स्वदेश वापसी /दुबई से दिल्ली-'वन्दे भारत मिशन' Repatriation Flight from UAE to India

'वन्दे भारत मिशन' के तहत  स्वदेश  वापसी   Covid 19 के कारण असामान्य परिस्थितियाँ/दुबई से दिल्ली-Evacuation Flight Air India मई ,...

December 14, 2008

'हरे कांच की किरचें'

[chitr google se sabhaar]
विरहिणी की अन्तर वेदना को बताती हुई यह कविता प्रस्तुत है-
हरे कांच की किरचें
-----------------------
अगन -
तपा जाती है तन उसका,
मन भी सुलगने लगता है,

गर्म होती कांच की चूडियाँ
उतार फेंकती है वो.
पोंछ देती है सुर्ख चिन्हों को.
भिगोती रहती है आंसुओं में ख़ुद को
और बन जाती है एक बुत !

लोग कहते हैं कि 'वो 'बुद्ध 'हो गयी है!!

मगर नहीं...वो जानती है वो बुद्ध नहीं हुई!
क्योंकि अब भी ,
उस के मन में पीर देती हैं
व्याकुल करती हैं उस को ,
मन में दबी -
हरे कांच की किरचें!

- अल्पना वर्मा द्वारा लिखित[२००८]

Kavita Ka marm jaaniye -yahan :-
http://alpana-verma.blogspot.com/2008/12/blog-post_15.html

35 comments:

  1. मगर नहीं...वो जानती है वो बुद्ध नहीं हुई!
    क्योंकि अब भी ,
    उस के मन में पीर देती हैं
    व्याकुल करती है उस को ,
    मन में दबी -
    हरे कांच की किरचें!

    बहुत सटीक!

    ReplyDelete
  2. Anonymous12/14/2008

    अल्पनाजी वर्मा
    बहुत ही सुन्दर ॥॥।

    ReplyDelete
  3. Anonymous12/14/2008

    सुंदर है।

    ReplyDelete
  4. वास्तविकता की तड़प का एहसास कराती लेखनी |
    सचमुच की सुन्दरता है |

    ReplyDelete
  5. बहुत सुंदर।

    ReplyDelete
  6. लोग कहते हैं की वह बुद्धः हो गई है!!!

    अच्छा लगा !!


    प्राइमरी का मास्टरका पीछा करें

    ReplyDelete
  7. Anonymous12/14/2008

    मगर नहीं...वो जानती है वो बुद्ध नहीं हुई!
    क्योंकि अब भी ,
    उस के मन में पीर देती हैं
    व्याकुल करती है उस को ,
    मन में दबी -
    हरे कांच की किरचें!
    man ke gehrai ki sundar abhivyakti rahi,bahut khub.

    ReplyDelete
  8. गहन रूप से अन्तर वेदना की अनुभू्ति कराती सुन्दर रचना !

    राम राम !

    ReplyDelete
  9. चित्र की प्रष्टभूमि इन हरे कांच की किरणों को जैसे ....एक रूप दे रही है......बुद्ध हो जाना इतना आसान भी नही है ओर इसे स्वीकार करना भी ! कम शब्दों में गहरी बात यही इस कविता का सार है......ओर इसका पक्ष भी......

    ReplyDelete
  10. इस कविता का हर शब्द भी जैसे बिरह की अग्नि में तप रहा हो बहोत ही सुंदर तरीके से आपने बिरह को भी सजाया है इस कविता के माध्यम से ... बहोत सुंदर आपको ढेरो बधाई अल्पना जी .. आज-कल लगता है फुर्सत में नही है आप कोई गीता नही गुनगुनाया आपने .. उसका क्रम जरी रखे इंतजार रहता है ....

    अर्श

    ReplyDelete
  11. यह तो आपने आत्मपरीक्षण का तरीका बता दिया, कि बुद्ध हुये या नहीं, कैसे जाना जाये।
    और निश्चय ही हम फेल होते हैं। होते रहेंगे शायद।

    ReplyDelete
  12. अन्तर व्यथा का वर्णन करती एक बहुत सुंदर रचना !!ये पंक्तियाँ खास तौर पर पसंद आयीं


    मगर नहीं...वो जानती है वो बुद्ध नहीं हुई!
    क्योंकि अब भी ,
    उस के मन में पीर देती हैं
    व्याकुल करती हैं उस को ,
    मन में दबी -
    हरे कांच की किरचें!

    ReplyDelete
  13. बहुत ही सुंदर रचना है ...
    व्याकुलता को दर्शाती.....
    बहुत ही मंजू.......


