'हरे कांच की किरचें ' इस कविता का मर्म समझाने से पहले बता दूँ कि मैंने यह तय किया है कि भविष्य में कविता के साथ ही उस का प्रसंग भी प्रस्तुत किया करुँगी या फिर सरल कविता ही पोस्ट करुँगी.
ब्रिज मोहन श्रीवास्तव जी ने इस बार इस कविता की व्याख्या स्वयं इस प्रकार की है और मेरी राय मांगी है.मन को पीड़ा से भर देने वाली रचना/मेडम आपका जो भी द्रष्टिकोण रहा हो लिखने का/पाठक को भी अपना अनुमान लगाने का अधिकार है/यह व्यथा एक सैनिक की पत्नी की भी हो सकती है और शहीद की पत्नी की भी या ऐसे ही किसी एनी की भी/क्योंकि चूडियाँ उतार फेंकना और सुर्ख चिन्ह मिटा कर आंसू भर आना लेकिन मन में'हरे कांच की चूडियों की इच्छा दवी होना मेरे मनमे आए विचार की पुष्टि करता है /जहाँ तक बुद्ध हो गई है तो इसको पत्थर हो गई है कहने में भी कोई हर्ज न था मगर वह निर्जीब होता और इस नारी में अभी जीवन शेष है/लगता है अहिल्या भी वास्तव में पत्थर की शिला न हो कर शिलावत हो गई होगी/यदि मेरा द्रष्टिकोण जरा भी सत्य है तो इतनी मार्मिक रचना मेरी नजरों से आज तक नहीं गुज़री /पुन पुन धन्यवाद और वधाई |
मैं यही कहना चाहूंगी कि आप सही समझे हैं.
अच्छा लगता है जब अपनी रचना में किसी पाठक की इतनी रूची पाते हैं.
लेकिन कविता में इस बार मैं ने कोशिश की कि कम से कम सांकेतिक भाषा का प्रयोग हो जिस से ज्यादा सेज्यादा पाठक समझ सकें.विज्ञान विषय की स्नातक होने के कारण मैंने हिन्दी [बी-कोर्स ]बारहवीं तक ही पढ़ी है और हिन्दी साहित्य के नाम पर प्रेमचंद और शिवानी के अलावा ज्यादा किसी को नहीं पढ़ा.इस लिए हिन्दी के अपने सीमित ज्ञान के आधार पर जो थोड़ा लिख लेती हूँ उसे ऐसे ही समझा सकती हूँ वह यह है-कि इस कविता 'हरे कांच की किरचें 'में मैं ने एक स्त्री की उन भावनाओं को दर्शाने की कोशिश की है जो स्त्री के लिए ही ख़ास सुरक्षित हैं.
कविता में 'अगन''--
यह परिस्थिति के अनुसार अपना कारण बदलती है-
१-जैसा की आप ने समझा-एक विधवा की मनोव्यथा है--तो यह अगन प्रियतम की चिता की अग्नि हो सकती है. २-या समझिये-एक हारी हुई स्त्री के रोष/क्रोध या उपेक्षित होने पर मन में उपजी हो. ३-या फिर यह विरह /बिछोह में तड़प से लगी हो? ४-या फिर अपने ही भावों के ज्वर से उपजी हो जिसे वह नियंत्रित न कर पा रही हो. ५-या संबंधों की परिभाषा समझ पाने में असहाय होने की कुंठा से जन्मी ज्वाला. |
कोई भी कारण हो इन परिस्थितियों में मजबूर हो कर या प्रतिरोध कर न पाने की स्थिति में इस संबंधों को तोड़ देना चाहती है.-'चूडियाँ उतार फेंकना -सुर्ख चिन्हों[बिंदिया और सिन्दूर] सुहाग की निशानियों को मिटा देना--स्थाई [एक विधवा] या अस्थायी[एक विरहिणी ]करती है तो अपने अन्दर की सभी चाहतों को खतम कर देने का प्रयास करती है.निराशा -हताशा उसे पत्थर बना देती है--आप ने सही कहा -अहिल्या भी ऐसी हो गयी थी.नायिका का दुःख चरम पर है.
मनोविज्ञान में दुःख[grief]की पाँच अवस्थाएं होती हैं-denial, anger, bargaining,depression, acceptance; death -डिप्रेशन के बाद acceptance है-और यही अवस्था यहाँ इस नायिका की भी है-
- जिस को देख कर लोग कहने लगते हैं वो बुद्ध हो गयी है!
