थोडा और विस्तार..
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March 31, 2008
आग नफ़रत की
आग नफ़रत की
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आग की लपटें उठीं,
कैसा कहर बरपा गया,
हर तरफ़ काला धुआँ
आसमां ज़मीन को खा गया ,
उड़ रहे थे चीथड़े
कंक्रीट और इंसानो के ,
लो और एक खेल हैवानीयत का ,
इंसान फिर दिखला गया !
आज के इस दौर में
इंसान की क़ीमत कुछ नहीं ,
जां की क़ीमत कुछ नहीं ,
ईमान की क़ीमत कुछ नहीं ,
हर कोई ये जानता है-
मौत सब को आनी है ,
फिर ना जाने क्यूं कोई कब,
कैसे क़ातिल हो गया ?
सरहदों के दायरे
और दायरों के ये भंवर,
जाने कुछ ,अनजाने कुछ ,
हर कोई शामिल हो गया ,
कौन कर पाएगा यक़ीन
एक शहर बसता था यहाँ!
बारूद , हथियारों का जहाँ,
एक जंगल बन गया !
सब्र का मतलब तो बस
अब कागज़ी रह जाएगा,
प्यार बस एक शब्द
किताबों में लिखा रह जाएगा.
खो रहे हैं चैन और अमन
क्यूं हम दिलो दिमाग़ से,
इस तरह तो जिस्म ये
ख़ाली मकान रह जाएगा.
आओ बुझाएँ आग नफ़रत की ,
प्यार की बरसात से...
नहीं तो ...
देखते ही देखते,
ये जहाँ,
उजड़ा चमन रह जाएगा!
----अल्पना वर्मा [यह कविता मैंने ९/११ के हादसे पर लिखी थी.]
March 23, 2008
कुछ भटके हुए शब्द आप की नज़र!
१-तेरी चाहत ने
रिहा किया न मुझे,
यूं,
अपनी पहचान
खो रही हूँ मैं.
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२-संकरी हो गयी
कुछ इस क़दर,
पगडंडियाँ जीवन की ,
हर मोड़ पर,
ख़ुद से
टकरा जाती हूँ मैं!
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३-वरक दर वरक ,
लिखती रही दास्ताँ मैं रात भर,
सुबह,
हर पन्ने पर तेरा ही नाम था!!
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4-यूं तो -
परत दर परत
खुलने लगी थी मैं,
ये उसकी कमनसीबी
जो बेखबर रहा!
[अल्पना वर्मा द्वारा लिखित.]
रिहा किया न मुझे,
यूं,
अपनी पहचान
खो रही हूँ मैं.
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२-संकरी हो गयी
कुछ इस क़दर,
पगडंडियाँ जीवन की ,
हर मोड़ पर,
ख़ुद से
टकरा जाती हूँ मैं!
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३-वरक दर वरक ,
लिखती रही दास्ताँ मैं रात भर,
सुबह,
हर पन्ने पर तेरा ही नाम था!!
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4-यूं तो -
परत दर परत
खुलने लगी थी मैं,
ये उसकी कमनसीबी
जो बेखबर रहा!
[अल्पना वर्मा द्वारा लिखित.]
March 19, 2008
रंग होली के
1-रंग होली के
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हर और बिखर गए होली के रंग ,
ऐसे ही संवर गए फागुन के ढंग.
भँवरे भी रंग रहे कलियों के अंग,
हो रहे बदनाम कर के हुडदंग.
भर के पिचकारी,लो हाथ में गुलाल,
गौरी तुम खेलो मनमितवा के संग.
अब के बीतेगा सखी,फागुन भी फीका,
है परेशां दिल और ख्यालों में जंग.
बिरहन के फाग ,सुन बोली चकोरी,
मिलना जल्दी चाँद ! करना न तंग.
गहरे हैं नेह रंग, झूमे हर टोली,
गाए 'अल्प' फाग,बाजे ढोल और चंग.
-अल्पना वर्मा 'अल्प'
2-फिर आई होली
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बरस बाद देखो, फिर होली आई,
सतरंगी घटा, घिर घिर के छाई।
छलक-छलक जाएं बदरा से रंग,
मस्ताने डोल रहे करते हुडदंग।
वो देखो मस्त हुए, पी कर के भंग,
सखियाँ भी छोडे़ नहीं, करती हैं तंग।
रंग उड़े चहुँदिशा, सूखे और गीले,
हरे,जामनी,लाल,गुलाबी,नीले,पीले।
टोलियाँ नाचें गाएं, मिल के सब संग,
खूब ज़ोर आज बजाएं, ढोलक मृदंग।
धरती ने ओढ़ लीनी, पीली चुनरिया,
पवन बसंती जाए, कौन सी डगरिया।
मीठी व प्यार भरी,गुझिया तो खाओ,
याद रहे बरसों तक,ऐसी होली मनाओ।
-अल्पना वर्मा
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हर और बिखर गए होली के रंग ,
ऐसे ही संवर गए फागुन के ढंग.
भँवरे भी रंग रहे कलियों के अंग,
हो रहे बदनाम कर के हुडदंग.
भर के पिचकारी,लो हाथ में गुलाल,
गौरी तुम खेलो मनमितवा के संग.
अब के बीतेगा सखी,फागुन भी फीका,
है परेशां दिल और ख्यालों में जंग.
बिरहन के फाग ,सुन बोली चकोरी,
मिलना जल्दी चाँद ! करना न तंग.
गहरे हैं नेह रंग, झूमे हर टोली,
गाए 'अल्प' फाग,बाजे ढोल और चंग.
-अल्पना वर्मा 'अल्प'
2-फिर आई होली
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बरस बाद देखो, फिर होली आई,
सतरंगी घटा, घिर घिर के छाई।
छलक-छलक जाएं बदरा से रंग,
मस्ताने डोल रहे करते हुडदंग।
वो देखो मस्त हुए, पी कर के भंग,
सखियाँ भी छोडे़ नहीं, करती हैं तंग।
रंग उड़े चहुँदिशा, सूखे और गीले,
हरे,जामनी,लाल,गुलाबी,नीले,पीले।
टोलियाँ नाचें गाएं, मिल के सब संग,
खूब ज़ोर आज बजाएं, ढोलक मृदंग।
धरती ने ओढ़ लीनी, पीली चुनरिया,
पवन बसंती जाए, कौन सी डगरिया।
मीठी व प्यार भरी,गुझिया तो खाओ,
याद रहे बरसों तक,ऐसी होली मनाओ।
-अल्पना वर्मा
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March 10, 2008
इंतज़ार
उनके आने की खबर क्यों, अब नहीं आती,
बेरुखी उनकी अब-यूं तो सही नहीं जाती,
रात भर याद कर के उन्हें, रोया है कोई,
पर यह शिक़ायत भी,अब -की नहीं जाती,
एक उम्मीद पर हैं- दीयों को रोशन किये,
न जाने क्यूं रोशनी-उन से, अब नहीं आती .
-Alpana Verma
बेरुखी उनकी अब-यूं तो सही नहीं जाती,
रात भर याद कर के उन्हें, रोया है कोई,
पर यह शिक़ायत भी,अब -की नहीं जाती,
एक उम्मीद पर हैं- दीयों को रोशन किये,
न जाने क्यूं रोशनी-उन से, अब नहीं आती .
-Alpana Verma