    अक्षय-मन

    ReplyDelete
  14. मन को पीड़ा से भर देने वाली रचना / मेडम आपका जो भी द्रष्टिकोण रहा हो लिखने का /पाठक को भी अपना अनुमान लगाने का अधिकार है /यह व्यथा एक सैनिक की पत्नी की भी हो सकती है और शहीद की पत्नी की भी या ऐसे ही किसी एनी की भी /क्योंकि चूडियाँ उतार फेंकना और सुर्ख चिन्ह मिटा कर आंसू भर आना लेकिन मन में हरे कांच की चूडियों की इच्छा दवी होना मेरे मनमे आए विचार की पुष्टि करता है /जहाँ तक बुद्ध हो गई है तो इसको पत्थर हो गई है कहने में भी कोई हर्ज न था मगर वह निर्जीब होता और इस नारी में अभी जीवन शेष है /लगता है अहिल्या भी वास्तव में पत्थर की शिला न हो कर शिलावत हो गई होगी / यदि मेरा द्रष्टिकोण जरा भी सत्य है तो इतनी मार्मिक रचना मेरी नजरों से आज तक नहीं गुज़री /पुन पुन धन्यवाद और वधाई

    ReplyDelete
  15. मगर नहीं...वो जानती है वो बुद्ध नहीं हुई!
    क्योंकि अब भी ,
    उस के मन में पीर देती हैं
    व्याकुल करती है उस को ,
    मन में दबी -
    हरे कांच की किरचें

    बहुत कम शब्दों में बहुत कुछ कह गई आप। किरचें क्या किरणों को कहते है क्या? इस शब्द का अर्थ मै सही से नही समझ पाया।

    ReplyDelete
  16. मन बसी... आपकी बात

    ReplyDelete
  17. मगर नहीं...वो जानती है वो बुद्ध नहीं हुई!
    क्योंकि अब भी ,
    उस के मन में पीर देती हैं
    व्याकुल करती हैं उस को ,
    मन में दबी -
    हरे कांच की किरचें!
    बहुत दर्द लिये है यह हरे कांच की किरचे ! मन चाहता है इन्हे निकालन फ़ेकना.... लेकिन यादे भी तो साथ मे लगी है इन किर्चो के.. बहुत कुछ बंधा है इन किर्चो से... बहुत वेदना छुपी है.
    बहुत ही वेदना भरी कविता लिखी है आप ने.
    धन्यवाद

    ReplyDelete
  18. bahut hi sundar he. vedana ke swar adbhut hai. badhai.

    ReplyDelete
  19. apnaa ek buddh maine bhi likha thaa kuchh din pahle............
    agar fursat ho to dekh jaanaa

    ReplyDelete
  20. अच्छा िलखा है आपने । जीवन के सच को प्रभावशाली तरीके से शब्दबद्ध िकया है । -

    http://www.ashokvichar.blogspot.com

    ReplyDelete
  21. ... प्रसंशनीय अभिव्यक्ति ।

    ReplyDelete
  22. बहुत गहरी पीड़ा को उजागर करती आप की ये रचना सीधे दिल में उतर गयी है...सुंदर शब्द और गहरे भाव....वाह.
    नीरज

    ReplyDelete
  23. bahut sundar .. bahut hi bhavpoorn,, virah ki antarghata..

    badhai

    vijay
    http://poemsofvijay.blogspot.com/

    ReplyDelete
  24. बुद्ध होना आसान नही ..बहुत बढ़िया लगी आपकी यह रचना अल्पना जी

    ReplyDelete
  25. अल्पना जी
    मन के एकाकी भावः संजोय, परिपूर्ण कविता
    आपका कल्पना संसार व्योम से भी ऊंचा है

    ReplyDelete
  26. अत्यन्त संवेदनशीलता को व्यक्त करती मार्मिक रचना

    ReplyDelete
  27. alpna ji ,
    aap mere blog par aayin........saubhagya mera. aapko pahali baar padha. bahut hi kam shabdon men maarmik chitran kiya hai. meri badhai sweekar karen.

    ReplyDelete
  28. Dear Alpz

    You did a wonderful job while writing this one. The pain .. the agony of a woman is expressed explicitly and implicitly in such a way that one can actually picture it in one's eyes .. great job.

    -Aditya

    ReplyDelete
  29. बहुत उत्तम रचना है !

    ReplyDelete
  30. hare kaanch ki kirchein.. shayad chah kar bhi nahi nikalna chahti

    behad samvedansheel rachna !!

    ReplyDelete
  31. hare kaanch ki kirchein.. shayad chah kar bhi nahi nikalna chahti

    behad samvedansheel rachna !!

    ReplyDelete
  32. मगर नहीं...वो जानती है वो बुद्ध नहीं हुई!
    क्योंकि अब भी ,
    उस के मन में पीर देती हैं
    व्याकुल करती है उस को ,
    मन में दबी -
    हरे कांच की किरचें!
    main bata nahi sakti ki aapki rachna kitni khoobsurat hai ,haan itna kahti hoon man ke kisi taar ko ched gayi ,

    ReplyDelete
  33. Alka Goel1/26/2010

    behad marmsparshi rachna!

    ReplyDelete
  34. बुद्ध हो जाएं तो मुक्त हो जाएं
    बुद्ध नहीं बुत हैं हम
    हमें तो पीर ही अपनी लगती है

    पीर का सही चित्रण किया है आपने

    ये तस्वीर भी काफी प्रभावशाली है...

    ReplyDelete

आप के विचारों का स्वागत है.
~~अल्पना