अब बुद्ध क्या है???यह आप सभी जानते हैं.संक्षेप में 'बुद्ध' संसार से निर्मोह की एक स्थिति है.
-मगर नहीं...वो जानती है वो बुद्ध नहीं हुई!....
डॉ.अनुराग जी सही कहते हैं-'बुद्ध हो जाना इतना आसान भी नही है ओर इसे स्वीकार करना भी !'
राज भाटिया जी के इस कथन से कविता के भाव और साफ़ हो जाते हैं ' बहुत दर्द लिये है यह हरे कांच की
किरचे ! मन चाहता है इन्हे निकालन फ़ेकना.... लेकिन यादे भी तो साथ मे लगी है इन किर्चो के.. बहुत
कुछ बंधा है इन किर्चो से... बहुत वेदना छुपी है.
ज्ञान दत्त जी ने ने भी सही जाना -यह तो आपने आत्मपरीक्षण का तरीका बता दिया, कि बुद्ध हुये या नहीं,
कैसे जाना जाये।
सुशील कुमार छोक्कर जी -कांच की किरचें कांच के महीन टुकड़ों को कहते हैं .हर कांच की चूडियाँ सुहाग का
प्रतीक हैं -
और आगे कविता का भाव आप समझ ही गए हैं.
[P.S.व्याख्या करते हुए ऐसा लगता है जैसे किसी परीक्षा में बैठी लिख रही हूँ]
व्याख्या पर वारी वारी जाऊं. आभार.
ReplyDeleteआपने बहुत अच्छी व्याख्या की है ! मेरे हिसाब से इस विषय की इससे अच्छी व्याख्या नही हो सकती !
ReplyDeleteराम राम !
ज्ञानवर्धक जानकारी ..
ReplyDeleteव्याख्या के लिए आभार
बहुत बढ़िया व्याख्या की है आपने
ReplyDeleteबहुत अच्छा प्रयास ..........लिखते रहिये
ReplyDeleteआपको मेरी शुभ-कामनाएं
अच्छा व्याख्या प्रयास, कौशलपूर्ण . बधाई.
ReplyDeleteकविता आपका एक पक्ष है। हम (मैं और मेरी पत्नी) ने कल आपके साइडबार वाले गायन को सुना और बहुत प्रभावित हुये।
ReplyDeletegood detailed analysis...great to read.
ReplyDeleteregards
he he.. aapne to kavita aisi likhi aur aese vyakhya ki jaise mann mein than li ho ki padhwa ke hi manugi :-) sundar rachna :-)
ReplyDeleteNew post - एहसास अनजाना सा.....
@Rohit ----arrey nahin nahin..aap swatantr hain ..na chahen ..na padheeye...lekin Brij ji ke kahey par 'shbdon ka vistaar' kar diya--nahin to itna 'jyada 'likhna mere jaisee 'aalsi' ke bas mein nahin hai...:D..
ReplyDeletemain to kavitayen bhi is liye nanhin nanhin hi likhne ki koshish karti hun...:)
आप को पढ़ कर कभी नहीं लगा की आपने हिन्दी सिर्फ़ बाहरवीं तक पढ़ी है...इस भावना को दिल से निकालिए...आप बहुत अच्छा लिखती हैं....अगर मन के भाव अच्छे हों तो शब्द अपने आप मिल जाते हैं....मेरी शुभ कामनाएं स्वीकारें....
ReplyDeleteनीरज
kavi ke dil se uski kavita ka saar samajhne ko mile bahut achha lagta hai.bahut khub
ReplyDeleteआपके लेखन में एक ईमानदारी है ठीक वैसी ही जैसी आप ख़ुद है ....कभी कभी हम लिखते है तो अन्दर का कवि कविता पर हावी हो जाता है उससे कविता की आत्मा कही प्रभावित हो जाती है.....अच्छा कवि वही है जो कविता पर अपनी बोद्दिकता न थोपे ......तभी कुंवर नारायण इतने बड़े कवि है........कविता का शिक्षा से कोई लेना देना नही है....बाबा तिर्लोचन तो शायद पढ़े लिखे भी नही थे ,इंसान के तजुर्बे ओर उसकी मानवीय दृष्टि उसे भाषा भी दे देती है
ReplyDelete'इंसान के तजुर्बे ओर उसकी मानवीय दृष्टि उसे भाषा भी दे देती है'-
ReplyDelete-अच्छा कवि वही है जो कविता पर अपनी बोद्दिकता न थोपे'
-हाँ यह भी सच है ........आभार :)
बहोत ही बढ़िया ब्याख्या दिया है आपने बहोत खूब लिखा है अपने अल्पना जी ... ढेरो बधाई स्वीकारें....
