हिन्दी ब्लागिंग में महिला ब्लागरों की चर्चा हुई और हम भी छपे यहाँ - तस्वीर देखीये- .....आज के राजस्थान पत्रिका समूह के भोपाल से प्रकाशित समाचारपत्र ''पत्रिका''की साप्ताहिक पत्रिका 'परिवार'' मे श्री आशीष खंडेलवाल जी ने 'ब्लॉग वुमन ' के नाम से आलेख लिखा है ।
आशीष जी को इस सुंदर आलेख के लिए धन्यवाद.
इस लेख के प्रकाशित होते ही सुबह से मेरे पास कई ईमेल भी आ रही हैं, जिन से मुझे बहुत ही प्रोत्साहन मिल रहा है.हिन्दी ब्लॉग जगत में मेरी अब तक जो भी पहचान बन पायी है उस के लिए सभी ब्लॉगर साथियों ,पाठकों और शुभचिंतकों की आभारी हूँ.आशा है भविष्य में भी ऐसे ही अपना प्यार और सहयोग आप मुझे देते रहेंगे
'उस को 'सीढियां उतरते हुए, गले में लटकते सुनहरी तमगे, हाथों में चन्द्र -विजय पताका भी है ,
मगर , कदम भारी , नज़रें ग़मगीन हैं उस की, बेगुनाहों की लाशों का वज़न उठाये चला जाता नहीं उस से,
सर झुक गया इतना कि रास्ता भी दिखता नहीं ।
हाँ , जा रहा है जो , वह साल२००८ है,
आईये , कर देते हैं उस को विदा- रोशनी दे कर, घावों पर उस के मरहम रख कर।
और प्रार्थना करते हैं कि नव वर्ष उजाले नए ले कर आए। -अल्पना -
दिसम्बर से मार्च तक हर साल लगने वाले 'ग्लोबल-विल्लेज ,दुबई 'में भारत का पंडाल सब से बड़ा और सब से अधिक लोकप्रिय होता है.इस साल भी आयोजित इस मेले में भारत का पंडाल बहुत ही सुंदर सजाया गया है.देखिये भारत के पवेलियन की कुछ ताजा तस्वीरें-
कृत्रिम नहर के एक तरफ़ भारत और दूसरी तरफ़ मिस्र का पवेलियन
'हरे कांच की किरचें ' इस कविता का मर्म समझाने से पहले बता दूँ कि मैंने यह तय किया है कि भविष्य में कविता के साथ ही उस का प्रसंग भी प्रस्तुत किया करुँगी या फिर सरल कविता ही पोस्ट करुँगी.
ब्रिज मोहन श्रीवास्तव जी ने इस बार इस कविता की व्याख्या स्वयं इस प्रकार की है और मेरी राय मांगी है.
मन को पीड़ा से भर देने वाली रचना/मेडम आपका जो भी द्रष्टिकोण रहा हो लिखने का/पाठक को भी अपना अनुमान लगाने का अधिकार है/यह व्यथा एक सैनिक की पत्नी की भी हो सकती है और शहीद की पत्नी की भी या ऐसे ही किसी एनी की भी/क्योंकि चूडियाँ उतार फेंकना और सुर्ख चिन्ह मिटा कर आंसू भर आना लेकिन मन में'हरे कांच की चूडियों की इच्छा दवी होना मेरे मनमे आए विचार की पुष्टि करता है /जहाँ तक बुद्ध हो गई है तो इसको पत्थर हो गई है कहने में भी कोई हर्ज न था मगर वह निर्जीब होता और इस नारी में अभी जीवन शेष है/लगता है अहिल्या भी वास्तव में पत्थर की शिला न हो कर शिलावत हो गई होगी/यदि मेरा द्रष्टिकोण जरा भी सत्य है तो इतनी मार्मिक रचना मेरी नजरों से आज तक नहीं गुज़री /पुन पुन धन्यवाद और वधाई
