विकिपीडिया से साभार |
फिल्म- ज़िला गाज़ियाबाद
निर्देशक-आनंद कुमार
निर्माता- विनोद बचन [बच्चन ]
कलाकार -संजय दत्त,अरशद वारसी,विवेक ओबरॉय ,रवि किशन
कहानी -
ज़िला गाज़ियाबाद में हुई ९० के शुरआती दशक में 'महेंदर फौजी और सतबीर' दो गुटों के बीच हुए संघर्ष/मार-धाड़ ,अपराधों पर आधारित है।
मैं तो उन दिनो शहर में नहीं थी,इसलिए कोई अंदाज़ा नहीं कि उन दिनों कैसे हालात थे।
बाकी फिल्म देखने सिर्फ इसीलिये गयी थी कि यह शहर अपना जन्म स्थान है ,इस नाम की फिल्म बनी है तो शहर की झलकियाँ भी अवश्य होँगी।
एक लगाव होता है अपने शहर से, बस वही मुझे थियेटर खींच ले गया मगर इस फिल्म ने मुझे बेहद निराश किया .
शहर का एक भी दृश्य नहीं है ,जो गाँव दिखाया गया वह दक्षिण का कोई स्थान लगता है ,इस में दिखाया गया मंदिर भी शुद्ध दक्षिण भारतीय मंदिर लग रहा था।
एमिरात में दिखायी गई फिल्म में से शायद दृश्य /संवाद काटे होंगे तभी मुझे तो गालियाँ भी एक या दो ही सुनने को मिलीं :)...वरना ये ही लग रहा था कि आधे से अधिक संवाद बिना गालियों के होंगे नहीं ..ऐसा इसलिए कह रही हूँ कि उत्तर प्रदेश से संबंधित जितनी फ़िल्में पहले बनी हैं जैसे ओमकारा ,इश्किया आदि उन सब में यू.पी वालों की यही छवि दिखाई गई है !
हिंसक दृश्यों की बात करें तो गेंग्स ओग वासेपुर से कम ही थे।
बवादी मॉल के एक ही थियेटर में येही एक हिंदी फिल्म लगी थी ,शायद संजय दत्त के कारण ..इसे १५ से ऊपर के दर्शकों के लिए सर्टिफिकेट मिला हुआ है और २ डी है।
हॉल में एमिराती दर्शक अधिक थे।
८-९ साल के बच्चे -बच्चियां भी दर्शकों में थे ,जो संजय दत्त के स्टंट देखकर हँस रहे थे शायद उन्हें आजकल के विडियो गेम्स जैसे लग रहे होंगे।
ये फिल्म पता नहीं क्या सोच कर बनायी गयी है .गाज़ियाबाद का तो कोई सीन ही नहीं दिखा। एक जगह बस अड्डे से मिलती जुलती जगह लगी जहाँ संजय दत्त के स्टंट हैं बस!
गाने भी ज़बरदस्ती डाले गए हैं .बहुत ही बेकार से नृत्य और फिल्मांकन।
गोलियाँ ही गोलियाँ चलती रहती हैं ,गेंग्स आपस में लड़ते रहते हैं।देखने वाले को समझ नहीं आता हो क्या रहा है!
दबंग ,गेंग ऑफ वासेपुर और रौउडी राठोर जैसी फिल्मे सफल हो जाती हैं ये भी हो जाए तो आश्चर्य नहीं होगा।
अदाकारी के नाम पर सिर्फ रवि किशन और विवेक के भाई 'ओमी'बने एक्टर ने प्रभावित किया ,बाकी सब की अदाकारी मामूली ही है। संजय दत्त पुलिस वाले कम मसखरे अधिक लग रहे हैं।
समझ नहीं आता दो गानों में भी गाज़ियाबाद का नाम ऐसे डाला गया जैसे इस फिल्म में जिले के बारे में कितन कुछ बताया गया होगा।
निर्माता या निर्देशक का कोई रिश्ता इस जिले से ज़रूर रहा होगा तभी फिल्म चले न चले इस नाम की फिल्म बना कर जिले के नाम को मशहूर कर दिया ,जहाँ कभी ये अपराधी हुआ करते थे।
स्टंट के नाम पर कुछ इतने हास्यापद दृश्य देखने को मिलते हैं जिसे देखकर हंसी आ सकती है भय या रोमांच कतई नहीं लगता।
तीन घंटे स्वाहा करने हों तो देख आइये अन्यथा कोई पुरानी अच्छी फिल्म देख लिजीए,वह बेहतर होगा।
आपने बहुत तबियत से 'फिल्म- ज़िला गाज़ियाबाद' की ऐसी तैसी की है !