ReplyDeleteअर्श
main to dang hoon...sach yah padhkar....yah mahsus kar...!!
ReplyDeleteaap 12vin class hi padhi ho......sabse pahle to ise apne dil se nikaalo....nikaal do tab batana....tab ham baat karenge....sach...ye karam to 12vin class ke hain....accha hua jo isase aage aap naa padhin...varnaa sab kuch mere sir ke upar se gujar jata...!!
ReplyDeleteबढिया लिखा है आपने
ReplyDeleteविस्तार से व्याख्या की !
स्नेह,
- लावण्या
हा !हा! हां! अरे, आप ने ठीक से पढ़ा नहीं..मैनें हिन्दी 'विषय' १२ वी तक पढ़ा है.वैसे विज्ञानं विषय की स्नातक हूँ..और यहाँ खाडी देश में आने के बाद,
ReplyDeleteहिन्दी पढ़ना बहुत ही कम हो गया..इन्टरनेट की सुविधा होने के बाद हिन्दी में कुछ पढने को मिला है.
इस लिए शब्द कोष में कमी है...और साहित्य की विधा और उनके कायदे कानून से पूरी तरह वाकिफ नहीं हूँ..बाद यह कहना चाहती हूँ.
बहुत बहुत धन्यवाद भूत नाथ जी .
[आप ने ख़ुद को भूत क्यूँ कहा - यह जरुर जानना चाहूंगी.]
संतुलित एवं सटीक व्याख्या। आशा है आगे भी यह क्रम जारी रहेगा।
ReplyDeleteमेरी टिप्पणी को इतना महत्व देने के लिए धन्यवाद
ReplyDeleteअरे वाह! ये तो बहुत शानदार है.. सच्ची
ReplyDeleteअल्पना जी माफ करना देरी से आया हूं बल्कि यूं कहो कि बहुत ही देर से आया हूं व्याख्या पढी अच्छी लगी बारम्बार बधाई हो आपको और हां एक और खुश खबरी आपके लिए कि अब से एक और पहेली चालू हो गई है जिसमें ईनाम भी दिया जाएगा तो अभी नीचे लिखे लिंक पर क्लिक करो और जीतो नकद पुरस्कार
ReplyDeletehttp://mohankaman.blogspot.com/2008/12/blog-post_16.html
अच्छी व्याख्या की है.बहुत बहुत बधाई.अगर समय मिले तो http://vangmaypatrika.blogspot.com
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अल्पना जी पहले तो मैं माफी चाहूंगा कि मैंने इस तरह की बात कही जिससे किसी का भी दिल दूखा और दूसरी बात कि मैंने पहले भी माफी मांगी कि काफी दिन से मैं पढ नहीं पा रहा हूं। अब मेरी पहले का शीर्षक रहे बूझो तो जग जाने क्या यह ठीक है
ReplyDeletebehtreen.......
ReplyDeleteek geet yaad aa raha hai.........
Kuch to log kahenge
logon ka kaam hai kahna
alpna g badhai aapko
कविता तो अच्छी है ही। व्याख्या के चलते उसे पढ़ने में ज्यादा अच्छा लगा।
ReplyDeletebahut achcha laga apka blog dekhkar
ReplyDeleteyahi tevar barkarar rahne chahiye
व्याख्या पढकर भी अच्छा लगा और बचपन एक बात याद भी आ गई। आपने बताया कि "कांच की किरचें कांच के महीन टुकड़ों को कहते हैं .हर कांच की चूडियाँ ,सुहाग का प्रतीक हैं"
ReplyDeleteजब छोटे थे तो जब कभी चूड़ी का एक टुकडा मिल जाता था तो उसे लेकर हम बच्चे उसको हाथ से तोड़ कर देखते थे कि मम्मी या पापा कितना प्यार करते हैं तोडने पर अगर बहुत छोटा महीन सा टुकडा टुटता तो कहते कि मम्मी ज्याद प्यार नही करती तेरी और अगर ज्या दा टुकडा टूटता तो कहते थे ज्यादा प्यार करती है मम्मी।
achchha hai. meri shubhkaamnaayen.
ReplyDeleteanandkrishan, jabalpur
http://www.hindi-nikash.blogspot.com