar hota hai in dino iske sath. hai n!
ReplyDeleteआज भी स्थिति कुछ ज्यादा नहीं बदली हैं। पंक्तियां पसंद आईं-
ReplyDeleteसो जाता हूँ ओढ़ कर बेबसी की झीनी चादर को,
सपनो की मीठी रोटी खा,
दिलासाओं का खारा पानी पी,
इस आशा में -कि-शायद-
कल का सूरज काला नहीं ,उजाला ले कर आएगा!
हर जगह नो वेकेंसी
ReplyDeleteऔर पेट खाली
बेरोज़गारी देती है गाली
किसी कवि की ये पंक्तिया आपकी कविता को पढ़ कर याद आ गईं
उगा सूर्य कैसा कहो मुक्ति का ये
उजाला करोडो घरों में न पहुंचा
खुला पिंजरा है ,मगर रक्त अब तक
थके पंछियों के परों में न पहुंचा
शानदार अभिव्यक्ति.....!!
शानदार अभिव्यक्ति.....!!
ReplyDeleteकमर पर डिग्रियां, गले में तमगे अर्थहीन लगते है अब,
ReplyDeleteकाश इन की जगह होते कुछ हरे पत्ते और सिफारिशों के टुकड़े!
छू लेता आसमान मैं भी जिनके सहारे!
हँसता ,नियति के क्रूर चेहरे पर!
सत्य पर कटु ... अच्छी प्रस्तुति
very well said...
ReplyDeleteJobs in India
bahut achhi bhasha mai berojgari ke dard lo pesh iya ha alpna ji apne many thanks
ReplyDeletemadem bahut hi kubsurti se aapne berojgari ke dard ko muskurahat man badal diya
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