ReplyDeleteपूरी तरह से फ़िल्म का जुलूस ही निकाल दिया ....
समीक्षा पढने के बाद तो लोग आवश्य ये फ़िल्म देखने जायेंगे :)
आभार !
sahi kaha .
ReplyDeleteसतबीर गुर्जर और महेन्द्र फौजी की बात सही है। समाचार पत्र में भी इस पिक्चर की ऐसी ही समीक्षा की गई है, जैसी आपने की है। समीक्षा क्या करनी, जब कुछ है ही नहीं देखने लायक तो।
ReplyDeleteफ़िल्मकार तो व्यवसायी हैं उनको मुनाफे के अलावा क्या सरोकार था जो 'गाजियाबाद' का इतिहास आदि दिखाते/बताते?
ReplyDeleteहम तो कोई फिल्म देखते ही नहीं।
धारा ३७० है 'भारतीय एकता व अक्षुणता' को बनाये रखने की गारंटी और इसे हटाने की मांग है-साम्राज्यवादियों की गहरी साजिश
ऐक्शन, मारकाट और मसाला बाकी कुछ खास नहीं !
ReplyDeleteआभार! समय बच गया
ReplyDeletelatest postमेरे विचार मेरी अनुभूति: मेरी और उनकी बातें
प्रचार-प्रसार से मुझे भी ये बस एक मारधाड़ वाली फ़िल्म ही लग रही है
ReplyDeleteआपने सटीक समीक्षा कर फिल्म का जनाजा ही निकाल दिया,,,,
ReplyDeleteRecent post: गरीबी रेखा की खोज
बढ़िया , इसके निर्देशक को आपका पता चल गया होगा ! :)
ReplyDeleteअच्छा हुआ , पहले ही पता चल गया। वर्ना हमें तो एडवेंचर और एक्शन फ़िल्में अच्छी लगती हैं।
ReplyDeleteआपकी सलाह मान लेते हैं।
ReplyDeleteआपकी समीक्षा पढकर तो अब हिम्मत ही नही हो रही है.:)
ReplyDeleteरामराम.
sameeksha ...khoob..
ReplyDeleteऐसा है तो पुरानी फिल्म ही देख लेते हैं .....
ReplyDeleteसुंदर फिल्म समीक्षा. सावधान करने के लिये शुक्रिया.
ReplyDeleteमुंबई अंडरवर्ल्ड का चेक बाउंस कर रहा था सो अब छोटे शहरों के अपराधी गिरोहों को भुना रहे हैं वालीवुड वाले.
ReplyDeleteफिल्म बनाने वालों की पकड़ अच्छी नहीं.
ReplyDeletekhub likha hai, thanks
ReplyDeleteजहाँ तक मुझे पता है इसके निर्माता का गाज़ियाबाद से कोई लेना देना नहीं है. कहीं पढ़ा था कि एक दफे वो गाज़ियाबाद स्टेशन से गुजर रहे थे तब स्टेशन पर ही कहीं "जिला गाज़ियाबाद" लिखा देखा. तब तक कहानी का कुछ अता-पता नहीं था मगर नाम तय हो गया. फिर उन्हें एक लेखक मिला जिसने इसका स्क्रिप्ट लिखा, वह गाज़ियाबाद से था मगर कभी रहा नहीं वहां. ठीक वैसे जैसे मैं दरभंगा का हूँ, मगर दरभंगा का एक भी रास्ता सलीके से नहीं जानता. और उसने कहानी का मटियामेट कर दिया.
ReplyDeleteमुझे आश्चर्य यह हुआ कि आपने चार सिनेमाओं को एक ही कैटेगरी में कैसे डाल दिया? "जिला गाज़ियाबाद, दबंग, गेंग ऑफ वासेपुर और रौउडी राठोर" मेरे मुताबिक इसमें दबंग और रौउडी राठोर एक टेस्ट की मूवी है, जिला गाज़ियाबाद इन दोनों का एक घटिया नक़ल, और गेंग ऑफ वासेपुर बिलकुल अलग ही टेस्ट की.
विज्ञापन देखके तो लग रहा था चायद काम चलाऊ फिल्म होगी .... पर अच्छा हुवा आपने बता दिया इस के बारे में .... हम तो सोच रहे थे देखने जाएंगे ... चलो इसी बहाने पैसे बच गए ...
ReplyDeleteमैंने तो इस फिल्म का तक नहीं सुना था -यहाँ देखा तो चौका -सोनभद्र आने के बाद तो फिल्म छूट ही गयी है-अब आपके ही भरोसे हैं पूरी तरह से .....समीक्षा जरुर कर दिया करिए जो भी फिल्म देखें!
ReplyDeleteअपने शहर से पुनः जुड़ जाने की लालसा!
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