मन की गिरह मन की गिरह में बाँध कर तेरी यादें , अब अपने रस्ते चल दी हूँ मैं , खुलेगी नहीं ये किसी भी ठोकर से, यूँ पत्थर सी बन गयी हूँ मैं , जब कभी बहती हवा थम जायेगी, जब कभी झूमती नदी रुक जाएगी , जब कभी वेवक्त सांझ गहराएगी, जब कभी खिली चाँदनी धुन्धलाएगी , जब कभी अजनबी सदा बुलाएगी , जब कभी ख़ामोशी भी डराएगी, जब कभी चाहना स्वप्न बोयेगी जब कभी बेवजह आँख रोएगी , जब कभी थक जाऊँगी चलते -चलते , और कोई चिराग बुझेगा जलते - जलते तब ही किसी दरख्त की छाँव तले , तेरी मौजूदगी का आभास किये, खोल दूंगी इस गिरह को मैं , आँखों में भर कर तेरी यादों को , अपनी रूह में जज़्ब कर लूंगी मैं, फ़िर जब भी रुकेंगी साँसे, मुझे अलग ये हो न पाएंगी, रहेंगी साथ सदा और जायेंगी संग, उस जहाँ में भी.... हाँ, रहेंगी साथ सदा उस जहाँ में भी.... --------------अल्पना वर्मा --------------- |
थोडा और विस्तार..
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July 26, 2011
मन की गिरह
July 20, 2011
आखिरी मुशायरा
मार्च २००९ में मुशायरा और कवि सम्मलेन करवाया गया था. २०१० में मंत्रालय की अनुमति नहीं मिली.
इस साल मार्च , २०११ में अनवर अफ़ाकी साहब यहाँ -वहाँ खूब भाग दौड कर रहे थे कि किसी तरह इस साल अनुमति मिल जाये .मैंने दिगंबर नासवा जी को भी निमंत्रण भेजा था कि वे भी भाग लें परंतु उन्हें उस तारीख को शहर से बाहर जाना था.
अलेन में मुशायरा और कवि सम्मलेन करवाने की शुरुआत ग्यारह साल पहले इंडियन सोशल सेण्टर में अब्दुल सत्तार शेफ़्ता जी ने की थी. मुझे भी इस मंच पर पहला अवसर देने का श्रेय उन्हीं को जाता है.शेफ़्ता साहब पिछले कुछ सालों से अबू धाबी शिफ्ट हो गए थे .
इस साल मार्च , २०११ में अनवर अफ़ाकी साहब यहाँ -वहाँ खूब भाग दौड कर रहे थे कि किसी तरह इस साल अनुमति मिल जाये .मैंने दिगंबर नासवा जी को भी निमंत्रण भेजा था कि वे भी भाग लें परंतु उन्हें उस तारीख को शहर से बाहर जाना था.
अलेन में मुशायरा और कवि सम्मलेन करवाने की शुरुआत ग्यारह साल पहले इंडियन सोशल सेण्टर में अब्दुल सत्तार शेफ़्ता जी ने की थी. मुझे भी इस मंच पर पहला अवसर देने का श्रेय उन्हीं को जाता है.शेफ़्ता साहब पिछले कुछ सालों से अबू धाबी शिफ्ट हो गए थे .