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विरहिणी की अन्तर वेदना को बताती हुई यह कविता प्रस्तुत है-
हरे कांच की किरचें
-----------------------
अगन -
तपा जाती है तन उसका,
मन भी सुलगने लगता है,
गर्म होती कांच की चूडियाँ
उतार फेंकती है वो.
पोंछ देती है सुर्ख चिन्हों को.
भिगोती रहती है आंसुओं में ख़ुद को
और बन जाती है एक बुत !
लोग कहते हैं कि 'वो 'बुद्ध 'हो गयी है!!
मगर नहीं...वो जानती है वो बुद्ध नहीं हुई!
क्योंकि अब भी ,
उस के मन में पीर देती हैं
व्याकुल करती हैं उस को ,
मन में दबी -
हरे कांच की किरचें!
- अल्पना वर्मा द्वारा लिखित[२००८]
Kavita Ka marm jaaniye -yahan :-
http://alpana-verma.blogspot.com/2008/12/blog-post_15.html
विरहिणी की अन्तर वेदना को बताती हुई यह कविता प्रस्तुत है-
हरे कांच की किरचें
-----------------------
अगन -
तपा जाती है तन उसका,
मन भी सुलगने लगता है,
गर्म होती कांच की चूडियाँ
उतार फेंकती है वो.
पोंछ देती है सुर्ख चिन्हों को.
भिगोती रहती है आंसुओं में ख़ुद को
और बन जाती है एक बुत !
लोग कहते हैं कि 'वो 'बुद्ध 'हो गयी है!!
मगर नहीं...वो जानती है वो बुद्ध नहीं हुई!
क्योंकि अब भी ,
उस के मन में पीर देती हैं
व्याकुल करती हैं उस को ,
मन में दबी -
हरे कांच की किरचें!
- अल्पना वर्मा द्वारा लिखित[२००८]
Kavita Ka marm jaaniye -yahan :-
http://alpana-verma.blogspot.com/2008/12/blog-post_15.html
मगर नहीं...वो जानती है वो बुद्ध नहीं हुई!
ReplyDeleteक्योंकि अब भी ,
उस के मन में पीर देती हैं
व्याकुल करती है उस को ,
मन में दबी -
हरे कांच की किरचें!
बहुत सटीक!
अल्पनाजी वर्मा
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर ॥॥।
सुंदर है।
ReplyDeleteवास्तविकता की तड़प का एहसास कराती लेखनी |
ReplyDeleteसचमुच की सुन्दरता है |
बहुत सुंदर।
ReplyDeleteलोग कहते हैं की वह बुद्धः हो गई है!!!
ReplyDeleteअच्छा लगा !!
प्राइमरी का मास्टरका पीछा करें
मगर नहीं...वो जानती है वो बुद्ध नहीं हुई!
ReplyDeleteक्योंकि अब भी ,
उस के मन में पीर देती हैं
व्याकुल करती है उस को ,
मन में दबी -
हरे कांच की किरचें!
man ke gehrai ki sundar abhivyakti rahi,bahut khub.
गहन रूप से अन्तर वेदना की अनुभू्ति कराती सुन्दर रचना !
ReplyDeleteराम राम !
चित्र की प्रष्टभूमि इन हरे कांच की किरणों को जैसे ....एक रूप दे रही है......बुद्ध हो जाना इतना आसान भी नही है ओर इसे स्वीकार करना भी ! कम शब्दों में गहरी बात यही इस कविता का सार है......ओर इसका पक्ष भी......
ReplyDeleteइस कविता का हर शब्द भी जैसे बिरह की अग्नि में तप रहा हो बहोत ही सुंदर तरीके से आपने बिरह को भी सजाया है इस कविता के माध्यम से ... बहोत सुंदर आपको ढेरो बधाई अल्पना जी .. आज-कल लगता है फुर्सत में नही है आप कोई गीता नही गुनगुनाया आपने .. उसका क्रम जरी रखे इंतजार रहता है ....
ReplyDeleteअर्श
यह तो आपने आत्मपरीक्षण का तरीका बता दिया, कि बुद्ध हुये या नहीं, कैसे जाना जाये।
ReplyDeleteऔर निश्चय ही हम फेल होते हैं। होते रहेंगे शायद।
अन्तर व्यथा का वर्णन करती एक बहुत सुंदर रचना !!ये पंक्तियाँ खास तौर पर पसंद आयीं
ReplyDeleteमगर नहीं...वो जानती है वो बुद्ध नहीं हुई!
क्योंकि अब भी ,
उस के मन में पीर देती हैं
व्याकुल करती हैं उस को ,
मन में दबी -
हरे कांच की किरचें!
बहुत ही सुंदर रचना है ...
ReplyDeleteव्याकुलता को दर्शाती.....
बहुत ही मंजू.......