मैं यही कहना चाहूंगी कि आप सही समझे हैं. अच्छा लगता है जब अपनी रचना में किसी पाठक की इतनी रूची पाते हैं. लेकिन कविता में इस बार मैं ने कोशिश की कि कम से कम सांकेतिक भाषा का प्रयोग हो जिस से ज्यादा सेज्यादा पाठक समझ सकें.विज्ञान विषय की स्नातक होने के कारण मैंने हिन्दी [बी-कोर्स ]बारहवीं तक ही पढ़ी है और हिन्दी साहित्य के नाम पर प्रेमचंद और शिवानी के अलावा ज्यादा किसी को नहीं पढ़ा.इस लिए हिन्दी के अपने सीमित ज्ञान के आधार पर जो थोड़ा लिख लेती हूँ उसे ऐसे ही समझा सकती हूँ वह यह है-कि इस कविता 'हरे कांच की किरचें 'में मैं ने एक स्त्री की उन भावनाओं को दर्शाने की कोशिश की है जो स्त्री के लिए ही ख़ास सुरक्षित हैं. कविता में'अगन''-- यह परिस्थिति के अनुसार अपना कारण बदलती है-
१-जैसा की आप ने समझा-एक विधवा की मनोव्यथा है--तो यह अगन प्रियतम की चिता की अग्नि हो सकती है. २-या समझिये-एक हारी हुई स्त्री के रोष/क्रोध या उपेक्षित होने पर मन में उपजी हो. ३-या फिर यह विरह /बिछोह में तड़प से लगी हो? ४-या फिर अपने ही भावों के ज्वर से उपजी हो जिसे वह नियंत्रित न कर पा रही हो. ५-या संबंधों की परिभाषा समझ पाने में असहाय होने की कुंठा से जन्मी ज्वाला.
कोई भी कारण हो इन परिस्थितियों में मजबूर हो कर या प्रतिरोध कर न पाने की स्थिति में इस संबंधों को तोड़ देना चाहती है.-'चूडियाँ उतार फेंकना -सुर्ख चिन्हों[बिंदिया और सिन्दूर] सुहाग की निशानियों को मिटा देना--स्थाई [एक विधवा] या अस्थायी[एक विरहिणी ]करती है तो अपने अन्दर की सभी चाहतों को खतम कर देने का प्रयास करती है.निराशा -हताशा उसे पत्थर बना देती है--आप ने सही कहा -अहिल्या भी ऐसी हो गयी थी.नायिका का दुःख चरम पर है.
मनोविज्ञान में दुःख[grief]की पाँच अवस्थाएं होती हैं-denial, anger, bargaining,depression, acceptance; death -डिप्रेशन के बाद acceptance है-और यहीअवस्था यहाँ इस नायिका की भी है-
- जिस को देख कर लोग कहने लगते हैं वो बुद्ध हो गयी है!
डॉ.अनुराग जी सही कहते हैं-'बुद्ध हो जाना इतना आसान भी नही है ओर इसे स्वीकार करना भी !'
राज भाटिया जी के इस कथन से कविता के भाव और साफ़ हो जाते हैं ' बहुत दर्द लिये है यह हरे कांच की किरचे ! मन चाहता है इन्हे निकालन फ़ेकना.... लेकिन यादे भी तो साथ मे लगी है इन किर्चो के.. बहुत कुछ बंधा है इन किर्चो से... बहुत वेदना छुपी है.
ज्ञान दत्त जी ने ने भी सही जाना -यह तो आपने आत्मपरीक्षण का तरीका बता दिया, कि बुद्ध हुये या नहीं,
कैसे जाना जाये। सुशील कुमार छोक्कर जी -कांच की किरचें कांच के महीन टुकड़ों को कहते हैं .हर कांच की चूडियाँ सुहाग का प्रतीक हैं -
और आगे कविता का भाव आप समझ ही गए हैं. [P.S.व्याख्या करते हुए ऐसा लगता है जैसे किसी परीक्षा में बैठी लिख रही हूँ]
[chitr google se sabhaar] विरहिणी की अन्तर वेदना को बताती हुई यह कविता प्रस्तुत है- हरे कांच की किरचें ----------------------- अगन - तपा जाती है तन उसका, मन भी सुलगने लगता है,
गर्म होती कांच की चूडियाँ उतार फेंकती है वो. पोंछ देती है सुर्ख चिन्हों को. भिगोती रहती है आंसुओं में ख़ुद को और बन जाती है एक बुत !
लोग कहते हैं कि 'वो 'बुद्ध 'हो गयी है!!
मगर नहीं...वो जानती है वो बुद्ध नहीं हुई! क्योंकि अब भी , उस के मन में पीर देती हैं व्याकुल करती हैं उस को , मन में दबी - हरे कांच की किरचें!