अक्षय-मन
मन को पीड़ा से भर देने वाली रचना / मेडम आपका जो भी द्रष्टिकोण रहा हो लिखने का /पाठक को भी अपना अनुमान लगाने का अधिकार है /यह व्यथा एक सैनिक की पत्नी की भी हो सकती है और शहीद की पत्नी की भी या ऐसे ही किसी एनी की भी /क्योंकि चूडियाँ उतार फेंकना और सुर्ख चिन्ह मिटा कर आंसू भर आना लेकिन मन में हरे कांच की चूडियों की इच्छा दवी होना मेरे मनमे आए विचार की पुष्टि करता है /जहाँ तक बुद्ध हो गई है तो इसको पत्थर हो गई है कहने में भी कोई हर्ज न था मगर वह निर्जीब होता और इस नारी में अभी जीवन शेष है /लगता है अहिल्या भी वास्तव में पत्थर की शिला न हो कर शिलावत हो गई होगी / यदि मेरा द्रष्टिकोण जरा भी सत्य है तो इतनी मार्मिक रचना मेरी नजरों से आज तक नहीं गुज़री /पुन पुन धन्यवाद और वधाई
ReplyDeleteमगर नहीं...वो जानती है वो बुद्ध नहीं हुई!
ReplyDeleteक्योंकि अब भी ,
उस के मन में पीर देती हैं
व्याकुल करती है उस को ,
मन में दबी -
हरे कांच की किरचें
बहुत कम शब्दों में बहुत कुछ कह गई आप। किरचें क्या किरणों को कहते है क्या? इस शब्द का अर्थ मै सही से नही समझ पाया।
मन बसी... आपकी बात
ReplyDeleteमगर नहीं...वो जानती है वो बुद्ध नहीं हुई!
ReplyDeleteक्योंकि अब भी ,
उस के मन में पीर देती हैं
व्याकुल करती हैं उस को ,
मन में दबी -
हरे कांच की किरचें!
बहुत दर्द लिये है यह हरे कांच की किरचे ! मन चाहता है इन्हे निकालन फ़ेकना.... लेकिन यादे भी तो साथ मे लगी है इन किर्चो के.. बहुत कुछ बंधा है इन किर्चो से... बहुत वेदना छुपी है.
बहुत ही वेदना भरी कविता लिखी है आप ने.
धन्यवाद
bahut hi sundar he. vedana ke swar adbhut hai. badhai.
ReplyDeletereally good!
ReplyDeleteapnaa ek buddh maine bhi likha thaa kuchh din pahle............
ReplyDeleteagar fursat ho to dekh jaanaa
अच्छा िलखा है आपने । जीवन के सच को प्रभावशाली तरीके से शब्दबद्ध िकया है । -
ReplyDeletehttp://www.ashokvichar.blogspot.com
... प्रसंशनीय अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteबहुत गहरी पीड़ा को उजागर करती आप की ये रचना सीधे दिल में उतर गयी है...सुंदर शब्द और गहरे भाव....वाह.
ReplyDeleteनीरज
bahut sundar .. bahut hi bhavpoorn,, virah ki antarghata..
ReplyDeletebadhai
vijay
http://poemsofvijay.blogspot.com/
बुद्ध होना आसान नही ..बहुत बढ़िया लगी आपकी यह रचना अल्पना जी
ReplyDeleteअल्पना जी
ReplyDeleteमन के एकाकी भावः संजोय, परिपूर्ण कविता
आपका कल्पना संसार व्योम से भी ऊंचा है
अत्यन्त संवेदनशीलता को व्यक्त करती मार्मिक रचना
ReplyDeletealpna ji ,
ReplyDeleteaap mere blog par aayin........saubhagya mera. aapko pahali baar padha. bahut hi kam shabdon men maarmik chitran kiya hai. meri badhai sweekar karen.
Dear Alpz
ReplyDeleteYou did a wonderful job while writing this one. The pain .. the agony of a woman is expressed explicitly and implicitly in such a way that one can actually picture it in one's eyes .. great job.
-Aditya
बहुत उत्तम रचना है !
ReplyDeletehare kaanch ki kirchein.. shayad chah kar bhi nahi nikalna chahti
ReplyDeletebehad samvedansheel rachna !!
hare kaanch ki kirchein.. shayad chah kar bhi nahi nikalna chahti
ReplyDeletebehad samvedansheel rachna !!
मगर नहीं...वो जानती है वो बुद्ध नहीं हुई!
ReplyDeleteक्योंकि अब भी ,
उस के मन में पीर देती हैं
व्याकुल करती है उस को ,
मन में दबी -
हरे कांच की किरचें!
main bata nahi sakti ki aapki rachna kitni khoobsurat hai ,haan itna kahti hoon man ke kisi taar ko ched gayi ,
behad marmsparshi rachna!
ReplyDeleteबुद्ध हो जाएं तो मुक्त हो जाएं
ReplyDeleteबुद्ध नहीं बुत हैं हम
हमें तो पीर ही अपनी लगती है
पीर का सही चित्रण किया है आपने
ये तस्वीर भी काफी प्रभावशाली है...